ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १२२

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १२२ ऋषि - कक्षीवान दैघतमस औशिजः देवता- विश्वे देवाः । छंद - त्रिष्टुप, विराट रूपा प्र वः पान्तं रघुमन्यवोऽन्धो यज्ञं रुद्राय मीळ्हुषे भरध्वम् । दिवो अस्तोष्यसुरस्य वीरैरिषुध्येव मरुतो रोदस्योः ॥१॥ हे अक्रोधी ऋत्विजों ! आप हर्ष प्रदायक रुद्रदेव के निमित्त अन्नरूपी आहुति प्रदान करें । जिस प्रकार धनुर्धारी वाणों से शत्रु पक्ष का विनाश करते हैं, वैसे ही दिव्यलोक से आकर असुरता के संहारक, दिव्यलोक और भूलोक के मध्य शूरवीरों के साथ वास करने वाले मरुद्गणों की हम प्रार्थना करते हैं॥१॥ पत्नीव पूर्वहूतिं वावृधध्या उषासानक्ता पुरुधा विदाने । स्तरीर्नात्कं व्युतं वसाना सूर्यस्य श्रिया सुदृशी हिरण्यैः ॥२॥ जिस प्रकार धर्मपत्नी अपने पति का सदैव सहयोग करती हैं, उसी प्रकार देवी उषा और रात्रि हमारी पूर्व प्रार्थनाओं को जानकर हमें प्रगति मार्ग पर अग्रसर करें। अन्धकार को नष्ट करने वाले सूर्यदेव के समान स्वर्णिम वस्त्रों से सुसज्जित सूर्यदेव की सुषमा से सुशोभित तथा दर्शन में अति रूपवती देवी उषा हमें समुन्नति के शिखर पर पहुँचाये ॥२॥ ममत्तु नः परिज्मा वसर्हा ममत्तु वातो अपां वृषण्वान् । शिशीतमिन्द्रापर्वता युवं नस्तन्नो विश्वे वरिवस्यन्तु देवाः ॥३॥ तिमिर नाशक और दिन लाने वाले, सर्वत्र विचरणशील सूर्यदेव हमें सभी सुखों को प्रदान करें। वायुदेव जलवृष्टि करके हमें आनन्दित करें । इन्द्रदेव और मेघ आप दोनों को एवं हमें (अथवा हमारी बुद्धि को) परिष्कृत करें तथा सभी देवगण हमें ऐश्वर्यों से सम्पन्न बनायें ॥३॥ उत त्या मे यशसा श्वेतनायै व्यन्ता पान्तौशिजो हुवध्यै । प्र वो नपातमपां कृणुध्वं प्र मातरा रास्पिनस्यायोः ॥४॥ उशिक पुत्र कक्षीवान् द्वारा अपनी यशस्विता और तेजस्विता उपलब्ध करने हेतु सर्वत्र गमनशील, पालनकर्ता अश्विनीकुमारों की प्रार्थना की जाती है। हे मनुष्यो ! आप सत्कर्मों के संरक्षक अग्निदेव के निमित्त श्रेष्ठ प्रार्थना करें तथा स्तुति करने वालों के माता-पिता के सदृश द्यावा-पृथिवी की भी प्रार्थना करें ॥४॥ आ वो रुवण्युमौशिजो हुवध्यै घोषेव शंसमर्जुनस्य नंशे । प्र वः पूष्णे दावन आँ अच्छा वोचेय वसुतातिमग्नेः ॥५॥ हे देवो ! जिस प्रकार घोषा नामक स्त्री ने रोग निवारण के निमित्त अश्विनीकुमारों का आवाहन किया, उसी प्रकार उशिक् पुत्र कक्षीवान् अपने दुःखों की निवृत्ति के लिए आपके आवाहन हेतु सस्वर स्तोत्रों का उच्चारण करते हैं। आपके साथ धनदाता पूषादेव की भी प्रार्थना करते हैं। अग्निदेव द्वारा प्रदत्त सम्पदाओं के लिए भी प्रार्थना करते हैं॥५॥ श्रुतं मे मित्रावरुणा हवेमोत श्रुतं सदने विश्वतः सीम् । श्रोतु नः श्रोतुरातिः सुश्रोतुः सुक्षेत्रा सिन्धुरद्भिः ॥६॥ हे मित्र और वरुणदेव ! आप दोनों हमारा निवेदन सुने तथा यज्ञ मण्डप में चारों ओर से उच्चारित प्रार्थना को भी सुनें । सुविख्यात, दानशील जलवर्षक देव हमारी प्रार्थना को सुनकर जलराशि से हमारे खेतों को सिंचित करें ॥६॥ स्तुषे सा वां वरुण मित्र रातिर्गवां शता पृक्षयामेषु पजे । श्रुतरथे प्रियरथे दधानाः सद्यः पुष्टिं निरुन्धानासो अग्मन् ॥७॥ हे वरुण और मित्र देवो! हम आपकी प्रार्थना करते हैं। जहाँ अश्व तीव्र गति से चलाये जाते हैं, ऐसे संग्राम में शूरवीर ही असंख्य गौओं रूपी धन को उपलब्ध करते हैं। आप दोनों उस विख्यात एवं अपने प्रिय रथ में बैठकर शीघ्र यहाँ आकर हमें पुष्ट करें ॥७॥ अस्य स्तुषे महिमघस्य राधः सचा सनेम नहुषः सुवीराः । जनो यः पज्रेभ्यो वाजिनीवानश्वावतो रथिनो मह्यं सूरिः ॥८॥ जो सामर्थ्यवान् मनुष्य घोड़ों और रथों से सुसज्जित योद्धाओं को हमारे संरक्षणार्थ प्रेरित करते हैं। ऐसे महान् वैभवशाली मनुष्यों का धन सभी जनों द्वारा सराहा जाता है। श्रेष्ठ शौर्यवान् हम सभी मनुष्य एक साथ संगठित हों ॥८ ॥ जनो यो मित्रावरुणावभिध्रुगपो न वां सुनोत्यक्ष्णयाधुक् । स्वयं स यक्ष्मं हृदये नि धत्त आप यदीं होत्राभिर्ऋतावा ॥९॥ हे मित्र और वरुणदेवो! जो मनुष्य आपसे निष्कारण द्वेष करते हैं, जो सोमरस निष्पादित करने से वंचित हैं। तथा यज्ञीय भावना से रहित हो कुमार्ग पर चलते हैं, वे अनेक प्रकार के मानसिक और हृदय सम्बन्धी रोगों से असित हो जाते हैं। लेकिन जो मनुष्य सत्यमार्ग पर चलते हुए मन्त्रों द्वारा यज्ञ सम्पन्न करते हैं, वे सदैव आपकी कृपा को प्राप्त करते हैं ॥९॥ स व्राधतो नहुषो दंसुजूतः शर्धस्तरो नरां गूर्तश्रवाः । विसृष्टरातिर्याति बाळ्हसृत्वा विश्वासु पृत्सु सदमिच्छ्ररः ॥१०॥ हे देवो ! यजन करने वाले साधक अश्वों से युक्त होकर, शत्रुओं के भयंकर विनाशकर्ता, अति तेजस्वी, याचकों के प्रति उदारतायुक्त तथा महान् बलशाली होते हैं। वे सभी युद्धों में अति सामर्थ्यवान् शत्रुओं का भी विध्वंस करते हुए अग्रसर होते हैं॥१०॥ अध ग्मन्ता नहुषो हवं सूरेः श्रोता राजानो अमृतस्य मन्द्राः । नभोजुवो यन्निरवस्य राधः प्रशस्तये महिना रथवते ॥११॥ हे आकाशव्यापी देवो ! आप अपनी सामर्थ्य से, अकल्याणकारी दुष्टों की सम्पदा को, प्रशंसा के योग्य श्रेष्ठ रथधारी शूरवीरों के लिए हस्तान्तरित करते हैं। तेजवान् हर्षदायक और अमृत स्वरूप यज्ञ की ओर प्रेरित करने वाले हे देवो! मनुष्यों की स्तुतियों को सुनकर आप यहाँ पधारें ॥११॥ एतं शर्धं धाम यस्य सूरेरित्यवोचन्दशतयस्य नंशे । द्युम्नानि येषु वसुताती रारन्विश्वे सन्वन्तु प्रभृथेषु वाजम् ॥१२॥ "जिस स्तुतिकर्ता द्वारा दसे चमस पात्रों में रखे गये सोम के लिए आपको बुलाया गया है, आप उसकी सामर्थ्यशक्ति को बढ़ायेंगे" ऐसा देवों का कथन है। जिन देवताओं में तेजस्विता युक्त ऐश्वर्य सुशोभित हो, ऐसे सभी देव हमारे यज्ञों में आकर हविष्यान्न का सेवन करें ॥१२॥ मन्दामहे दशतयस्य धासेर्द्विर्यत्पञ्च बिभ्रतो यन्त्यन्ना । किमिष्टाश्व इष्टरश्मिरेत ईशानासस्तरुष ऋञ्जते नृन् ॥१३॥ याज्ञिक दस चमसे पात्रों में रखे सोम रूपी हविष्यान्न को लेकर आते हैं। उन पात्रों में रखे सोमरस रूपी अन्न से हम प्रशंसित हैं। जो अश्वों को लगामों द्वारा भली प्रकार नियंत्रित करने की कला में निपुण हैं, ऐसे शत्रु संहारक (देवों) के होते हुए श्रद्धालु मनुष्यों को पीड़ित करने में भला कौन समर्थ हो सकता है? अर्थात् कोई भी उनका अहित करने में सक्षम नहीं ॥१३॥ हिरण्यकर्णं मणिग्रीवमर्णस्तन्नो विश्वे वरिवस्यन्तु देवाः । अर्यो गिरः सद्य आ जग्मुषीरोस्राश्चाकन्तूभयेष्वस्मे ॥१४॥ सम्पूर्ण देवता हमें कानों में स्वर्ण आभूषण तथा कण्ठ में मणियों को धारण किये हुए सुसन्तति प्रदान करें। ये श्रेष्ठ देवता हमारे द्वारा उच्चारित प्रार्थनाओं एवं घृतादि आहुतियों को दोनों प्रकार के यज्ञों में शीघ्र ही ग्रहण करें ॥१४॥ चत्वारो मा मशर्शारस्य शिश्वस्त्रयो राज्ञ आयवसस्य जिष्णोः । रथो वां मित्रावरुणा दीर्घाप्साः स्यूमगभस्तिः सूरो नाद्यौत् ॥१५॥ विजयी तथा शत्रु संहारक " मशर्शार " राजा के चार (काम, क्रोध, लोभ, मोह) पुत्र और अन्नों के अधिपति आयवस" नरेश के तीन पुत्र (त्रिताप- दैहिक, दैविक और भौतिक) हमें पीड़ित करते हैं। हे मित्र और वरुण देवो ! आप दोनों का विशालकाय सुखकारी रश्मियों से युक्त रथ सूर्यदेव के सदृश आलोकित हो ॥१५॥

Recommendations