ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ६२

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ६२ ऋषिः श्रुत विदारात्रेयः देवता - मित्रावरुणौ । छंद - त्रिष्टुप, ऋतेन ऋतमपिहितं ध्रुवं वां सूर्यस्य यत्र विमुचन्त्यश्वान् । दश शता सह तस्थुस्तदेकं देवानां श्रेष्ठं वपुषामपश्यम् ॥१॥ हे मित्रावरुण ! आप सबके अटल आश्रय स्थान हैं, जहाँ सूर्यदेव के अश्वों (रश्मियों) को विमुक्त किया जाता हैं। सूर्यदेव का ऊत (सत्य) रूप, ऋत (यज्ञ) से हुँका हुआ है। वहाँ सहस्र संख्यक अश्व (रश्मियाँ) स्थित हैं। उन सुन्दर रूपवान् देवों के श्रेष्ठ सौन्दर्य का दर्शन हमने किया है ॥१॥ तत्सु वां मित्रावरुणा महित्वमीर्मा तस्थुषीरहभिर्दुदुहे । विश्वाः पिन्वथः स्वसरस्य धेना अनु वामेकः पविरा ववर्त ॥२॥ हे मित्र ! हे वरुण ! आप दोनों का महत्त्व बहुत विख्यात है। आप में से एक सतत परिभ्रमणशील सूर्यदेव के साथ दिन में स्थावर का रस दोहन करते हैं। आप स्वयं भ्रमणशील सूर्यदेव की सम्पूर्ण दीप्तियों को प्रवर्धित करते हैं। आपमें से एक का चक्र सर्वत्र गतिशील रहता है ॥२॥ अधारयतं पृथिवीमुत द्यां मित्रराजाना वरुणा महोभिः । वर्धयतमोषधीः पिन्वतं गा अव वृष्टिं सृजतं जीरदानू ॥३॥ हे दीप्तिमान् मित्रावरुण! आप अपने तेजों से द्यावा-पृथिवी को धारण करते हैं। हे शीघ्र दानकर्तादव ! आप ओषधियों को प्रवर्धित करते हैं और गौओं को पुष्ट करते हैं। आपने हमारे निमित्त वृष्टि को प्रवाहित किया है ॥३॥ आ वामश्वासः सुयुजो वहन्तु यतरश्मय उप यन्त्वर्वाक् । घृतस्य निर्णिगनु वर्तते वामुप सिन्धवः प्रदिवि क्षरन्ति ॥४॥ हे मित्रावरुणदेवो ! उत्तम प्रकार से प्रयोजित अश्व आप दोनों को वहन करें । सारथी लगाम से उन्हें नियन्त्रित करें। यज्ञ में घृतधारा के प्रवाहित होने के समान आपके द्वारा द्युलोक से नदियाँ प्रवाहित होती हैं ॥४॥ अनु श्रुताममतिं वर्धदुर्वी बर्हिरिव यजुषा रक्षमाणा । नमस्वन्ता धृतदक्षाधि गर्ते मित्रासाथे वरुणेळास्वन्तः ॥५॥ हे बलसम्पन्न मित्र और वरुणदेवो! आप दोनों शरीर की कान्ति को और भी प्रवर्धित करते हैं। यजुर्वेद के मंत्रों से जैसे यज्ञों की रक्षा होती हैं, उसी प्रकार आप पृथ्वी की रक्षा करें। हे अन्नवान् ! आप दोनों रथ पर विराजित होकर हमारे यज्ञ स्थान के मध्य आकर अधिष्ठित हों ॥५॥ अक्रविहस्ता सुकृते परस्पा यं त्रासाथे वरुणेळास्वन्तः । राजाना क्षत्रमहृणीयमाना सहस्रस्थूणं बिभृथः सह द्वौ ॥६॥ है मित्र और वरुणदेवो! आप दोनों सिद्धहस्त, अदृश्य रक्षक और हिंसा न करने वाले हैं। हे तेजस्वीदेवो! आप दोनों जिस उत्तमकर्मा यजमान के यज्ञों में उसकी रक्षा करते हैं, उसे धनादि से पूर्ण सहस्र स्तंभोंयुक्त गृह भी प्रदान करते हैं ॥६॥ हिरण्यनिर्णिगयो अस्य स्थूणा वि भ्राजते दिव्यश्वाजनीव । भद्रे क्षेत्रे निमिता तिल्विले वा सनेम मध्वो अधिगर्त्यस्य ॥७॥ इन मित्र और वरुणदेवों का रथ स्वर्णमय है, इनके स्तम्भ भी स्वर्णिम हैं। इससे यह रथ आकाश में विद्युत् के सदृश विशिष्ट आभा विकीर्ण करता है। इस (रथ) के कल्याणकारी स्थान में अवस्थित यह रस पात्र, रस से भरा है। हम इस रथ में रखे मधुर रस को प्राप्त करें ॥७॥ हिरण्यरूपमुषसो व्युष्टावयः स्थूणमुदिता सूर्यस्य । आ रोहथो वरुण मित्र गर्तमतश्चक्षाथे अदितिं दितिं च ॥८॥ हे मित्र और वरुणदेवो ! आप उषा के प्रकाशित होने तथा सूर्यदेव के उदित होने पर स्वर्णिम स्तम्भों वाले रथ पर आरोहण करते हैं और उस रथं से आप पृथ्वी और पृथ्वी के प्राणियों को देखते हैं ॥८॥ यद्वंहिष्ठं नातिविधे सुदानू अच्छिद्रं शर्म भुवनस्य गोपा । तेन नो मित्रावरुणावविष्टं सिषासन्तो जिगीवांसः स्याम ॥९॥ हे उत्तम दानशील, लोकरक्षक मित्र और वरुणदेवो! आपका जो घर अत्यन्त विशाल, आघातों से मुक्त और अखण्डित है, उसी घर से हमारी रक्षा करें। हम अभीष्ट धन प्राप्त करें और शत्रुजेता हों ॥९॥

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