ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ६८

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ६८ ऋषि-पाराशर शाक्त्यः देवता - अग्नि । छंद - द्विपदा विराट श्रीणन्नुप स्थाद्दिवं भुरण्युः स्थातुश्चरथमक्तून्व्यूर्णोत् ॥१॥ परि यदेषामेको विश्वेषां भुवद्देवो देवानां महित्वा ॥२॥ सर्वपालक अग्निदेव स्थावर और जंगम वस्तुओं को परिपक्व करने के लिए आकाश को प्राप्त हुए हैं। उन्होंने रात्रियों को अपनी रश्मियों से प्रकाशित किया और सम्पूर्ण देवों की महत्ता को प्राप्त करके वे अग्रणी हुए ॥१-२॥ आदित्ते विश्वे क्रतुं जुषन्त शुष्काद्यद्देव जीवो जनिष्ठाः ॥३॥ भजन्त विश्वे देवत्वं नाम ऋतं सपन्तो अमृतमेवैः ॥४॥ हे अग्निदेव जब आप सूखे काष्ठ के घर्षण से उत्पन्न हुए, तब सभी देवगणों ने यज्ञ कार्य सम्पन्न किये। हे अविनाशी देव ! आपका अनुगमन करके ही वे देवगण देवत्व को प्राप्त कर सके हैं॥३-४॥ ऋतस्य प्रेषा ऋतस्य धीतिर्विश्वायुर्विश्व अपांसि चक्रुः ॥५॥ यस्तुभ्यं दाशाद्यो वा ते शिक्षात्तस्मै चिकित्वात्रयिं दयस्व ॥६॥ ये अग्निदेव यज्ञ की प्रेरणा प्रदान करने वाले और यज्ञ के रक्षक हैं। ये अग्निदेव ही आयु हैं; इसीलिए सभी यज्ञ कर्म करते हैं। हे अग्निदेव ! जो आपको जानकर आपके निमित्त हवि देता है, उसे आप जानकर हवि प्रदान करें ॥५-६॥ होता निषत्तो मनोरपत्ये स चिन्वासां पती रयीणाम् ॥७॥ इच्छन्त रेतो मिथस्तनूषु सं जानत स्वैर्दक्षैरमूराः ॥८॥ मनुष्य में होतारूप में विद्यमान ये अग्निदेव ही प्रजाओं और धनों के स्वामी हैं। शरीरस्थ अग्नि का वीर्य से सम्बन्ध जानकर मनुष्य ने सन्तानोत्पत्ति की इच्छा प्रकट की और उन अग्निदेव की सामर्थ्य से सन्तान को प्राप्त किया ॥७-८॥ पितुर्न पुत्राः क्रतुं जुषन्त श्रोषन्ये अस्य शासं तुरासः ॥९॥ वि राय और्णोदुरः पुरुक्षुः पिपेश नाकं स्तृभिर्दमूनाः ॥१०॥ पिता का आदेश मानने वाले पुत्रों के सदृश जिन मनुष्यों ने इन अग्निदेव की आज्ञा को सुनकर शीघ्र ही पालन कर कार्य सम्पन्न किया, उनके लिए अग्निदेव ने विपुल अन्न और धन के भण्डार खोल दिये । यज्ञ कर्मों में, मर्यादित अग्निदेव ने नक्षत्रों से आकाश को अलङ्कृत किया ॥९-१०॥

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