ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ४६

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ४६ ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः । देवता - इन्द्रः । छंद - त्रिष्टुप युध्मस्य ते वृषभस्य स्वराज उग्रस्य यूनः स्थविरस्य घृष्वेः । अजूर्यतो वज्रिणो वीर्याणीन्द्र श्रुतस्य महतो महानि ॥१॥ हे इन्द्रदेव ! आप उत्तम योद्धा, इष्ट-प्रदाता, धनों के स्वामी, शूरवीर, तरुण, स्थायी, प्रतिष्ठावान्, शत्रुओं के पराभवकर्ता, वज्रधारी तथा तीनों लोकों में प्रख्यात हैं। आप के वीरोचित कार्य भी महान् हैं॥१॥ महाँ असि महिष वृष्ण्येभिर्धनस्पृदुग्र सहमानो अन्यान् । एको विश्वस्य भुवनस्य राजा स योधया च क्षयया च जनान् ॥२॥ हे महान् उग्र इन्द्रदेव! आप धनों से परिपूर्ण रहने वाले, अपने पराक्रम से शत्रुओं को पराभूत करने वाले और सम्पूर्ण लोकों के अधीश्वर हैं। आप शत्रुओं का विनाश करें और सत्यव्रती जनों को आश्रय प्रदान करें ॥२॥ प्र मात्राभी रिरिचे रोचमानः प्र देवेभिर्विश्वतो अप्रतीतः । प्र मज्मना दिव इन्द्रः पृथिव्याः प्रोरोर्महो अन्तरिक्षादृजीषी ॥३॥ दीप्तिमान् और सब प्रकार से अपराजेय, सम पौने वाले इन्द्रदेव सम्पूर्ण परिमित पदार्थों में भी महान् हैं। सम्पूर्ण देवों के बल से बड़े हैं। द्यावापृथिवीं से अधिक श्रेष्ठ हैं तथा व्यापक अन्तरिक्ष से भी अधिक उत्कृष्ट हैं ॥३॥ उरुं गभीरं जनुषाभ्युग्रं विश्वव्यचसमवतं मतीनाम् । इन्द्रं सोमासः प्रदिवि सुतासः समुद्रं न स्रवत आ विशन्ति ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! आप महान् और गंभीर हैं, जन्म से अत्यन्त वीर हैं और विश्व में व्याप्त होने वाले हैं। आप स्तोताओं के रक्षक हैं। प्रकृष्ट, दीप्तिमान् अभिघुत सोम उसी प्रकार आप को प्राप्त होते हैं, जिस प्रकार दूर तक गमन करती हुई नदियाँ समुद्र को ॥४॥ यं सोममिन्द्र पृथिवीद्यावा गर्भ न माता बिभृतस्त्वाया । तं ते हिन्वन्ति तमु ते मृजन्त्यध्वर्यवो वृषभ पातवा उ ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! जिस प्रकार माता अपने गर्भ को धारण करती है, उसी प्रकार द्यावा-पृथिबी आपकी अभिलाषा से सोम को धारण करती हैं। हैं इएमर्षक इन्द्रदेव ! अध्ययुंगण इस सोम को शुद्ध करके आपके पीने के लिए प्रेरित करते हैं॥५॥

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