ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त १०

ऋग्वेद–चतुर्थ मंडल सूक्त १० ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - अग्नि । छंद पदपंक्ति; ४, ६, ७ उष्णिग्वा, ५ महापद पंक्ति ८ उष्णिक् अग्ने तमद्याश्वं न स्तोमैः क्रतुं न भद्रं हृदिस्पृशम् । ऋध्यामा त ओहैः ॥१॥ हे अग्निदेव ! आज हम याजकगण यज्ञ के समान (हितकारी), अश्व के समान गतिशील, आपके यश को बढ़ाने के लिए ओह नामक हृदयस्पर्शी स्तोत्रों का प्रयोग करते हैं ॥१॥ अधा ह्यग्ने क्रतोर्भद्रस्य दक्षस्य साधोः । रथीऋतस्य बृहतो बभूथ ॥२॥ हे अग्निदेव ! कल्याणकारी, बलवर्द्धक, अभीष्ट प्रदान करने वाले और सत्य स्वरूप आप महान् हैं तथा हमारे यज्ञ के मुख्य आधार हैं ॥२॥ एभिर्नो अर्कैर्भवा नो अर्वाञ्स्वर्ण ज्योतिः । अग्ने विश्वभिः सुमना अनीकैः ॥३॥ हे अग्निदेव ! सूर्य के सम्मान तेजस्वी, श्रेष्ठमना, आप पूज्य इन्द्रादि देवों के साथ हमारे यज्ञ में पधारें ॥३॥ आभिष्टे अद्य गीर्भिर्गुणन्तोऽग्ने दाशेम । प्र ते दिवो न स्तनयन्ति शुष्माः ॥४॥ हे अग्निदेव ! आज हम श्रेष्ठतम स्तोत्रों का उच्चारण करते हुए आपकी प्रार्थना करते हैं। हम आपको आहुतियाँ प्रदान करते हैं। आपकी तेजस्वी लपटें मेघसदृश ध्वनि करती हैं ॥४॥ तव स्वादिष्ठाग्ने संदृष्टिरिदा चिदह्न इदा चिदक्तोः । श्रिये रुक्मो न रोचत उपाके ॥५॥ हे अग्निदेव ! आपकी प्रीतियुक्त प्रभा आभूषण के सदृश हैं। समस्त पदार्थों को आश्रय देने के लिए वह रात-दिन सुशोभित होती है॥५॥ घृतं न पूतं तनूररेपाः शुचि हिरण्यम् । तत्ते रुक्मो न रोचत स्वधावः ॥६॥ हे अन्नसम्पन्न अग्निदेव । आपका स्वरूप शुद्ध घृत के सदृश पापरहित हैं। आपका पवित्र तथा मनोहर तेज आभूषण के सदृश आलोकवान् है ॥६॥ कृतं चिद्धि ष्मा सनेमि द्वेषोऽग्न इनोषि मर्तात् । इत्था यजमानादृतावः ॥७॥ हे सत्य से सम्पन्न अग्ने ! यज्ञ करने वाले मनुष्यों के प्राचीन से प्राचीन पाप को भी आप दूर कर देते हैं ॥७॥ शिवा नः सख्या सन्तु भ्रात्राग्ने देवेषु युष्मे । सा नो नाभिः सदने सस्मिन्नूधन् ॥८॥ हे अग्निदेव ! देवताओं तथा आपके साथ हमारी मित्रता और बन्धुत्व भाव कल्याणकारी हो। यह मित्रता यज्ञादि श्रेष्ठ कर्मों के रूप में हम सबका मंगल करे ॥८॥

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