ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १६७

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १६७ ऋषि - अगस्त्यो मैत्रावारुणिः देवता- १ मरुत, २-११ मरुत । छंद-त्रिष्टुप, सहस्रं त इन्द्रोतयो नः सहस्रमिषो हरिवो गूर्ततमाः । सहस्रं रायो मादयध्यै सहस्रिण उप नो यन्तु वाजाः ॥१॥ है अश्व युक्त इन्द्रदेव ! आपके हजारों रक्षा साधन हमारे संरक्षण के निमित्त हैं। हे इन्द्रदेव ! आप हजारों प्रकार के प्रशंसनीय अन्न, आनन्दित करनेवाले धन तथा असीमित बल हमें प्रदान करें ॥१॥ आ नोऽवोभिर्मरुतो यान्त्वच्छा ज्येष्ठेभिर्वा बृहद्दिवैः सुमायाः । अध यदेषां नियुतः परमाः समुद्रस्य चिद्धनयन्त पारे ॥२॥ ये अति कुशल वीर मरुद्गण अपने पुरुषार्थी संरक्षण सामथ्र्यो तथा महान् ऐश्वर्य के साथ हमारे समीप पधारें। इनके 'नियुत' नामक श्रेष्ठ अश्व समुद्र पार से (अति दूर से) भी धन ले आते हैं॥२॥ मिम्यक्ष येषु सुधिता घृताची हिरण्यनिर्णिगुपरा न ऋष्टिः । गुहा चरन्ती मनुषो न योषा सभावती विदथ्येव सं वाक् ॥३॥ मेघ मण्डल में स्थित विद्युत् के समान ही जिन वीर मरुद्गणों के मजबूत हाथों में स्वर्णवत् चमकने वाली तलवार (मर्यादा में रहने वाली पत्नी के समान) परदे (म्यान) में छिपी रहती है। वह विद्वानों की वाणी के समान किन्हीं विशेष परिस्थितियों में बाहर आकर अपना स्वरूप दर्शाती है॥३॥ परा शुभ्रा अयासो यव्या साधारण्येव मरुतो मिमिक्षुः । न रोदसी अप नुदन्त घोरा जुषन्त वृधं सख्याय देवाः ॥४॥ गतिमान् एवं तेजस्वी मरुद्गण भूमि पर दूर-दूर तक जल की वृष्टि करते हैं। (विशिष्ट होते हुए भी) साधारण व्यक्तियों की तरह मरुद्गण द्युलोक एवं भूलोक में विद्यमान किसी की भी उपेक्षा नहीं करते, सभी से मित्रता बनाए रखते हैं। इसी कारण ये (मरुद्गण) महान् हैं॥४॥ जोषद्यदीमसुर्या सचध्यै विषितस्तुका रोदसी नृमणाः । आ सूर्येव विधतो रथं गात्त्वेषप्रतीका नभसो नेत्या ॥५॥ मनुष्यों के मन को हरने वाली, जीवन प्रदायिनी विद्युत् ने मरुद्गणों का वरण किया। विविध किरणों को समेटती हुई सूर्य की भाँति तेजस्वी वह विद्युत् इन (मरुद्गणों) के साथ रथ पर आरूढ़ होती है॥५॥ आस्थापयन्त युवतिं युवानः शुभे निमिश्लां विदथेषु पज्राम् । अर्को यद्वो मरुतो हविष्मान्गायद्गार्थ सुतसोमो दुवस्यन् ॥६॥ हे वीर मरुद्गण ! जब हविष्यान्न युक्त, सोमरस लेकर सम्मान प्राप्त साधक यज्ञों में स्तोत्रों का गायन करते हुए आप सभी की पूजा करते हैं, तब याजक की बलशाली नव यौवनी पत्नी को आप शुभ यज्ञ (सन्मार्ग) में ले आते हैं॥६॥ प्र तं विवक्मि वक्म्यो य एषां मरुतां महिमा सत्यो अस्ति । सचा यदीं वृषमणा अहंयुः स्थिरा चिज्जनीर्वहते सुभागाः ॥७॥ इन वीर मरुद्गणों की स्तुत्य महिमा का हम यथावत् वर्णन करते हैं। इनकी महिमा के अनुरूप सुस्थिर भूमि भी इनकी अनुगामिनी बनकर, इन सामर्थ्यवानों से प्रेम करती हुई, स्वाभिमान की रक्षा करती हुई सौभाग्यशाली प्रज्ञा का पोषण करती है॥७॥ पान्ति मित्रावरुणाववद्याच्चयत ईमर्यमो अप्रशस्तान् । उत च्यवन्ते अच्युता ध्रुवाणि वावृध ईं मरुतो दातिवारः ॥८॥ मित्र, वरुण और अर्यमा, निंदनीय दोष विकारों एवं निंदनीय पदार्थों के उपयोग से आपको बचाते हैं। हे मरुतो! आप अडिग अपराजेयों को भी पदों से च्युत कर देते हैं। आपका दिया अनुदान निरन्तर बढ़ता रहता है॥८॥ नही नु वो मरुतो अन्त्यस्मे आरात्ताच्चिच्छवसो अन्तमापुः । ते धृष्णुना शवसा शूशुवांसोऽर्णो न द्वेषो धृषता परि ष्ठुः ॥९॥ हे वीर मरुतो ! आपकी सामर्थ्य अनन्त है, जिसका ज्ञान दूर या नजदीक से किसी भी प्रकार कर पाना असम्भव है। आपकी शक्ति, शत्रु सेना को जल के समान घेरकर विनष्ट कर डालती है॥९॥ वयमद्येन्द्रस्य प्रेष्ठा वयं श्वो वोचेमहि समर्ये । वयं पुरा महि च नो अनु यून्तन्न ऋभुक्षा नरामनु ष्यात् ॥१०॥ आज हम इन्द्रदेव के विशेष कृपापात्र बने हैं, उसी प्रकार कल (भविष्य में) भी उनके कृपापात्र बने रहें। हम इन्द्रदेव की प्रतिदिन प्रार्थना करते हैं, जिससे हम सदैव विजयश्री का वरण करते हुए महानता को प्राप्त हों। इन्द्रदेव की कृपा हम सभी के लिए अनुकूल हो ॥१०॥ एष वः स्तोमो मरुत इयं गीर्मान्दार्यस्य मान्यस्य कारोः । एषा यासीष्ट तन्वे वयां विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥११॥ हे मरुद्गण ! ये स्तोत्र आपके निमित्त उच्चारित किये जा रहे हैं। अतएव आनन्दप्रद तथा सम्माननीय आप स्तोता के शारीरिक पोषण के निमित्त आएँ और हमें भी अन्न, बल और विजयश्री दिलाने वाला ऐश्वर्य प्रदान करें ॥११॥

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