ऋग्वेद द्वितीय मंडल सूक्त २३

ऋग्वेद - द्वितीय मंडल सूक्त २३ ऋषिः- गृत्समद (अंगीरसः शौन होत्रः पश्चयाद) भार्गवः शौनकः । देवता- बृहस्पतिः, १,५,९,११, १७,१९ ब्रह्मणस्पतिः। छंद- जगती, १५, १९ त्रिष्टुप गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम् । ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ नः शृण्वन्नूतिभिः सीद सादनम् ॥१॥ हे ब्रह्मणस्पतिदेव ! आप गणों के भी गणपति तथा कवियों में भी श्रेष्ठ कवि हैं। आप अनुपमेय, श्रेष्ठ तथा तेजस्वी मंत्रों के स्वामी हैं, अतः हम आपका आवाहन करते हैं। हमारी प्रार्थना को स्वीकार कर रक्षण साधनों सहित हमें संरक्षण प्रदान करें ॥१॥ देवाश्चित्ते असुर्य प्रचेतसो बृहस्पते यज्ञियं भागमानशुः । उस्रा इव सूर्यो ज्योतिषा महो विश्वेषामिज्जनिता ब्रह्मणामसि ॥२॥ हे महाबली बृहस्पतिदेव ! सर्वोत्कृष्ट देवताओं ने आपके यज्ञीय भाग को प्राप्त किया था। जिस तरह महान् सूर्य तेजस्वी किरणों को पैदा करते हैं, उसी प्रकार आप सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाशक हैं॥२॥ आ विबाध्या परिरापस्तमांसि च ज्योतिष्मन्तं रथमृतस्य तिष्ठसि । बृहस्पते भीमममित्रदम्भनं रक्षोहणं गोत्रभिदं स्वर्विदम् ॥३॥ हे बृहस्पतिदेव ! पाप पूर्णकर्म करने वालों को तथा अज्ञानमय अन्धकार को विविध उपायों से नष्ट करके, दुष्ट पुरुषों को भय देने वाले, शत्रुओं के नाशक, राक्षसों का वध करने वाले, सुदृढ़ किलों को ध्वस्त करने वाले तथा यज्ञ के प्रकाशक और सुखदायी आप रथ में विराजमान होते हैं॥३॥ सुनीतिभिर्नयसि त्रायसे जनं यस्तुभ्यं दाशान्न तमंहो अश्नवत् । ब्रह्मद्विषस्तपनो मन्युमीरसि बृहस्पते महि तत्ते महित्वनम् ॥४॥ हे बृहस्पतिदेव ! जो आपको हविष्यान्न समर्पित करता है, उसके श्रेष्ठ पथ प्रदर्शक बनकर आप उसे संरक्षण प्रदान करते हैं, उसे कभी पाप नहीं व्यापता । आप ज्ञान द्वेषियों को पीड़ित करने वाले तथा अभिमानियों के नाशक हैं। आपकी महान् महिमा अवर्णनीय है ॥४॥ न तमंहो न दुरितं कुतश्चन नारातयस्तितिरुर्न द्वयाविनः । विश्वा इदस्माद्ध्वरसो वि बाधसे यं सुगोपा रक्षसि ब्रह्मणस्पते ॥५॥ हे ब्रह्मणस्पतिदेव ! आप जिसे संरक्षण प्रदान करते हैं, उसे सम्पूर्ण हिंसक शक्तियों से बचाते हैं। उसके लिए पाप कर्म दुःखदायी नहीं होते, शत्रु भी उसे कष्ट नहीं पहुँचाते तथा कोई ठग भी उसे भ्रमित नहीं कर सकता ॥५॥ त्वं नो गोपाः पथिकृद्विचक्षणस्तव व्रताय मतिभिर्जरामहे । े बृहस्पते यो नो अभि ह्वरो दधे स्वा तं मर्मर्तु दुच्छुना हरस्वती ॥६॥ हे बृहस्पतिदेव ! आप हमारे संरक्षक तथा मार्गदर्शक हैं। हे सर्वज्ञाता ! आपके नियमानुसार अनुगमन करने के लिए हम मन्त्रों सहित आपकी स्तुति करते हैं। हमारे प्रति जो भी कुटिलता का व्यवहार करे, उसे उसकी ही दुर्बुद्धि नष्ट कर दे ॥६॥ उत वा यो नो मर्चयादनागसोऽरातीवा मर्तः सानुको वृकः । बृहस्पते अप तं वर्तया पथः सुगं नो अस्यै देववीतये कृधि ॥७॥ हे बृहस्पतिदेव ! शत्रुवत् आचरण करने वाले तथा भेड़िये के समान हिंसक मनुष्य यदि हमें पीड़ित करें तो उन्हें हमारे मार्ग से हटा दें। देवत्व की प्राप्ति के लिए हमारे मार्ग को अपराध रहित बनाते हुए उसे सुगम करें ॥७॥ त्रातारं त्वा तनूनां हवामहेऽवस्पर्तरधिवक्तारमस्मयुम् । बृहस्पते देवनिदो नि बर्हय मा दुरेवा उत्तरं सुम्नमुन्नशन् ॥८॥ हे बृहस्पतिदेव ! आप शत्रुनाशक बल को विपत्तियों से पार करने वाले हैं। हम आपको अपने शरीरों के पालक मानते हैं, प्रिय गृहपति के रूप में स्वीकार करते हैं, अतः आपका आवाहन करते हैं। आप देवताओं की निन्दा करने वालों को नष्ट करें। दुष्ट आचरण वालों को सुख की प्राप्ति न हो, उनका नाश करें ॥८॥ त्वया वयं सुवृधा ब्रह्मणस्पते स्पार्हा वसु मनुष्या ददीमहि । या नो दूरे तळितो या अरातयोऽभि सन्ति जम्भया ता अनप्नसः ॥९॥ हे ब्रह्मणस्पतिदेव ! हम याजकगण आप से मनुष्यों के लिए हितकारी तथा चाहने योग्य उत्तम वृद्धिकारक धन की याचना करते हैं। हमारे पास, दूर तथा चारों ओर जो भी शत्रुरूप आघात करने वाले कर्महीन मनुष्य हैं, उन्हें नष्ट करें ॥९॥ त्वया वयमुत्तमं धीमहे वयो बृहस्पते पप्रिणा सस्त्रिना युजा । मा नो दुःशंसो अभिदिप्सुरीशत प्र सुशंसा मतिभिस्तारिषीमहि ॥१०॥ हे वाणी के स्वामी बृहस्पतिदेव ! आप पवित्र आचारवान् तथा सभी ऐश्वर्यों से पूर्ण करने वाले हैं, हम आप से जुड़कर आयुष्य प्राप्त करें । दुराचारी तथा ठगने वाला हमारा अधिपति न हो। उत्तम बुद्धि के सहारे प्रशंसनीय रहते हुए हम संकटों को पार करें ॥१०॥ अनानुदो वृषभो जग्मिराहवं निष्टप्ता शत्रु पृतनासु सासहिः । असि सत्य ऋणया ब्रह्मणस्पत उग्रस्य चिद्दमिता वीळुहर्षिणः ॥११॥ हे ब्रह्मणस्पतिदेव ! आपके समान दानदाता दूसरा कोई नहीं है । आप बलशाली, युद्ध में जाने वाले (योद्धा, शत्रुओं को पीड़ित करने वाले, युद्ध में शत्रुओं को पराजित करने वाले, ऋण मुक्त करने वाले, पराक्रम से युक्त, शत्रुओं का दमन करने वाले तथा न्यायशील हैं॥११॥ अदेवेन मनसा यो रिषण्यति शासामुग्रो मन्यमानो जिघांसति । बृहस्पते मा प्रणक्तस्य नो वधो नि कर्म मन्युं दुरेवस्य शर्धतः ॥१२॥ हे बृहस्पतिदेव ! जो आसुरी वृत्ति के कारण हमारे लिए दुःख दायी है, निर्दयी है, अत्यन्त अहंकारी रूप में स्तोताओं का हनन करना चाहता है, उसके हथियार हमें स्पर्श न करें। कुमार्गगामी बलवान् व्यक्ति के क्रोध को हम नष्ट करें ॥१२॥ भरेषु हव्यो नमसोपसद्यो गन्ता वाजेषु सनिता धनंधनम् । विश्वा इदर्यो अभिदिप्स्वो मृधो बृहस्पतिर्वि ववर्हा रथाँ इव ॥१३॥ युद्ध में सहायता के लिए आदर-पूर्वक बुलाने योग्य बृहस्पतिदेव सभी प्रकार का ऐश्वर्य प्रदान करते हैं, वे स्तुत्य हैं। शत्रु सेनाओं को नष्ट करने की कामना वाले बृहस्पतिदेव शत्रु के रथों के समान ही हिंसक शत्रुओं का संहार करें ॥१३॥ तेजिष्ठया तपनी रक्षसस्तप ये त्वा निदे दधिरे दृष्टवीर्यम् । आविस्तत्कृष्व यदसत्त उक्थ्यं बृहस्पते वि परिरापो अर्दय ॥१४॥ हे बृहस्पतिदेव ! आपके दृष्टिगोचर होने वाले पराक्रम की जो निन्दा करते हैं, आप उन दुष्ट प्रकृति वालों को अपने तेजस्वी ताप से पीड़ित करें। आपका पराक्रम सराहनीय हैं, उसे प्रकट करके चारों ओर व्याप्त शत्रुओं का संहार करें ॥१४॥ बृहस्पते अति यदर्यो अर्हाछ्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु । यद्दीदयच्छवस ऋतप्रजात तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम् ॥१५॥ हे ख्याति प्राप्त धर्मज्ञ बृहस्पति देव ! ज्ञानी जनों द्वारा सम्माननीय, मनुष्यों में तेजस्वी कर्म के रूप में प्रतिफलित होने वाले, देदीप्यमान सर्वोत्तम तथा अलौकिक ऐश्वर्य हमें प्रदान करें ॥१५॥ मा नः स्तेनेभ्यो ये अभि द्रुहस्पदे निरामिणो रिपवोऽन्नेषु जागृधुः । आ देवानामोहते वि व्रयो हृदि बृहस्पते न परः साम्नो विदुः ॥१६॥ हे बृहस्पतिदेव ! जो द्रोही शत्रु आक्रमण करके अन्नादि पदार्थों की कामना करते हैं, देवगणों के प्रति द्वेष भाव रखते हैं तथा श्रेष्ठ सुखकारी वचन भी नहीं जानते, ऐसे चोर पुरुषों से हमें भय न हो ॥१६॥ विश्वेभ्यो हि त्वा भुवनेभ्यस्परि त्वष्टाजनत्साम्नः साम्नः कविः । स ऋणचिदृणया ब्रह्मणस्पतिर्नुहो हन्ता मह ऋतस्य धर्तरि ॥१७॥ हे ब्रह्मणस्पतिदेव ! प्रजापति ने आपको सम्पूर्ण भुवनों में सर्वश्रेष्ठ बनाया है, अतः आप प्रत्येक साम के ज्ञाता हैं। महान् यज्ञ के धारण कर्ता स्तोताओं को ऋण से मुक्ति दिलाकर, द्रोहकारियों का विनाश करते हैं॥१७॥ तव श्रिये व्यजिहीत पर्वतो गवां गोत्रमुदसृजो यदङ्गिरः । इन्द्रेण युजा तमसा परीवृतं बृहस्पते निरपामौब्जो अर्णवम् ॥१८॥ हे अंगिरावंशी बृहस्पतिदेव! जब गौओं को पर्वतों ने छिपाया था और आपने उन गौओं को बाहर निकालकर आश्रय प्रदान किया था, तब इन्द्रदेव की मदद से वृत्र द्वारा रोके गये जल को बरसने के लिए आपने प्रेरित किया ॥१८॥ ब्रह्मणस्पते त्वमस्य यन्ता सूक्तस्य बोधि तनयं च जिन्व । विश्वं तद्भद्रं यदवन्ति देवा बृहद्वदेम विदथे सुवीराः ॥१९॥ हे ब्रह्मणस्पतिदेव ! आप सम्पूर्ण जगत् के नियन्ता हैं। आप इस सूक्त के ज्ञाता हैं। देवगणों का संरक्षण जिन्हें प्राप्त होता है, उनका सब प्रकार से कल्याण होता है। आप हमारी सन्तति को परिपुष्ट बनायें, जिससे हम यज्ञ में सुसन्तति सहित आपकी महिमा का गायन कर सकें ॥१९॥

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