Tripur Upanishad (त्रिपुर उपनिषद)

॥ श्री हरि ॥ ॥अथ त्रिपुरोपनिषत्॥ ॥ हरिः ॐ ॥ त्रिपुरोपनिषद्वेद्यपारमैश्वर्यवैभवम् । अखण्डानन्दसाम्राज्यं रामचन्द्रपदं भजे ॥ वाङ्‌ मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि ॥ वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीरनेनाधीतेनाहोरात्रान् संदधाम्मृतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि ॥ तन्मामवतु तद्वक्तारमवत्ववतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम् ॥ हे सच्चिदानंद परमात्मन ! मेरी वाणी मन में प्रतिष्ठित हो जाए। मेरा मन मेरी वाणी में प्रतिष्ठित हो जाए। हे प्रकाशस्वरूप परमेश्वर! मेरे सामने आप प्रकट हो जाएँ। हे मन और वाणी ! तुम दोनों मेरे लिए वेद विषयक ज्ञान को लानेवाले बनो। मेरा सुना हुआ ज्ञान कभी मेरा त्याग न करे। मैं अपनी वाणी से सदा ऐसे शब्दों का उच्चारण करूंगा, जो सर्वथा उत्तम हों तथा सर्वदा सत्य ही बोलूँगा। वह ब्रह्म मेरी रक्षा करे, मेरे आचार्य की रक्षा करे। ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ भगवान् शांति स्वरुप हैं अतः वह मेरे अधिभौतिक, अधिदैविक और अध्यात्मिक तीनो प्रकार के विघ्नों को सर्वथा शान्त करें । ॥ हरिः ॐ ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥ त्रिपुरोपनिषत्॥ त्रिपुर उपनिषद ॐ तिस्रः पुरास्त्रिपथा विश्वचर्षणा अत्राकथा अक्षराः सन्निविष्टाः । अधिष्ठायैना अजरा पुराणी महत्तरा महिमा देवतानाम् ॥ १॥ तीन पुर, तीन पथ एवं इस (श्री चक्र) में सन्निविष्ट अकथादि अक्षर- इन सभी से अधिष्ठित यह (शक्ति) सबको समान दृष्टि से देखने वाली जो अजर, प्राचीन चैतन्य शक्ति है, वह अपनी महिमा से अत्यधिक श्रेष्ठ है ॥१॥ नवयोनिर्नवचक्राणि दधिरे नवैव योगा नव योगिन्यश्च । नवानां चक्रा अधिनाथाः स्योना नव मुद्रा नव भद्रा महीनाम् ॥ २॥ वह चैतन्य शक्ति नव योनि, नवचक्र, नवयोग, नवयोगिनी, नवचक्रों की आधार शक्तियों, सुखकारी नवभद्राओं तथा महिमाशालिनी नव मुद्राओं के रूप में प्रकाशित हो रही है॥२॥ एका सा आसीत् प्रथमा सा नवासीदासोनविंशादासोनत्रिंशत् । चत्वारिंशादथ तिस्रः समिधा उशतीरिव मातरो मा विशन्तु ॥ ३॥ नवभद्रा आदिरूप में, उन्नीस तत्त्व समूह रूप में, चालीस शक्तियों के रूप में तथा तीन समिधा के रूप में अपनी सन्तानों के लिए कल्याण कामना करने वाली माता के समान (ब्रह्मपद प्राप्ति की कामना वाले) मुझमें प्रवेश करें अर्थात् मेरे अन्तःकरण में प्रविष्ट हों ॥३॥ ऊर्ध्वज्वलज्वलनं ज्योतिरग्रे तमो वै तिरश्श्चीनमजरं तद्रजोऽभूत् । आनन्दनं मोदनं ज्योतिरिन्दो रेता उ वै मण्डला मण्डयन्ति ॥ ४॥ ऊर्ध्व (ऊपर) की ओर प्रज्वलित होने वाली और प्रकाशित होने वाली ज्योति सर्वप्रथम अनुभव में आती है। इसके विपरीत तमोगुण तिरश्चीन (तिरछी गति वाला) और अजर है, उससे रजोगुण उत्पन्न हुआ। यह ज्योति आनन्द और प्रसन्नता देने वाली है तथा इन्दु के (चन्द्रवत् शीतल) गुणों से विभूषित करती है॥४॥ तिस्रश्च रेखाः सदनानि भूमेस्त्रिविष्टपास्त्रिगुणास्त्रिप्रकाराः । एतत्पुरं पूरकं पूरकाणामत्र प्रथते मदनो मदन्या ॥ ५॥ जो तीन रेखाएँ हैं, चार सदन हैं, तीन भू (स्थल) हैं, तीन विष्टप, तीन गुण और तीन-तीन प्रकार (भेद) हैं। ये सभी त्रिक पूर्णता प्रदान करने के साधन स्वरूप हैं। मन्त्र में (श्री चक्र में) कामना (पूर्ण करने वाली) शक्ति से मदन (कामना के अधिष्ठाता देवता) जय शील हो॥५॥ मदन्तिका मानिनी मंगला च सुभगा च सा सुन्दरी सिद्धिमत्ता । लज्जा मतिस्तुष्टिरिष्टा च पुष्टा लक्ष्मीरुमा ललिता लालपन्ती ॥ ६॥ उनके परिवार के आवरण देवता की संख्या पन्द्रह है, जो क्रमशः मदन्तिका, मानिनी, मंगला, सुभगा, सुन्दरी, सिद्धिमत्ता, लज्जा, मति, तुष्टि, इष्टा, पुष्टा, लक्ष्मी, उमा, ललिता एवं लालपन्ती हैं॥६॥ इमां विज्ञाय सुधया मदन्ती परिसृता तर्पयन्तः स्वपीठम् । नाकस्य पृष्ठे वसन्ति परं धाम त्रैपुरं चाविशन्ति ॥ ७॥ साधक इनको जानकर इनके अमृत गुणों से प्रसन्नता का अनुभव करते हुए, स्व पीठ (श्री चक्रपीठ) को दुग्ध आदि से तृप्त करते हुए महान् स्वर्गलोक में निवास करते हैं और त्रैपुर परमधाम में पहुँच कर अपने को कृतकृत्य अनुभव करते हैं॥७॥ कामो योनिः कामकला व्रजपाणिर्गुहा हसा मातरिश्वाभ्रमिन्द्रः । पुनर्गुहा सकला मायया च पूरूच्येषा विश्वमातादिविद्या ॥ ८॥ आदिमूल विद्या का स्वरूप इस प्रकार है-यह काम, योनि, काम- कला, वज्रपाणि, गुहा, हसा, मातरिश्वा, अभ्र, इन्द्र, पुनः गुहा, सकला और माया आदि से यह विशिष्टरूपा यह विद्या, प्रवर्धमान हुई है॥८॥ षष्ठं सप्तममथ वह्निसारथिमस्या मूलत्रिक्रमा देशयन्तः । कथ्यं कविं कल्पकं काममीशं तुष्टुवांसो अमृतत्वं भजन्ते ॥ ९॥ आदि विद्या के छठे वर्ण (ह-शिवबीज), सातवें वर्ण (स-शक्तिबीज) और वह्नि सारथि (ककामेश-बीज) इसके मूलत्रिक (ह, स, क) का जप करते हुए कथ्य रूप, कवि (क्रान्तदर्शी-भूत, भविष्यत् और वर्तमान को जानने वाला-त्रिकालज्ञ) सदृश कामेश्वर की स्तुति करते हुए अमृतत्व को प्राप्त करते हैं॥९॥ त्रिविष्टपं त्रिमुखं विश्वमातुर्नवरेखाः स्वरमध्यं तदीले । बृहत्तिथिर्दशा पञ्चादि नित्या सा षोडशी पुरमध्यं बिभर्ति ॥ १०॥ (वह देवी) पुर, हन्त्रीमुख (ह-स-क), विश्वमातारूप, रवि-रेखा (आदित्य मंडल रूप), स्वर मध्य ('ई' 'ओ' रूप) आदि रूपों में विद्यमान बृहत्तिथि (निमेष से लेकर कल्पान्त तक) तथा पंचदशादि (पन्द्रह तिथियाँ, वार नक्षत्रादि) नित्य (देवता भाव को प्राप्त) सषोडशिक (सोलहवीं तिथि पूर्णिमा सहित) पुर मध्य (स्व अविद्या पर आधारित) रूपों को धारण करती है॥१०॥ यद्वा मण्डलाद्वा स्तनबिंबमेकं मुखं चाधस्त्रीणि गुहा सदनानि । कामी कलां काम्यरूपां विदित्वा नरो जायते कामरूपश्च काम्यः ॥ ११॥ रवि, चन्द्र आदि के मण्डल से आविर्भूत सर्वांग सुन्दरी जिसका एक स्तनबिम्ब एवं मुख नीचे की ओर है, के देहत्रय (स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीर) रूपी गुहा में अवस्थित परमेश्वर की कला-'कामकला' का ध्यान करके योगी अपनी समस्त कामनाओं को पूर्ण करके स्वेच्छानुसार-'काममय हो जाता है, पर काम्यफल जन्म आदि का कारण होता है, इसलिए उच्च वर्ण वाले मुमुक्षु को सकाम उपासना नहीं करनी चाहिए ॥११॥ परिसृतम् झषमाद्यं फलं च भक्तानि योनीः सुपरिष्कृताश्च । निवेदयन्देवतायै महत्यै स्वात्मीकृते सुकृते सिद्धिमेति ॥ १२॥ इसी प्रकार हीन वर्ण वाले विधिवत् तैयार किये गये अपने भोज्य पदार्थ को आत्मीय भोग बुद्धि का परित्याग करके सर्वप्रथम महादेवी को समर्पित करके प्रसाद रूप में ग्रहण कर पुण्य कर्मों के द्वारा श्रेष्ठ कर्मों की सिद्धि प्राप्त करते हैं॥१२॥ सृण्येव सितया विश्वचर्षणिः पाशेनैव प्रतिबध्नात्यभीकाम् । इषुभिः पञ्चभिर्धनुषा च विध्यत्यादिशक्तिररुणा विश्वजन्या ॥ १३॥ जो मनुष्य इस काम्य मार्ग में निरत रहते हैं, उन कामीजनों को सरस्वती, लक्ष्मी, आदिशक्ति गौरीब्रह्म विद्या रूप धारण करके भलीप्रकार बाँधकर संसार के महावर्त (भंवर) में डाल देती हैं तथा पंच बाण (पंचेन्द्रियों) और धनुष से विद्ध कर देती हैं, उनका उद्धार कभी नहीं करतीं ॥१३॥ भगः शक्तिर्भगवान्काम ईश उभा दाताराविह सौभगानाम् । समप्रधानौ समसत्वौ समोजौ तयोः शक्तिरजरा विश्वयोनिः ॥ १४॥ परिसुता हविषा भावितेन प्रसङ्कोचे गलिते वैमनस्कः । शर्वः सर्वस्य जगतो विधाता धर्ता हर्ता विश्वरूपत्वमेति ॥ १५॥ छः ऐश्वर्यो (समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य) से सम्पन्न चित् शक्ति, भगवान् काम और ईश (कामेश्वर)-दोनों (चित् शक्ति सामान्यात्मा की दृष्टि से) सम प्रधान, समान सत्त्व से युक्त, समान ओज से युक्त दयार्द्र होकर, निष्काम उपासक को ब्रह्मपद प्रदान कर देते हैं। उन दोनों ('शिव-शक्ति' या 'कामईश') के मध्य तीनों शरीरों से विलक्षण अजरा जरारहित यह विश्वमाता - श्री शक्ति स्थित रहती है। उपासक की निष्काम भावना से भावित ज्ञान, विज्ञान और सम्यक् ज्ञान रूपी हवि द्वारा भली प्रकारे संतृप्त हुई आवरण और विक्षेप को, गलाकर नष्ट कर देती है। इस प्रकारे उपासक संसार से अमनस्क होकर सम्पूर्ण जगत् के विधाता, पालक एवं संहारक अर्थात ब्रह्मा, विष्णु, महेश बनकर विश्वरूपता को प्राप्त कर लेता है॥१४-१५॥ इयं महोपनिषत्लैपुर्या यामक्षरं परमो गीर्भिरीट्टे । एषर्ग्यजुः परमेतच्च सामायमथर्वेयमन्या च विद्या ॥ १६॥ यह ऋग्यजु, साम, अथर्व तथा अन्य विद्याएँ - पुराण, न्याय, मीमांसा आदि १४ विद्याएँ, जिसकी अक्षय ज्ञानस्वरूप परम सर्वोत्कृष्ट वाणीरूप स्तोत्रों से स्तुतियाँ करती हैं। यही त्रिपुरा नाम की महोपनिषद् है। ॐ ह्रीम् ॐ ह्रीमित्युपनिषत् ॥ 'ॐ ह्रीं'- यही चित् और शक्ति तत्त्व है। यही चैतन्य शक्ति तत्त्व है॥१६॥ ॥ हरिः ॐ ॥ शान्तिपाठ वाङ्‌ मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि ॥ वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीरनेनाधीतेनाहोरात्रान् संदधाम्यृतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि ॥ तन्मामवतु तद्वक्तारमवत्ववतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम् ॥ हे सच्चिदानंद परमात्मन ! मेरी वाणी मन में प्रतिष्ठित हो जाए। मेरा मन मेरी वाणी में प्रतिष्ठित हो जाए। हे प्रकाशस्वरूप परमेश्वर! मेरे सामने आप प्रकट हो जाएँ। हे मन और वाणी ! तुम दोनों मेरे लिए वेद विषयक ज्ञान को लानेवाले बनो। मेरा सुना हुआ ज्ञान कभी मेरा त्याग न करे। मैं अपनी वाणी से सदा ऐसे शब्दों का उच्चारण करूंगा, जो सर्वथा उत्तम हों तथा सर्वदा सत्य ही बोलूँगा। वह ब्रह्म मेरी रक्षा करे, मेरे आचार्य की रक्षा करे। ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ भगवान् शांति स्वरुप हैं अतः वह मेरे अधिभौतिक, अधिदैविक और अध्यात्मिक तीनो प्रकार के विघ्नों को सर्वथा शान्त करें । ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥ ॥ ॥ इति त्रिपुरोपनिषत् ॥ ॥ ॥ त्रिपुरउपनिषद समात ॥

Recommendations