ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ८७

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ८७ ऋषि – गौतमो राहुगणः:: देवता- मरुतः । छंद - जगती प्रत्वक्षसः प्रतवसो विरप्शिनोऽनानता अविथुरा ऋजीषिणः । जुष्टतमासो नृतमासो अञ्जिभिर्व्यानज्जे के चिदुस्रा इव स्तृभिः ॥१॥ शत्रु संहारक, महान् बलशाली वक्ता, अड़िग, अविच्छिन्न रहने वाले, सरल व्यवहार वाले जनों के अतिप्रिय, मनुष्यों के शिरोमणि ये मरुद्गण देवी उषा के समान अलंकारों से युक्त होकर विशेष प्रकाशित होते हैं॥१॥ उपह्वरेषु यदचिध्वं ययिं वय इव मरुतः केन चित्पथा । श्चोतन्ति कोशा उप वो रथेष्वा घृतमुक्षता मधुवर्णमर्चते ॥२॥ हे मरुद्गणो ! आप पक्षी की भाँति किसी भी पथ से आकर हमारे यज्ञ के समीप एकत्र हों। अपने रथों में विद्यमान धनों के कोश हम पर बरसायें और याजक पर मधुर मृत युक्त अन्नों का वर्षण करें (अर्थात् जल के साथ पोषक पर्जन्य की वर्षा करें ।॥ ॥२॥ प्रैषामज्मेषु विथुरेव रेजते भूमिर्यामेषु यद्ध युञ्जते शुभे । ते क्रीळयो धुनयो भ्राजदृष्टयः स्वयं महित्वं पनयन्त धूतयः ॥३॥ ये मंगलकारी वीर मरुद्गण एकत्र होकर युद्ध स्थल पर आक्रमण की मुद्रा में वेग से जाते हैं, तो पृथ्वी भी अनाथ नारी की भाँति काँपने लगती हैं। ये क्रीड़ायुक्त, गर्जनयुक्त, चमकीले अस्त्रों से युक्त होकर शत्रुओं को विचलित करके अपनी महत्ता को प्रकट करते हैं॥३॥ स हि स्वसृत्पृषदश्वो युवा गणोऽया ईशानस्तविषीभिरावृतः । असि सत्य ऋणयावानेद्योऽस्या धियः प्राविताथा वृषा गणः ॥४॥ ये मरुद्गण स्वचालित विन्दुओं से चिह्नित अश्व वाले विविध बलों से युक्त सब पर प्रभुत्व करने में समर्थ हैं। ये सत्यरूप, पापनाशक, अनिन्दनीय, बलशाली, बुद्धि को प्रेरित करने वाले और रक्षा करने वाले हैं ॥४॥ पितुः प्रत्नस्य जन्मना वदामसि सोमस्य जिह्वा प्र जिगाति चक्षसा । यदीमिन्द्रं शम्पृक्वाण आशतादिन्नामानि यज्ञियानि दधिरे ॥५॥ मरुद्गणों के जन्म की कथा हमारे पूर्वज कहते हैं। सोम को देखकर हमारीं वाणी उन मरुद्गणों की स्तुतियाँ करती है। जब ये मरुद्गण संग्राम में इन्द्रदेव के सहायक हुए, तो याज्ञिकों ने उन्हें (मरुद्गणों को ) प्रशंसनीय (यज्ञार्ह) नामों से विभूषित किया ॥५॥ श्रियसे कं भानुभिः सं मिमिक्षिरे ते रश्मिभिस्त ऋक्वभिः सुखादयः । ते वाशीमन्त इष्मिणो अभीरवो विद्रे प्रियस्य मारुतस्य धाम्नः ॥६॥ उत्तम अलंकारों और अस्त्रों से सज्जित होकर ये मरुद्गण र्घषयों की वाणी से भली प्रकार सुशोभित होते हैं। ये स्त्रोताओं के निमित्त वृष्टि करने की इच्छा करते हैं, अतएव वेग से जाने वाले ये निड़र चीर अपने प्रिय स्थान पर पहुँचते हैं॥६॥

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