Tejobindu Upanishad Chapter 1 (तेजोबिन्दु उपनिषद प्रथम अध्यायः पहला अध्याय)

॥ श्री हरि ॥ ॥ तेजोबिन्दु उपनिषद॥ तेजोबिन्दु उपनिषद यत्र चिन्मात्रकलना यात्यपह्नवमञ्जसा । तच्चिन्मात्रमखण्डैकरसं ब्रह्म भवाम्यहम् ॥ जिस चैतन्य स्वरूप संसार कि रचना शीघ्र दिन रात्रि में हो रही है, वह चिन्मात्र अखंड एकरस व्यापक ब्रह्म मैं हूँ। ॐ सह नाववतु ॥ सह नौ भुनक्तु ॥ सह वीर्यं करवावहै ॥ तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ परमात्मा हम दोनों गुरु शिष्यों का साथ साथ पालन करे। हमारी रक्षा करें। हम साथ साथ अपने विद्याबल का वर्धन करें। हमारा अध्यान किया हुआ ज्ञान तेजस्वी हो। हम दोनों कभी परस्पर द्वेष न करें। ॥ श्री हरि ॥ ॥ तेजोबिन्दु उपनिषद ॥ प्रथम अध्यायः पहला अध्याय ॐ तेजोबिन्दुः परं ध्यानं विश्वात्महृदिसंस्थितम् । आणवं शाम्भवं शान्तं स्थूलं सूक्ष्मं परं च यत् ॥ १॥ ॐ मायिक जगत् से परे हृदयाकाशमें अवस्थित प्रणवस्वरूप तेजोमय बिन्दुका ध्यान ही परम ध्यान है। वह तेजोमय बिन्दु का ध्यान आणव अर्थात अत्यन्त सूक्ष्म उपाय से साधने योग्य, शाम्भव अर्थात शिव रूपता की प्राप्ति कराने वाला एवं शाक्त अर्थात गुरु की शक्ति से ही साध्य है। इसी प्रकार स्थूल, सूक्ष्म तथा इन दोनोंसे परे सर्वातीत फलस्वरूप भी है।॥१॥ दुःखाढ्यं च दुराराध्यं दुष्प्रेक्ष्यं मुक्तमव्ययम् । दुर्लभं तत्स्वयं ध्यानं मुनीनां च मनीषिणाम् ॥ २॥ बुद्धिमान् मुनियों के लिए भी उस बिन्दु के ध्यान की साधना बड़ी कठिन है, वह कठिनता से आराधित (सिद्ध) होता है। वह दुर्दर्श है। उसका आश्रयण कठिनता से हो पाता है। वह कठिनाई से ही लक्षित होता है। वह दुस्तर है, उस ध्यान को अन्त तक निभा लेना अत्यन्त कठिन है॥२॥ यताहारो जितक्रोधो जितसङ्गो जितेन्द्रियः । निर्द्वन्द्वो निरहङ्कारो निराशीरपरिग्रहः ॥ ३॥ अगम्यागमकर्ता यो गम्याऽगमयमानसः । मुखे त्रीणि च विन्दन्ति त्रिधामा हंस उच्यते ॥ ४॥ आहार को जीतकर अर्थात मिताहारी होकर, क्रोध को अपने वश में करके, समस्त संगों से तटस्थ होकर, इन्द्रियों पर विजय करके, सुख- दुःखादि द्वन्द्वों से रहित होकर, अहंकार को त्यागकर, समस्त आशाओं को छोड़कर एवं संग्रह हीन होकर तथा दूसरों को जो अगम्य है, उसे भी प्राप्त करने के दृढ़ निश्चय से युक्त होकर, केवल गुरु सेवा का ही प्रयोजन रखने वाला साधक इस ध्यान का मुख्य अधिकारी है। इस तेजोमय बिन्दु के ध्यान में साधक लोग वैराग्य, उत्साह एवं गुरु भक्ति इन तीन प्रमुख साधनों को उपलब्ध करते हैं; अतः यह हंस विशुद्ध तत्त्व त्रिधामा कहा जाता है॥३-४॥ परं गुह्यतमं विद्धि ह्यस्ततन्द्रो निराश्रयः । सोमरूपकला सूक्ष्मा विष्णोस्तत्परमं पदम् ॥५॥ यह ध्यान करने योग्य तेजो बिन्दु परम गोपनीय एवं अधिष्ठान रूप है। यह सबको प्रतीत न होने के कारण अव्यक्त है, ब्रह्म स्वरूप है; इसका कोई अधिष्ठान नहीं है। यही सभी का आधार है। यह आकाश के समान व्यापक है, सूक्ष्म कलात्मक एवं भगवान् विष्णु का प्रसिद्ध परम पद अथवा परमधाम भी यही है। ॥५॥ त्रिवक्त्रं त्रिगुणं स्थानं त्रिधातुं रूपवर्जितम् । निश्चलं निर्विकल्पं च निराकारं निराश्रयम् ॥६॥ यह तीनों लोकों का उत्पत्ति स्थान, त्रिगुणमय, सबका आश्रय, त्रिभुवन स्वरूप, निराकार, गतिहीन, समस्त विकल्पों से रहित, बिना किसी आधार एवं आश्रय का स्वप्रतिष्ठान स्वरूप है। ॥६॥ उपाधिरहितं स्थानं वाङ्ग‌नोऽतीतगोचरम् । स्वभावं भावस‌ङ्ग्राह्यमसङ्घातं पदाच्च्युतम् ॥ ७॥ यह समस्त उपाधियों से रहित, स्थिति, वाणी प्रभृति इन्द्रियों एवं मन की गति से परे, स्वभाव की भावना, अपने वास्तविक स्वरूप के चिन्तन द्वारा ही ग्राह्य तथा समष्टि और व्यष्टिवाचक पदों से भी अगम्य है॥५-७॥ अनानानन्दनातीतं दुष्प्रेक्ष्यं मुक्तिमव्ययम् । चिन्त्यमेवं विनिर्मुक्तं शाश्वतं ध्रुवमच्युतम् ॥ ८॥ यह तेजोबिन्दु आनन्द स्वरूप, विषय-सुखों से परे, बड़ी कठिनाई से साक्षात् होनेवाला, अजन्मा, अविनाशी, चित्त की वृत्तियों से विनिर्मुक्त, शाश्वत, निश्चल तथा नाश रहित है। तद्ब्रह्मणस्तदध्यात्मं तद्विष्णोस्तत्परायणम् । अचिन्त्यं चिन्मयात्मानं यद्योम परमं स्थितम् ॥ ९॥ यही ब्रह्म स्वरूप है, यही अध्यात्म स्वरूप है, यही विष्णु स्वरूप है, यही निष्ठा, परम मर्यादा और यही परम आश्रय है। चिंतन करने से भी दुसाध्य जो ऐसा चिन्मय आत्मा है, वह परम आकाश रूप से स्थित है। अशून्यं शून्यभावं तु शून्यातीतं हृदि स्थितम् । न ध्यानं च न च ध्याता न ध्येयो ध्येय एव च ॥ १०॥ वह शून्य न होने पर भी शून्य के समान है और शून्य से परे स्थित है। वह न ध्यान है, न ध्यान करने वाला है और न ध्येय है; तब भी सदा ध्यान करने योग्य अथवा ध्येय स्वरूप ही है। सर्वं च न परं शून्यं न परं नापरात्परम् । अचिन्त्यमप्रबुद्धं च न सत्यं न परं विदुः ॥ ११॥ वह सर्वस्व रूप और सबसे परे है। शून्य स्वरूप है। उस परमतत्त्व से परे कुछ भी नहीं है। यही परात्पर है। यही अचिन्त्य है। उसमें जागरण आदि का व्यापार नहीं है। उसे ज्ञानी महात्मा सत्य रूप से ही जानते हैं। ॥११॥ मुनीनां सम्प्रयुक्तं च न देवा न परं विदुः । लोभं मोहं भयं दर्प कामं क्रोधं च किल्बिषम् ॥ १२॥ शीतोष्णे क्षुत्पिपासे च सङ्कल्पकविकल्पकम् । न ब्रह्मकुलदर्प च न मुक्तिग्रन्थिसञ्चयम् ॥ १३॥ न भयं न सुखं दुःखं तथा मानावमानयोः । एतद्भावविनिर्मुक्तं तद्गाह्यं ब्रह्म तत्परम् ॥ १४॥ यह मुनियों से संबंधित नहीं है, देवताओं से भी संबंधित नहीं है, यह सर्व संबंध से रहित सबसे परे है। आत्मज्ञान में यह तेजोमय बिन्दु ही मुनियों के योग्य अर्थात मुनियों का आराध्य तत्त्व है और देवता उसे परम तत्त्व रूप ही जानते हैं। लोभ, मोह, भय, अहंकार, काम और क्रोध के परायण तथा पापों में लगे हुए लोग, सर्दी-गर्मी के द्वन्द्वों में आसक्त, भूख-प्यास की चिन्ता एवं विविध संकल्प- विकल्पों में संलग्न, ब्राह्मण (उच्च) वंश में उत्पत्ति का गर्व रखने वाले और मुक्ति प्रतिपादक शास्त्रों के केवल संग्रह में आसक्त (केवल शास्त्रज्ञानी) उस तेजोबिन्दु को नहीं जान पाते । तथा वह भय, सुख- दुःख तथा मान अपमान आदि में फंसे हुए लोगों को भी नहीं प्राप्त होता । जो इन समस्त दूषित भावों से छूटे हुए हैं, उन्हीं के द्वारा यह परात्पर ब्रह्म प्राप्त होने योग्य है। उन्हीं के द्वारा वह परात्पर ब्रह्म प्राप्त होने योग्य है॥ १२-१४॥ यमो हि नियमस्त्यागो मौनं देशश्च कालतः । आसनं मूलबन्धश्च देहसाम्यं च दृक्स्थितिः ॥ १५॥ प्राणसंयमनं चैव प्रत्याहारश्च धारणा । आत्मध्यानं समाधिश्च प्रोक्तान्यङ्गानि वै क्रमात् ॥ १६॥ यम, नियम, त्याग, मौन, देश और काल, आसन, मूलबन्ध देह की समानता और दृष्टि की स्थिति प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा, आत्म ध्यान और समाधि यह योग क्रम से अंग कहे हैं ॥१५-१६॥ सर्वं ब्रह्मेति वै ज्ञानादिन्द्रियग्रामसंयमः । यमोऽऽयमिति सम्प्रोक्तोऽभ्यसनीयो मुहुर्मुहुः ॥ १७॥ यम का स्वरूप सर्व ब्रह्म है, इस प्रकार के ज्ञान से और इन्द्रिय समूह का संयम यह 'यम' कहा जाता है। इस प्रकार कहे हुए यम का बारंबार अभ्यास करना चाहिए ॥१७॥ सजातीयप्रवाहश्च विजातीयतिरस्कृतिः । नियमो हि परानन्दो नियमात्क्रियते बुधैः ॥ १८ ॥ नियम का स्वरूप सजातीय अर्थात मैं असंग ब्रह्म हूँ इस प्रकार का प्रवाह और विजातीय का मैं जीव हूँ इस प्रकार तिरस्कार है। यह परानन्द रूप नियम विद्वानों से किया जाता है ॥१८॥ त्यागः प्रपञ्चरूपस्य सच्चिदात्मावलोकनात् । त्यागो हि महता पूज्यः सद्यो मोक्षप्रदायकः ॥ १९॥ त्याग ही प्रपंच रूप से उस सद चित आत्मा का अवलोकन करवा सकता है। त्याग अत्यन्त पूज्य ब्रह्मविद्या-दाता गुरु, शीघ्र मोक्षदाता है। इसलिए त्याग का सेवन करो ॥१९॥ यस्माद्वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह । यन्मौनं योगिभिर्गम्यं तद्भजेत्सर्वदा बुधः ॥ २०॥ मौन मन वाणी सहित जिसको न प्राप्त कर के निवृत्त होती है। ऐसे योगियों को प्राप्त होने योग्य मौन को पण्डित जन सदा आचरण करते हैं। ॥२०॥ वाचो यस्मान्निवर्तन्ते तद्वक्तुं केन शक्यते । प्रपञ्चो यदि वक्तव्यः सोऽपि शब्दविवर्जितः ॥ २१॥ जो वाणी का विषय न हो उसे कौन कह सकता है। यद्यपि प्रपंच का कथन हो सकता है तो भी वह शब्द से रहित अनिर्वचनीय है ॥२१॥ इति वा तद्भवेन्मौनं सर्वं सहजसंज्ञितम् । गिरां मौनं तु बालानामयुक्तं ब्रह्मवादिनाम् ॥ २२॥ अथवा जो सब स्वाभाविक रूप से स्वतः सिद्ध हो जाए वह 'मौन' है । वाणी का मौन तो बालकों के लिए है, वह ब्रह्म-वादियों के लिये अयोग्य है ॥२२॥ आदावन्ते च मध्ये च जनो यस्मिन्न विद्यते । येनेदं सततं व्याप्तं स देशो विजनः स्मृतः ॥ २३॥ जिसमें आदि अन्त और मध्य में जगत् नहीं है, जिस करके यह हमेशा व्याप्त है, वह देश निर्जन कहा गया है ॥२२॥ कल्पना सर्वभूतानां ब्रह्मादीनां निमेषतः । कालशब्देन निर्दिष्टं ह्यखण्डानन्दमद्वयम् ॥ २४॥ ब्रह्मा आदि सब भूतों की कल्पना केवल एक निमेष' से है और अखण्ड आनन्दं अद्वितीय ब्रह्मकाल शब्द से कहा गया है ॥२४॥ सुखेनैव भवेद्यस्मिन्नजस्रं ब्रह्मचिन्तनम् । आसनं तद्विजानीयादन्यत्सुखविनाशनम् ॥ २५॥ जिसमें नित्य ब्रह्म का चितवन सुख से हो उसको आसन जानना चाहिए जो इससे अन्य प्रकार का है, वह सुख का नाश करने वाला आसन है ॥२५॥ सिद्धये सर्वभूतादि विश्वाधिष्ठानमद्वयम् । यस्मिन्सिद्धिं गताः सिद्धास्तत्सिद्धासनमुच्यते ॥ २६॥ सिद्धासन सिद्धि प्राप्त करने के लिये सब भूतों के आदि रूप और विश्व का अद्वितीय अधिष्ठान ही आसन है। जिसमें ठहरने से सिद्धि को सिद्धि प्राप्त हुई, है उसको 'सिद्ध आसन' कहते हैं ॥ २६ ॥ यन्मूलं सर्वलोकानां यन्मूलं चित्तबन्धनम् । मूलबन्धः सदा सेव्यो योग्योऽसौ ब्रह्मवादिनाम् ॥ २७॥ जो सर्व लोकों का मूल है, जो समस्त चित्त का मूल और समस्त चित्त का बन्धन है, वही मूल बंध सदा सेवन योग्य है, वही ब्रह्मवादियों के सेवन करने योग्य है ॥२७॥ अङ्गानां समतां विद्यात्समे ब्रह्मणि लीयते । नो चेन्नैव समानत्वमृजुत्वं शुष्कवृक्षवत् ॥ २८॥ समान ब्रह्म में लीन होने के लिए तपस्या करते हुए अंगों की समानता प्राप्त करना अर्थात सूखे वृक्ष के समान सीधा खड़ा रहना समानता है ॥२८॥ दृष्टीं ज्ञानमयीं कृत्वा पश्येद्ब्रह्ममयं जगत् । सा दृष्टिः परमोदारा न नासाग्रावलोकिनी ॥ २९॥ ज्ञानमयी दृष्टि के द्वारा जगत् को ब्रह्ममय देखने वाली दृष्टि ही परम उदार है। केवल नासिका के अग्रभाग को देखने वाली दृष्टि उदार नहीं है ॥२९॥ द्रष्ट्रदर्शनदृश्यानां विरामो यत्र वा भवेत् । दृष्टिस्तत्रैव कर्तव्या न नासाग्रावलोकिनी ॥ ३०॥ अथवा जहां द्रष्टा, दर्शन और दृश्य का विराम हो जाए अर्थात समरूपता प्राप्त हो जाए, वैसी ही दृष्टि प्राप्त करने ने लिए उद्यम करना कर्तव्य है। केवल नासिका के अग्रभाग को देखने वाली दृष्टि रखना ही कर्तव्य नहीं है ॥३०॥ चित्तादिसर्वभावेषु ब्रह्मत्वेनैव भावनात् । निरोधः सर्ववृत्तीनां प्राणायामः स उच्यते ॥ ३१॥ चित्त आदि समस्त भावों में ब्रह्म रूप की भावना रखकर समस्त वृतियों का रोकना प्राणायाम कहलाता है ॥३१॥ निषेधनं प्रपञ्चस्य रेचकाख्यः समीरितः । ब्रह्मवास्मीति या वृत्तिः पूरको वायुरुच्यते ॥ ३२॥ प्रपंच का निषेध अर्थात व्यावहारिक वृत्तियों का त्याग ही 'रेचक कहलाता है। 'मैं ब्रह्म ही हूँ' यह वृत्ति पूरक वायु प्राणायाम कहलाता है ॥३२॥ ततस्तद्वृत्तिनैश्चल्यं कुम्भकः प्राणसंयमः । अयं चापि प्रबुद्धानामज्ञानां घ्राणपीडनम् ॥ ३३॥ ब्रह्माकार वृत्ति की निश्चलता कुम्भक प्राणायाम है। इस प्रकार का कुम्भक प्राणायाम ज्ञानियों के लिये है। अज्ञानियों के लिये केवल नासिका को दबाना है ॥३३॥ विषयेष्वात्मतां दृष्ट्वा मनसश्चित्तरञ्जकम् । प्रत्याहारः स विज्ञेयोऽभ्यसनीयो मुहुर्मुहुः ॥ ३४॥ विषयों को आत्मा से देखकर मन का चैतन्य हो जाना ही 'प्रत्याहार' जानना चाहिये । उसका बारम्बार अभ्यास करना चाहिये ॥३४॥. यत्र यत्र मनो याति ब्रह्मणस्तत्र दर्शनात् । मनसा धारणं चैव धारणा सा परा मता ॥ ३५॥ जहां जहां मन जाता है वहां वहां ब्रह्म के देखने से मन की जो धारणा होती है वह धारणा उत्तम मानी गई है ॥ ३५ ॥ ब्रह्मैवास्मीति सद्वृत्त्या निरालम्बतया स्थितिः । ध्यानशब्देन विख्यातः परमानन्ददायकः ॥ ३६॥ 'मैं ही ब्रह्म हूँ! इस प्रकार की निरालम्ब सवृत्ति से परमानन्द देने वाली स्थिति का नाम 'ध्यान' है ॥३६॥ निर्विकारतया वृत्त्या ब्रह्माकारतया पुनः । वृत्तिविस्मरणं सम्यक्समाधिरभिधीयते ॥ ३७॥ निर्विकार बुद्धि वृत्ति ब्रह्माकार होकर फिर वृत्ति का विस्मरण होना समाधि कहलाती है ॥३७॥ इमं चाकृत्रिमानन्दं तावत्साधु समभ्यसेत् । लक्ष्यो यावत्क्षणात्पुंसः प्रत्यक्त्वं सम्भवेत्स्वयम् ॥ ३८॥ जब तक इस प्रकार के अकृत्रिम अर्थात वास्तविक आनन्द की प्राप्ति न हो तो तब तक साधु को अच्छी प्रकार से अभ्यास करना चाहिए। इस प्रकार अभ्यास करने से पुरुष का लक्ष्य स्वयं प्रत्यक्ष हो जाता है ॥३८॥ ततः साधननिर्मुक्तः सिद्धो भवति योगिराट् । तत्स्वं रूपं भवेत्तस्य विषयो मनसो गिराम् ॥ ३९॥ इसके पश्चयात योगीराज 'साधन से मुक्त होकर सिद्ध होता है तब उसके मन और वाणी का अविषय अपना हो जाता है। ॥३६॥ समाधौ क्रियमाणे तु विघ्नान्यायान्ति वै बलात् । अनुसन्धानराहित्यमालस्यं भोगलालसम् ॥ ४०॥ हे स्वामी कार्तिकेय ! परन्तु समाधि करते हुये विघ्न बलपूर्वक अवश्य ही आते हैं। अनुसंधान का त्याग, आलस्य, भोग की इच्छा ॥४०॥ लयस्तमश्च विक्षेपस्तेजः स्वेदश्च शून्यता । एवं हि विघ्नबाहुल्यं त्याज्यं ब्रह्मविशारदैः ॥ ४१॥ लय, अन्धकार, विक्षेप, तेज, पसीना और शून्यता इस प्रकार के बहुत से विघ्न ब्रह्म ज्ञानियों को त्यागने चाहिएं ॥४१॥ भाववृत्त्या हि भावत्वं शून्यवृत्त्या हि शून्यता । ब्रह्मवृत्त्या हि पूर्णत्वं तया पूर्णत्वमभ्यसेत् ॥ ४२॥ हे स्वामी कार्तिकय ! भाव वृत्ति से भावना है, शून्य वृत्ति से शून्यता है, ब्रह्म वृत्ति से पूर्णता है। उस ब्रह्मवृत्ति से ही पूर्णता का अभ्यास करना चाहिए ॥४२॥ ये हि वृत्तिं विहायैनां ब्रह्माख्यां पावनीं पराम् । वृथैव ते तु जीवन्ति पशुभिश्च समा नराः ॥ ४३॥ अर्थ ब्रह्म वृत्ति से रहित की श्रुति निन्दा करती है जो मनुष्य इस परम पवित्र ब्रह्म नाम वाली वृत्ति को छोड़ते हैं, वह पशुओं के समान व्यर्थ ही इस पृथ्वी पर जीवित हैं ॥४३॥ ये तु वृत्तिं विजानन्ति ज्ञात्वा वै वर्धयन्ति ये । ते वै सत्पुरुषा धन्या वन्द्यास्ते भुवनत्रये ॥ ४४॥ ब्रह्मवृति सहित पुरुष की श्रुति स्तुति करती है। जो इस वृत्ति को जानते हैं और जान कर उसे बढ़ाते हैं, वह पुरुष धन्य हैं तीनों लोकों में वन्दना करने योग्य है ॥४४॥ येषां वृत्तिः समा वृद्धा परिपक्वा च सा पुनः । ते वै सद्ब्रह्मतां प्राप्ता नेतरे शब्दवादिनः ॥ ४५॥ हे स्वामी कार्तिकय! पुनः जिनकी चित्त वृत्ति समत्व होकर वृद्ध ओर परिपक्व हुई है वही सत्य ब्रह्मभाव को प्राप्त हुए हैं और दूसरे ब्रह्म शब्द वादी नहीं प्राप्त होते ॥४५॥ कुशला ब्रह्मवार्तायां वृत्तिहीनाः सुरागिणः । तेऽप्यज्ञानतया नूनं पुनरायान्ति यान्ति च ॥ ४६ ॥ ब्रह्म वार्ता में कुशल वृत्तिहीन ओर जो राग वाले हैं वे भी अज्ञानता के कारण बारम्बार जन्म-मरण में आते जाते हैं ॥४६॥ निमिषार्धं न तिष्ठन्ति वृत्तिं ब्रह्ममयीं विना । यथा तिष्ठन्ति ब्रह्माद्याः सनकाद्याः शुकादयः ॥ ४७॥ वह ज्ञानी ब्रह्म बुद्धि कि वृत्ति के बिना ब्रह्म आदि, सनकादि, शुकादि के सामने आधे क्षण भी स्थित नहीं होते ॥४७॥ कारणं यस्य वै कार्यं कारणं तस्य जायते । कारणं तत्त्वतो नश्येत्कार्याभावे विचारतः ॥ ४८॥ कार्य कारण भाव में विचार की कर्तव्यता जिसका कार्य कारण रूप होता है उसके कार्य में कारण ही उत्पन्न होता है। इस प्रकार कार्य के अभाव का विचार करने से स्वरूप से कारण नाश हो जाता है। पुत्र के होने से पिता की सिद्धि है, पुत्र के अभाव से पिता शब्द की जनक में प्रवृत्ति नहीं ऐसा जानो ॥४८॥ अथ शुद्धं भवेद्वस्तु यद्वै वाचामगोचरम् । उदेति शुद्धचित्तानां वृत्तिज्ञानं ततः परम् ॥ ४९ ॥ जब वाणी की अविषय रूप वस्तु शुद्ध होती है, तब शुद्ध चित्त वालों को परम वृत्ति के ज्ञान का उदय होता है। ॥४६॥ भावितं तीव्रवेगेन यद्वस्तु निश्चयात्मकम् । दृश्यं ह्यदृश्यतां नीत्वा ब्रह्माकारेण चिन्तयेत् ॥ ५०॥ तीन वेग से भावना की हुई जो वस्तु निश्चय स्वरूप है उसका दृश्य अदृश्य करके ब्रह्म आकार रूप से चिन्तवन करना चाहिए ॥५०॥ विद्वान्नित्यं सुखे तिष्ठेद्धिया चिद्रसपूर्णया ॥ बुद्धि को चैतन्य रस से पूर्ण करके विद्वान् नित्य सुख में विश्राम करे ॥१॥ इति प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥

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