Shandilyopanishad Chapter 1 Part 8 (शाण्डिल्योपानिषद प्रथम अध्याय–आठवाँ खण्ड)

प्रथमाध्याये-अष्टमः खण्डः प्रथम अध्याय–आठवाँ खण्ड अथ प्रत्याहारः । अब प्रत्याहार का वर्णन करते हैं। स पञ्चविधः विषयेषु विचरतामिन्द्रियाणां बलादाहरणं प्रत्याहारः। वह पाँच प्रकार का है। विषयों में विचरण करती हुई इन्द्रियों को बलपूर्वक अपनी ओर आकृष्ट कर लेने इन्द्रियाँ बाह्य भोगों में रस लेने की अभ्यस्त होती हैं, उन्हें बाह्य उपकरण में से हटाकर अन्तःकरण की रसानुभूति से जोड़ लेने को प्रत्याहार कहा जाता है। यद्यत्पश्यति तत्सर्वमात्मेति प्रत्याहारः। जो-जो दिखाई देता है, वह सब आत्मा है, ऐसा समझना चाहिए, आँख, नाक, कान आदि विभिन्न अवयवों की अनुभूति वास्तव में आत्मा के ही कारण है। इसका बोध होना यही प्रत्याहार है। नित्यविहितकर्मफलत्यागः प्रत्याहारः । नित्य किये गये कर्मों के फल का परित्याग कर्म के फल में रस लेने की अपेक्षा कर्म करने में ही रस एवं सार्थकता की अनुभूति होने पर फल की कामना न रहना ही प्रत्याहार है। सर्वविषयपराङ्‌मुखत्वं प्रत्याहारः। समस्त प्रकार की विषय-वासनाओं से रहित होना अर्थात अन्तः स्थिति उच्च रसों की अनुभूति के आधार पर विषयों के रस की कामना न रहना, यह प्रत्याहार है। अष्टादशसु मर्मस्थानेषु क्रमाद्धारणं प्रत्याहारः ॥१॥ अट्ठारह मर्म-स्थलों में क्रमशः धारणा करना अर्थात उन स्थानों पर स्थित चेतन दिव्य प्रवाहों के साथ चित्त का तादात्म्य स्थापित करके दिव्यानुभूति प्राप्त करना, यही प्रत्याहार है॥१॥ पादाङ्ग‌ष्ठगुल्फजङ्घा जानूरुपायुमेढूनाभिहृदयकण्ठकूपतालुनासाक्षि भ्रूमध्यललाटमूर्ध्नि स्थानानि। तेषु क्रमादारोहावरोहक्रमेण प्रत्याहरेत् ॥२॥ पैर का अँगूठा, गुल्फ (टखने), जंघा (पिंडली), जानु (घुटने), ऊरु (जाँघ), गुदा, लिङ्ग, नाभि, हृदय, गले का छिद्र, तालु नासिका, आँख, भौंहों के बीच का भाग, ललाट एवं सिर-इन सभी स्थलों में उतार चढ़ाव के क्रम से प्रत्याहार करना चाहिए ॥२॥

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