ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ६५

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ६५ ऋषि-पाराशर शाक्त्यः देवता- अग्नि । छंद द्विपदा विराट पश्वा न तायुं गुहा चतन्तं नमो युजानं नमो वहन्तम् ॥१॥ सजोषा धीराः पदैरनु ग्मन्नुप त्वा सीदन्विश्वे यजत्राः ॥२॥ हे अग्निदेव ! पशु चुराने वाले के पद चिह्नों के साथ जाने वाले मनुष्य के समान सभी बुद्धिमान् देवगण आपके अनुगामी हों । सभी याजकगण आपके चारों ओर बैठकर कुण्डरूप गुहा में स्तुतियों के साथ आपको प्रकट करते हैं। आप उनकी हवियों को देवों तक पहुँचाने वाले तथा देवों को उनसे नियोजित करने वाले के रूप में सम्मानित किये जाते हैं॥१-२॥ ऋतस्य देवा अनु व्रता गुर्भुवत्परिष्टिद्यौर्न भूम ॥३॥ वर्धन्तीमापः पन्वा सुशिश्विमृतस्य योना गर्भे सुजातम् ॥४॥ देवगणों ने अग्निदेव को भूमि में चारों और खोजा। अग्निदेव जल प्रवाहां के गर्भ से उत्पन्न हुए, उत्तम स्तोत्रों से उनकी सम्यक् प्रकार से वृद्धि हुई । देवों ने अग्निदेव के कर्मों का, उनकी प्रेरणाओं का अनुगमन किया और भूमि को स्वर्ग के समान सुखकारी बनाया ॥३- ४॥ पुष्टिर्न रण्वा क्षितिर्न पृथ्वी गिरिर्न भुज्म क्षोदो न शम्भु ॥५॥ अत्यो नाज्मन्त्सर्गप्रतक्तः सिन्धुर्न क्षोदः क ईं वराते ॥६॥ ये अग्निदेव इष्ट फल प्राप्ति के समान रमणीय, भूमि के समान विस्तीर्ण, पर्वत के समान पोषक तत्त्व प्रदाता, जल के समान कल्याणकारी, अश्व के समान अग्रणी वाहक तथा समुद्र के समान विशाल हैं, इन्हें भला कौन रोक सकता है ? ॥५-६॥ जामिः सिन्धूनां भ्रातेव स्वस्रामिभ्यान्न राजा वनान्यत्ति ॥७॥ यद्वातजूतो वना व्यस्थादग्निर्ह दाति रोमा पृथिव्याः ॥८॥ ये अग्निदेव बहिनों के लिए भाई के समान जलों के भ्राता रूप हैं। शत्रुओं का विनाश करने वाले राजा के समान ये वनों को नष्ट भी कर देते हैं। जब ये वायु से प्रेरित होकर वनों की ओर अभिमुख होते हैं, तो भूमि के बालों के सदृश वृक्ष वनस्पतियों का नाश कर देते हैं॥७- ८॥ श्वसित्यप्सु हंसो न सीदन्क्रत्वा चेतिष्ठो विशामुषर्भुत् ॥९॥ सोमो न वेधा ऋतप्रजातः पशुर्न शिश्वा विभुर्दूरेभाः ॥१०॥ ये अग्निदेव जल में बैठकर हंस के समान प्राण को धारण करते हैं। ये उषाकाल में उठकर अपने कर्मों से प्रजाओं को चैतन्य करते हैं। ये सोम की भाँति वृद्धि करने वाले, शिशु के समान चंचल तथा यज्ञ से उत्पन्न होकर दर तक प्रकाश फैलाने वाले हैं॥९-१०॥

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