ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ६०
ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ६० ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः देवता-ऋभवः, ५-६ इन्द्र ऋभवश्च । छंद - जगती इहेह वो मनसा बन्धुता नर उशिजो जग्मुरभि तानि वेदसा । याभिर्मायाभिः प्रतिजूतिवर्पसः सौधन्वना यज्ञियं भागमानश ॥१॥ शत्रुओं पर आक्रमण करके तेजस्विता प्रकट करने वाले, उत्तम धनुर्धारी, बीर हे अभुगण ! कुशलतापूर्ण कार्यों के द्वारा आप पूजनीय पद को उपलब्ध करते हैं। जो मनुष्य आपकी भाँति श्रेष्ठ कार्यों को विचारपूर्वक सम्पादित करते हैं, उन्हीं के साथ मन से आपको बन्धुभाव रहता हैं॥१॥ याभिः शचीभिश्चमसाँ अपिंशत यया धिया गामरिणीत चर्मणः । येन हरी मनसा निरतक्षत तेन देवत्वमृभवः समानश ॥२॥ हे भुगण ! जिस सामर्थ्य से आपने चमसो (यज्ञ पात्र) का सुन्दर विभाजन किया, जिस बुद्धि से आपने गों (पृश्वी या इन्द्रियों को चर्म (संरक्षक पत) से युक्त किया, जिस मानस में आपने इन्द्र (संगठक सत्ता) के अश्वों (पुरुषार्थ) को समर्थ बनाया; उन्हीं के कारण आपने देवत्व प्राप्त किया ॥२॥ इन्द्रस्य सख्यमृभवः समानशुर्मनोर्नपातो अपसो दधन्विरे । ा सौधन्वनासो अमृतत्वमेरिरे विष्टी शमीभिः सुकृतः सुकृत्यया ॥३॥ मनुष्यों की अवनति को रोकने वाले, उत्तम कर्मों को करने वाले ऋभुर्देवों ने इन्द्रदेव की मित्रता को प्राप्त किया। सत्कर्मों के निर्वाहक तथा श्रेष्ठ धनुर्धारी ऋभुगणों ने अपनी सामथ्र्यों और सत्कर्मों के कारण सर्वत्र संव्याप्त होकर अमृतपद को उपलब्ध किया ॥३॥ इन्द्रेण याथ सरथं सुते सचाँ अथो वशानां भवथा सह श्रिया । न वः प्रतिमै सुकृतानि वाघतः सौधन्वना ऋभवो वीर्याणि च ॥४॥ मेधावीं और श्रेष्ठ धनुर्धर हे ऋभुदेवों! आप सोमयाग में इन्द्रदेव के साथ एक ही रथ पर बैठकर पहुँचते हैं। जो साधक आपके प्रति मित्रभाव रखते हैं, उनके समीप आप धन एवं ऐश्वर्य माथन लेकर गमन करते हैं। आपके श्रेष्ठ, पराक्रमी कार्यों की कोई उपमा नहीं दी जा सकती ॥४॥ इन्द्र ऋभुभिर्वाजवद्भिः समुक्षितं सुतं सोममा वृषस्वा गभस्त्योः । धियेषितो मघवन्दाशुषो गृहे सौधन्वनेभिः सह मत्स्वा नृभिः ॥५॥ इन्द्रय ! बल-सम्पन्न ओं के साथ इस यज्ञ में आकर भली प्रकार अभियुक्त सोम को ग्रहण करें। आप अपनों सद्भावपूर्ण बुद्धि से प्रेरित होकर सुधन्वा के पुत्रों के साथ, दानशॉलो के घर जाकर आनन्दित हों ॥५॥ इन्द्र ऋभुमान्वाजवान्मत्स्वेह नोऽस्मिन्त्सवने शच्या पुरुष्टुत । ्र इमानि तुभ्यं स्वसराणि येमिरे व्रता देवानां मनुषश्च धर्मभिः ॥६॥ अनेकों द्वारा प्रशंसनीय हैं इन्द्रदेव! आप सामर्थ्यशालीं भुओं और इन्द्राणों से युक्त होकर हमारे यज्ञ में आकर आनन्दित हों । समस्त मनुष्यों और देनों के चैन कर्म आपके ही कारण नियमानुकूल गतिमान होते हैं॥६॥ इन्द्र ऋभुभिर्वाजिभिर्वाजयन्निह स्तोमं जरितुरुप याहि यज्ञियम् । शतं केतेभिरिषिरेभिरायवे सहस्रणीथो अध्वरस्य होमनि ॥७॥ हे इन्द्रदेव ! स्तोताओं को स्तुतियों से प्रसन्न होकर आप उनके लिए प्रचुर अन्न उत्पन्न करें तथा बलशाली ऋभुओं के साथ इस यज्ञ में आगमन करें। मरुद्गण भी सौ गतिशील अत्रों के साथ यजमानों के द्वारा सत्कर्मों की वृद्धि के लिए सम्पन्न किये जा रहे इस श्रेष्ठ यज्ञ में पधारें ॥७॥