ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १०३

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १०३ ऋषि - कुत्स अंगिरसः: देवता-इन्द्र, । छंद-त्रिष्टुप तत्त इन्द्रियं परमं पराचैरधारयन्त कवयः पुरेदम् । क्षमेदमन्यद्दिव्यन्यदस्य समी पृच्यते समनेव केतुः ॥१॥ है इन्द्रदेव ! आपकी उस पराक्रम शक्ति को क्रांतदर्शी ज्ञानवानों ने प्राचीनकाल से ही शत्रुओं को पराजित करने वाले कर्मों के रूप में धारण किया था। आपकी दो प्रकार की शक्तिधाराएँ हैं- एक धारा तो भूलोक में अग्नि रूप में है और दूसरी स्वर्गलोक में सूर्य प्रकाश के रूप में है। युद्ध स्थल पर उल्टी दिशाओं से आती हुई दो पताकाओं की तरह ये दोनों शक्तिधाराएँ अन्तरिक्ष लोक में परस्पर संयुक्त होती हैं ॥१॥ स धारयत्पृथिवीं पप्रथच्च वज्रेण हत्वा निरपः ससर्ज । अहन्नहिमभिनद्रौहिणं व्यहन्व्यंसं मघवा शचीभिः ॥२॥ उन इन्द्रदेव ने पृथ्वी को धारण करके उसका विस्तार किया। वज्र रूपी तीक्ष्ण शक्तिधाराओं से नदी के प्रवाह को अवरुद्ध किये हुए अहि, रौहिण और व्यंसादि दैत्यों का संहार किया, जिससे पुनः अवरुद्ध जलधाराएँ प्रवाहित हुईं ॥२॥ स जातूभर्मा श्रद्दधान ओजः पुरो विभिन्दन्नचरद्वि दासीः । विद्वान्वज्रिन्दस्यवे हेतिमस्यार्यं सहो वर्धया द्युम्नमिन्द्र ॥३॥ विद्युत् के समान तीक्ष्ण धारवाले आयुधों से युक्त होकर, इन्द्रदेव आत्म-विश्वास के साथ आक्रमण द्वारा दस्युओं के नगरों को ध्वस्त करते हैं, तथा निर्विघ्न होकर विचरण करते हैं। हे ज्ञान सम्पन्न वज्रधारी इन्द्रदेव ! इस स्तोता के शत्रुओं पर भी आयुध फेंकें और आर्यों के बल तथा कीर्ति को बढ़ायें ॥३॥ तदूचुषे मानुषेमा युगानि कीर्तन्यं मघवा नाम बिभ्रत् । उपप्रयन्दस्युहत्याय वज्री यद्ध सूनुः श्रवसे नाम दधे ॥४॥ शक्ति पुत्र वज्रधारी इन्द्रदेव ने शत्रु के संहार के लिए आगे बढ़कर जो नाम कमाया, उसे प्रशंसनीय मघवा' नाम को उन्होंने युगों तक मनुष्यों के लिए धारण किया ॥४॥ तदस्येदं पश्यता भूरि पुष्टं श्रदिन्द्रस्य धत्तन वीर्याय । स गा अविन्दत्सो अविन्ददश्वान्त्स ओषधीः सो अपः स वनानि ॥५॥ उन इन्द्रदेव ने अपनी सामर्थ्य से गौओं, अश्वों, ओषधियों, जलों और वनों को प्राप्त किया। अतः हे मनुष्यो! आप इन्द्रदेव के इन अत्यन्त पराक्रमपूर्ण कार्यों को देखें और उनकी अद्भुत शक्ति के प्रति आत्मविश्वास जगायें ॥५॥ भूरिकर्मणे वृषभाय वृष्णे सत्यशुष्माय सुनवाम सोमम् । य आदृत्या परिपन्थीव शूरोऽयज्वनो विभजन्नेति वेदः ॥६॥ जो शक्तिशाली इन्द्रदेव लालची दुष्टों, लुटेरों द्वारा एकत्रित किये गये धनों का तथा यज्ञीय कर्मों से रहित राक्षसी वृत्ति से युक्त दैत्यों के धनों का हस्तान्तरण करके ज्ञानियों को सम्मानित करते हैं, अर्थात् दुष्ट जनों से प्राप्त धन को श्रेष्ठ जनों में वितरित कर देते हैं, ऐसे श्रेष्ठ कर्म सम्पन्न करने वाले महान् दाता और सत्यबल सम्पन्न इन्द्रदेव के लिए हम सोम तैयार करें ॥६॥ तदिन्द्र प्रेव वीर्यं चकर्थ यत्ससन्तं वज्रेणाबोधयोऽहिम् । अनु त्वा पत्नीर्हषितं वयश्च विश्वे देवासो अमदन्ननु त्वा ॥७॥ हे इन्द्रदेव ! आपने सोते हुए वृत्र को वज्र के प्रहार से जगाया अर्थात् पराभूत किया । वस्तुतः यह आपका परमशौर्य है। ऐसे में आपको आनन्दित देखकर सभी देवताओं ने अपनी पलियों के साथ अतिहर्ष अनुभव किया ॥७॥ शुष्णं पिपुं कुयवं वृत्रमिन्द्र यदावधीर्वि पुरः शम्बरस्य । तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥८॥ हे इन्द्रदेव ! जब आपने शुष्ण, पिपु, कुयव और वृत्र का हनन किया और शम्बरासुर के गढ़ों को धूलिधूसरित किया (तोड़ा) तो मित्र, वरुण, अदिति, सिन्धु, पृथिवीं और दिव्यलोक हमारे उत्साह को भी संवर्धित करें ॥८ ॥

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