ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त ४

ऋग्वेद–चतुर्थ मंडल सूक्त ४ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता–रक्षोहाऽग्नि । छंद - त्रिष्टुप, कृणुष्व पाजः प्रसितिं न पृथ्वीं याहि राजेवामवाँ इभेन । तृष्वीमनु प्रसितिं द्रूणानोऽस्तासि विध्य रक्षसस्तपिष्ठैः ॥१॥ हे अग्निदेव ! आप शत्रुओं को दूर करने में सक्षम हैं। जिस प्रकार सशक्त राजा हाथियों पर सवार होकर राक्षसी वृत्ति के शत्रुओं पर हमला करते हैं, वैसे ही आप भी हमला करें । पक्षियों को पकड़ने वाले विस्तृत आकार वाले जाल द्वारा दुष्टों को विविध प्रकार के कष्ट देकर प्रताड़ित करें ॥१॥ तव भ्रमास आशुया पतन्त्यनु स्पृश धृषता शोशुचानः । तपूंष्यग्ने जुह्वा पतंगानसंदितो वि सृज विष्वगुल्काः ॥२॥ वायु के सम्पर्क से डोलती हुई द्रुतगामी लपटों से असुरों को भस्म कर डालें । आहुति प्रदान करने पर आप बढ़ी हुई ज्वालाओं के द्वारा असुरों का संहार करें। इस हेतु टूटकर गिरने वाले तारे की गति से अपने तेज को प्रेरित करें ॥२॥ प्रति स्पशो वि सृज तूर्णितमो भवा पायुर्विशो अस्या अदब्धः । यो नो दूरे अघशंसो यो अन्त्यग्ने माकिष्टे व्यथिरा दधर्षीत् ॥३॥ हे अदम्य अग्निदेव ! हमारे निकटस्थ या दूरस्थ जो भी शत्रु हैं, उन सबको वश में करने के लिए अति गतिशील सैनिकों को भेजें। हमारी सन्तानों की रक्षा करें। कोई भी आपके भक्तों को पीड़ा न पहुँचा सके ॥३॥ उदग्ने तिष्ठ प्रत्या तनुष्व न्यमित्राँ ओषतात्तिग्महेते । यो नो अरातिं समिधान चक्रे नीचा तं धक्ष्यतसं न शुष्कम् ॥४॥ हे अग्निदेव ! आप जीवन्त होकर अपनी ज्वालाओं का विस्तार करें। उन तीव्र ज्वालाओं के प्रभाव से शत्रुओं को पूर्णरूपेण भस्म कर डालें। हे ज्योतिर्मय ! हमारी प्रगति में जो बाधक हैं, उन्हें सूखे वृक्ष के समान ही समूल भस्म कर डालें ॥४॥ ऊर्ध्वा भव प्रति विध्याध्यस्मदाविष्कृणुष्व दैव्यान्यग्ने । अव स्थिरा तनुहि यातुजूनां जामिमजामिं प्र मृणीहि शत्रून् ॥५॥ हे अग्निदेव ! आप ऊर्ध्वगामी ज्वालाओं से युक्त होकर हमारे शत्रुओं को विध्वंस करें । प्राणियों को कष्ट देने वाले दुष्टों को विजय श्री से हीन करके, हमारे अपराजित शत्रुओं को विनष्ट करें ॥५॥ स ते जानाति सुमतिं यविष्ठ य ईवते ब्रह्मणे गातुमैरत् । विश्वान्यस्मै सुदिनानि रायो द्युम्नान्यर्यो वि दुरो अभि द्यौत् ॥६॥ हे नित्य युवा अग्निदेव ! आप तीव्र गति से ऊर्ध्वगमन करने वाले तथा महान् हैं। जो व्यक्ति आपकी प्रार्थना करते हैं, वे आपकी कृपा प्राप्त करते हैं। आप यज्ञ के स्वामी हैं। आप उस व्यक्ति के निमित्त समस्त शुभ दिनों, ऐश्वर्यो तथा रत्नों को धारण करें। आप उसके घर के सम्मुख प्रकाशित हों ॥६॥ सेदग्ने अस्तु सुभगः सुदानुर्यस्त्वा नित्येन हविषा य उक्थैः । पिप्रीषति स्व आयुषि दुरोणे विश्वेदस्मै सुदिना सासदिष्टिः ॥७॥ हे अग्निदेव ! जो याजक मन्त्रोच्चारण करते हुए आहुतियाँ समर्पित करके प्रतिदिन आपको तुष्ट करने की कामना करते हैं, वे सभी श्रेष्ठ, सौभाग्यशाली तथा दानी हों। कठिनाई से प्राप्त करने योग्य सौ वर्ष के आयुष्य को वे प्राप्त करें। उनके सभी दिन शुभ हों और वे यज्ञीय साधनों से परिपूर्ण रहें ॥७॥ अर्चामि ते सुमतिं घोष्यर्वाक्सं ते वावाता जरतामियं गीः । स्वश्वास्त्वा सुरथा मर्जयेमास्मे क्षत्राणि धारयेरनु यून् ॥८॥ हे अग्निदेव ! हम आपकी कृपालु-श्रेष्ठ बुद्धि की पूजा करते हैं। आपके लिए उच्चारित की जाने वाली वाणी, आपके गुणों का गान करे। पुत्र- पौत्रों, श्रेष्ठ अश्वों तथा रथों से सम्पन्न होकर हम आपकी अभ्यर्थना करेंगे। आप नित्यप्रति हमारे निमित्त समस्त पोषक शक्तियों को धारण करें ॥८॥ इह त्वा भूर्या चरेदुप त्मन्दोषावस्तर्दीदिवांसमनु यून् । क्रीळन्तस्त्वा सुमनसः सपेमाभि द्युम्ना तस्थिवांसो जनानाम् ॥९॥ हे अग्निदेव ! आप सदैव प्रज्वलित रहते हैं। इस जगत् में सभी आपकी समीपता का लाभ लेते हुए सदैव आपकी सेवा करते हैं। हम भी अपने शत्रुओं के ऐश्वर्यों को नियन्त्रित करते हुए उत्साह एवं हर्षपूर्वक आपकी उपासना करते हैं ॥९॥ यस्त्वा स्वश्वः सुहिरण्यो अग्न उपयाति वसुमता रथेन । तस्य त्राता भवसि तस्य सखा यस्त आतिथ्यमानुषग्जुजोषत् ॥१०॥ हे अग्निदेव ! जो व्यक्ति यज्ञ के लिए उपयोगी धन-ऐश्वर्य से सम्पन्न तथा श्रेष्ठ घोड़ों से योजित स्वर्णिम रथों द्वारा आपके निकट पहुँचते हैं, साथ ही जो आपका अतिथि के सदृश स्वागत-सम्मान करते हैं; सच्चे मित्र की भाँति आप उनकी सुरक्षा करते हैं ॥१०॥ महो रुजामि बन्धुता वचोभिस्तन्मा पितुर्गोतमादन्वियाय । त्वं नो अस्य वचसश्चिकिद्धि होतर्यविष्ठ सुक्रतो दमूनाः ॥११॥ हे सत्कर्मशील युवा, होतारूप अग्निदेव! आपकी स्तुतियाँ करते हुए हमने जो बन्धुभाव अर्जित किया है, उससे हम बड़ी-बड़ी आसुरी शक्तियों को नष्ट करें। उन स्तोत्र वचनों को हमने अपने पिता गौतम ऋषि से प्राप्त किया था। हे रिपुओं का दमन करने वाले अग्निदेव ! आप हमारी प्रार्थना को सुनें ॥११॥ अस्वप्नजस्तरणयः सुशेवा अतन्द्रासोऽवृका अश्रमिष्ठाः । ते पायवः सध्यञ्चो निषद्याग्ने तव नः पान्त्वमूर ॥१२॥ हे सर्वज्ञाता अग्निदेव ! आपकी वे किरणें सदैव जाग्रत् रहने वाली, द्रुतगामी, हर्षप्रद, प्रमाद से दूर रहने वाली, हिंसा न करने वाली, न थकने वाली, परस्पर मिलकर चलने वाली तथा सुरक्षा करने वाली हैं। वे इस यज्ञ में पधार कर हमारी सुरक्षा करें ॥१२॥ ये पायवो मामतेयं ते अग्ने पश्यन्तो अन्धं दुरितादरक्षन् । ररक्ष तान्त्सुकृतो विश्ववेदा दिप्सन्त इद्रिपवो नाह देभुः ॥१३॥ हे अग्निदेव ! आपकी रक्षक किरणों ने अनुग्रह करके ममता के अन्धे पुत्र को पापों से बचाया था। आप सर्वज्ञ हैं। आपने उसके सम्पूर्ण पुण्यों की सुरक्षा की थी। हानि पहुँचाकर पराजित करने की कामना करने वाले शत्रु आपके कारण सफल नहीं हो सके ॥१३॥ त्वया वयं सधन्यस्त्वोतास्तव प्रणीत्यश्याम वाजान् । उभा शंसा सूदय सत्यतातेऽनुष्ठुया कृणुह्यह्रयाण ॥१४॥ (यज्ञस्थल पर ) निःसंकोच पहुँचने वाले हे अग्निदेव ! हम याजक आपकी कृपा से आपके द्वारा संरक्षित होकर तथा आपके द्वारा निर्देशित पथ पर चलकर धन-धान्य का लाभ प्राप्त करें। हे सत्य का विस्तार करने वाले अग्निदेव ! आप हमारे निकटस्थ तथा दूरस्थ रिपुओं का विनाश करें और क्रम से सम्पूर्ण कार्य करें ॥१४॥ अया ते अग्ने समिधा विधेम प्रति स्तोमं शस्यमानं गृभाय । दहाशसो रक्षसः पाह्यस्मान्द्रुहो निदो मित्रमहो अवद्यात् ॥१५॥ हे अग्निदेव ! समिधाओं के द्वारा हम आपको प्रज्वलित करते हैं। आप हमारी स्तुतियों को ग्रहण करें और स्तुतिरहित असुरों का विनाश करें । सखा के सदृश, वंदनीय हे अग्निदेव! आप रिपुओं, निन्दकों तथा विद्रोहियों से हमारी रक्षा करें ॥१५॥

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