ऋग्वेद द्वितीय मंडल सूक्त ११

ऋग्वेद - द्वितीय मंडल सूक्त ११ ऋषिः- गृत्समद (अंगीरसः शौन होत्रः पश्चयाद) भार्गवः शौनकः । देवता- इन्द्रः । छंद विराट स्थापना २१ त्रिष्टुप, श्रुधी हवमिन्द्र मा रिषण्यः स्याम ते दावने वसूनाम् । इमा हि त्वामूर्जी वर्धयन्ति वसूयवः सिन्धवो न क्षरन्तः ॥१॥ हे इन्द्रदेव ! आप हमारे निवेदन को स्वीकार करें, हमे तिरस्कृत न करें। धन दान के समय हम आपके कृपा पात्र रहें। झरते हुए जल के समान (मनुष्यों द्वारा प्रेमपूर्वक) दिया गया हव्य आपकी शक्ति को बढ़ाएँ ॥१॥ सृजो महीरिन्द्र या अपिन्वः परिष्ठिता अहिना शूर पूर्वीः । अमर्त्य चिद्दासं मन्यमानमवाभिनदुक्थैर्वावृधानः ॥२॥ हे इन्द्रदेव जिल को रोकने वाले अहि (असुर) के बन्धनों को तोड़कर आपने जल को मुक्त किया, उसे भूमि परबहाया। स्तुतियों से बढ़ते हुए आपने, अपने आपको अमर समझने वाले उस घमण्डी असुर को धराशायी किया ॥२॥ उक्थेष्विन्नु शूर येषु चाकन्स्तोमेष्विन्द्र रुद्रियेषु च । तुभ्येदेता यासु मन्दसानः प्र वायवे सिस्रते न शुभ्राः ॥३॥ हे वीर इन्द्रदेव ! जिन स्तुतियों से आप आनन्दित होते हैं और रुद्रदेव की जिन स्तुति की कामना करते हैं। हे बलशाली ! आपके लिए यज्ञ में वे स्तुतियाँ प्रकट होती हैं॥३॥ शुभ्रं नु ते शुष्मं वर्धयन्तः शुभ्रं वज्रं बाह्वोर्दधानाः । शुभ्रस्त्वमिन्द्र वावृधानो अस्मे दासीर्विशः सूर्येण सह्याः ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! हम आपके तेजस्वी बल को बढ़ाने वाले चमचमाते वज्र को आपकी भुजाओं में धारण कराते हैं। आप तेजस्वी रूप में विस्तार पाते हुए सूर्य के समान संतापदायीं वज्र से आसुरी प्रजाओं को नष्ट करें ॥४॥ गुहा हितं गुह्यं गूळ्हमप्स्वपीवृतं मायिनं क्षियन्तम् । उतो अपो द्यां तस्तभ्वांसमहन्नहिं शूर वीर्येण ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! आपने द्युलोक में चढ़ाई करके जले को रोके रखने वाले, गुफा में छिपे हुए मायावी 'अहि' असुर को क्षीण करते हुए अपने पराक्रम से मारा ॥५॥ स्तवा नु त इन्द्र पूर्व्या महान्युत स्तवाम नूतना कृतानि । स्तवा वज्रं बाह्वोरुशन्तं स्तवा हरी सूर्यस्य केतू ॥६॥ हे इन्द्रदेव ! हम आपके द्वारा प्राचीन समय में किये गए श्रेष्ठ कार्यों को यशोगान करते हुए वर्तमान में किये जा रहे कार्यों की प्रशंसा करते हैं। हाथों में धारण किये सुन्दर वज्र की तथा सूर्य रश्मियों के समान कान्तिमान् आपके अश्वों की भी हम प्रशंसा करें ॥६॥ हरी नु त इन्द्र वाजयन्ता घृतश्चतं स्वारमस्वाष्टम् । वि समना भूमिरप्रथिष्टारंस्त पर्वतश्चित्सरिष्यन् ॥७॥ हे इन्द्रदेव ! आपके द्रुतगामी अश्वों की गर्जना जल वृष्टि करने वाले मेघों की तरह है। पृथिवी जल बृष्टि से खूब फैल जाती है (उपजाऊ बन जाती हैं) । मेघ दौड़ते हुए पर्वतों पर विचरण करते हैं॥७॥ नि पर्वतः साद्यप्रयुच्छन्त्सं मातृभिर्वावशानो अक्रान् । दूरे पारे वाणीं वर्धयन्त इन्द्रेषितां धमनिं पप्रथन्नि ॥८॥ जल युक्त अप्रमादी मेघ आकाश में गर्जना करते हुए विचरण कर रहे थे, तब स्तोताओं की वाणी रूपी स्तुतियों से इन्द्रदेव की प्रेरणा प्राप्त कर मेघ बहुत दूर-दूर तक निरन्तर विस्तृत हुए ॥८ ॥ इन्द्रो महां सिन्धुमाशयानं मायाविनं वृत्रमस्फुरन्निः । अरेजेतां रोदसी भियाने कनिक्रदतो वृष्णो अस्य वज्रात् ॥९॥ अन्तरिक्ष में जल का मार्ग रोकने वाले बहुत बड़े मायावी राक्षस वृत्र का इन्द्रदेव ने हनन किया। उस समय बलशाली इन्द्रदेव के सिंह- गर्जना करने वाले वज्र के भय से दोनों लोक काँपने लगे ॥९॥ अरोरवीदृष्णो अस्य वज्रोऽमानुषं यन्मानुषो निजूर्वात् । नि मायिनो दानवस्य माया अपादयत्पपिवान्त्सुतस्य ॥१०॥ मनुष्यों का अहित करने वाले वृत्र राक्षस को जब मनुष्यों का हित करने वाले इन्द्रदेव ने मारा, तब बलशाली इन्द्रदेव के वज्र ने बार- बार गर्जना की। तभी सोमपायी इन्द्रदेव ने इस मायावी राक्षस की माया को नष्ट कर दिया ॥१०॥ पिबापिबेदिन्द्र शूर सोमं मन्दन्तु त्वा मन्दिनः सुतासः । पृणन्तस्ते कुक्षी वर्धयन्त्वित्था सुतः पौर इन्द्रमाव ॥११॥ हे वीर इन्द्रदेव ! इस सोम रस का पान अवश्य करें। यह शोधित आनन्ददायक सोमम आपको हर्षित करे। यह आपके पेट में जाकर आपकी शक्ति को बढ़ाये। इस प्रकार यह (आपके माध्यम से) समस्त प्रज्ञा की रक्षा करे ॥११॥ त्वे इन्द्राप्यभूम विप्रा धियं वनेम ऋतया सपन्तः । अवस्यवो धीमहि प्रशस्तिं सद्यस्ते रायो दावने स्याम ॥१२॥ हे इन्द्रदेव ! हुम ज्ञानीजन यज्ञीय कर्म की कामना से आपका आश्रय प्राप्त करते हुए आपसे सम्बद्ध हो। आपकी बुद्धि प्राप्त करें । आपकी स्तुतियाँ करते हुए हम लोग संरक्षण की कामना करते हैं। आपके दान से हमें धन प्राप्त हो ॥१२॥ स्याम ते त इन्द्र ये त ऊती अवस्यव ऊर्जं वर्धयन्तः । शुष्मिन्तमं यं चाकनाम देवास्मे रयिं रासि वीरवन्तम् ॥१३॥ हे इन्द्रदेव ! हम रक्षा की कामना से आपको तेजस्वी बनाते हैं, अतः सदैव हम आपके संरक्षण में रहें। हमारी कामना के अनुरूप वीरों (पुत्रों) से युक्त धन हमें प्रदान करें ॥१३॥ रासि क्षयं रासि मित्रमस्मे रासि शर्ध इन्द्र मारुतं नः । सजोषसो ये च मन्दसानाः प्र वायवः पान्त्यग्रणीतिम् ॥१४॥ हे इन्द्रदेव ! समान रूप से परस्पर प्रेम रखने वाले, हर्षदायक जो मरुद्गण अग्रणी होकर नेतृत्व प्रदान करने वालों की रक्षा करते हैं, उन मरुतों का मित्रवत् शक्तियुक्त आश्रय हमें प्रदान करें ॥१४॥ व्यन्त्विन्नु येषु मन्दसानस्तृपत्सोमं पाहि द्रह्यदिन्द्र । अस्मान्त्सु पृत्स्वा तरुत्रावर्धयो द्यां बृहद्भिरकैः ॥१५॥ हे इन्द्रदेव ! जिन यज्ञों में आप आनन्दित होते हैं, उनमें तृप्तकारी सोमरस का पान स्थिर होकर करें। सभी स्तोतागण भी उस सोम का पान करें। हे संकटों से पार करने वाले देव ! हमारे महान् स्तोत्रों से संग्राम में हमें तेजस्वी बनाएँ और आकाश को समृद्ध बनाएँ ॥१५॥ बृहन्त इन्नु ये ते तरुत्रोक्थेभिर्वा सुम्नमाविवासान् । स्तृणानासो बर्हिः पस्त्यावत्त्वोता इदिन्द्र वाजमग्मन् ॥१६॥ हे दुःख नाशक इन्द्रदेव! जो महान् साधक स्तोत्रों द्वारा आपका स्नेह चाहते हैं एवं कुश का आसन प्रदान करते हैं, वे शीघ्र ही आपका संरक्षण प्राप्त करके अन्न और गृह प्राप्त करते हैं॥१६॥ उग्रेष्विन्नु शूर मन्दसानस्त्रिकद्रुकेषु पाहि सोममिन्द्र । प्रदोधुवच्छमश्रुषु प्रीणानो याहि हरिभ्यां सुतस्य पीतिम् ॥१७॥ हे वीर इन्द्रदेव! जो सोम रस तीनों लोकों में सूर्य के समान बल प्रदान करने वाला है, आनन्दित होते हुए उसका पान करें । श्रेष्ठ घोड़ों पर आरूढ़ होकर दाढ़ी-मूंछों को झाड़कर सोमरस का पान करें ॥१७॥ धिष्वा शवः शूर येन वृत्रमवाभिनद्दानुमौर्णवाभम् । अपावृणोर्योतिरार्याय नि सव्यतः सादि दस्युरिन्द्र ॥१८॥ हे वीर इन्द्रदेव! मकड़ी के जाल के समान अवरोधों से जल को रोके रखने वाले असुर वृत्र को जिस पराक्रम से आपने छिन्न-भिन्न किया, उसी बल का प्रयोग करें। आपने दस्युओं (अवरोधों) को हटाकर मनुष्यों को सूर्य का प्रकाश उपलब्ध कराया ॥१८॥ सनेम ये त ऊतिभिस्तरन्तो विश्वाः स्पृध आर्येण दस्यून् । अस्मभ्यं तत्त्वाष्ट्रं विश्वरूपमरन्धयः साख्यस्य त्रिताय ॥१९॥ हे इन्द्रदेव! मनुष्य मात्र का संरक्षण करते हुए आपने त्रिविध (कायिक, वाचिक तथा मानसिक ताप देने वाले असुरों को अपने वश में किया था तथा त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप को नष्ट किया था। आप हमें भी संरक्षण प्रदान करें ॥१९॥ अस्य सुवानस्य मन्दिनस्त्रितस्य न्यर्बुदं वावृधानो अस्तः । अवर्तयत्सूर्यो न चक्रं भिनद्वलमिन्द्रो अङ्गिरस्वान् ॥२०॥ यज्ञकर्ता त्रित के शत्रु अर्बुद को इन्द्रदेव ने स्वयं बढ़ते हुए, आनन्दित होकर मारा था । अंगिराओं के मित्र इन्द्रदेव ने सूर्यदेव द्वारा रथ के पहिए घुमाने की भाँति अपने वज्र को घुमाकर असुरों को नष्ट किया ॥२०॥ नूनं सा ते प्रति वरं जरित्रे दुहीयदिन्द्र दक्षिणा मघोनी । शिक्षा स्तोतृभ्यो माति धग्भगो नो बृहद्वदेम विदथे सुवीराः ॥२१॥ हे इन्द्रदेव! यज्ञ के समय स्तोताओं के लिए आपके द्वारा दी गई ऐश्वर्य युक्त दक्षिणा निश्चित ही उत्तम धन प्राप्त कराती हैं। स्तोताओं के साथ हमें भी वह ऐश्वर्य युक्त दक्षिणा प्रदान करें, जिससे हम यज्ञ में महान् पराक्रम प्रदान करने वाले स्तोत्रों का उच्चारण करें ॥२१॥

Recommendations