ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ३६

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ३६ ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः १० घोर अंगीरसा देवता - इन्द्रः । छंद - त्रिष्टुप इमामू षु प्रभृतिं सातये धाः शश्वच्छश्वदूतिभिर्यादमानः । सुतेसुते वावृधे वर्धनेभिर्यः कर्मभिर्महद्भिः सुश्रुतो भूत् ॥१॥ हे इन्द्रदेव ! सर्वदा संरक्षण-सामथ्र्यों से युक्त रहने वाले आप हमारे द्वारा की गई उत्तम स्तुतियों को सुनें तथा हविष्यान्न के रूप में समर्पित सोम को ग्रहण करें। आप महान् कर्मों से प्रसिद्ध हुए हैं। आप प्रत्येक सोम-सवन में पुष्टिकारक हव्यादि द्वारा प्रवर्धिन होते हैं॥१॥ इन्द्राय सोमाः प्रदिवो विदाना ऋभुर्येभिर्वृषपर्वा विहायाः । प्रयम्यमानान्प्रति षू गृभायेन्द्र पिब वृषधूतस्य वृष्णः ॥२॥ हम द्युलोक में इन्द्रदेव के लिए सोम प्राप्त करते हैं, जिसे पीकर इन्द्रदेव बलवान्, सुदृद्ध, महान् और दीप्तिमान होते हैं। हे इन्द्रदेव ! शत्रुओं को भयभीत करने वाले आप बल प्रदायक और पाषाणों द्वारा भलीप्रकार अभिषुत इस स्रोम का पान करें ॥२॥ पिबा वर्धस्व तव घा सुतास इन्द्र सोमासः प्रथमा उतेमे । यथापिबः पूर्व्या इन्द्र सोमाँ एवा पाहि पन्यो अद्या नवीयान् ॥३॥ हे इन्द्रदेव ! आप सोम-पान करके वर्द्धित हों। आपके निमित्त ये प्राचीन और नवीन सोम अभिषुत हुए हैं। हे स्तुत्य इन्द्रदेव ! जैसे आपने पूर्वकाल में सोमपान किया, वैसे ही आज इस नवीन सोम का पान करें ॥३॥ महाँ अमत्रो वृजने विरप्श्युग्रं शवः पत्यते धृष्ण्वोजः । नाह विव्याच पृथिवी चनैनं यत्सोमासो हर्यश्वममन्दन् ॥४॥ ये महान् इन्द्रदेव, शत्रुओं को परास्त करने वाले और अतिशय बलवान् हैं। इनका उम्र बल और ओज सर्वत्र विस्तृत होता हैं। जब वे सोम पीकर तृप्त होते हैं, तब पृथ्वी और द्युलोक भी उन्हें संभालने में समर्थ नहीं होते हैं॥४॥ महाँ उग्रो वावृधे वीर्याय समाचक्रे वृषभः काव्येन । इन्द्रो भगो वाजदा अस्य गावः प्र जायन्ते दक्षिणा अस्य पूर्वीः ॥५॥ ये महान् बल और पराक्रमशाली इन्द्रदेव शौर्य युक्त श्रेष्ठ कार्यों के लिए प्रसिद्ध हुए हैं। अभीष्ट प्रदान करने वालें और ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव की उत्तम स्तुतियों से प्रार्थना करते हैं। इनकी दिव्य रश्मियाँ पोषण प्रदान करने वालों हैं, इनके दान आदि कर्म भी बहुत प्रसिद्ध हैं॥५॥ प्र यत्सिन्धवः प्रसवं यथायन्नापः समुद्रं रथ्येव जग्मुः । अतश्चिदिन्द्रः सदसो वरीयान्यदीं सोमः पृणति दुग्धो अंशुः ॥६॥ जिस प्रकार समस्त नदियाँ कामनापूर्वक सुदूर समुद्र में जाकर मिलती हैं, उनका जल रथ के समान समुद्र की ओर गमन करता है । उसी प्रकार दुग्ध-मिश्रित अल्प सोमरस महान् इन्द्रदेव को परिपूर्ण करता है, जिससे तृप्त होकर इन्द्रदेव स्वर्ग में भी अधिक श्रेष्ठ और महान् हो जाते हैं॥६॥ समुद्रेण सिन्धवो यादमाना इन्द्राय सोमं सुषुतं भरन्तः । अंशुं दुहन्ति हस्तिनो भरित्रैर्मध्वः पुनन्ति धारया पवित्रैः ॥७॥ समुद्र से मिलने की अभिलाषा वाली नदियों जैसे समुद्र को परिपूर्ण करती हैं, वैसे ही अध्वर्युगण पाषाणयुक्त हाथों में इन्द्रदेव के लिए अभिषुत करके सोम तैयार करते हैं। अपनी भुजाओं से वे सोमलता का दोहन करते हैं। और छुने द्वारा एक धारा में सोम छानते हैं॥७॥ हृदा इव कुक्षयः सोमधानाः समी विव्याच सवना पुरूणि । अन्ना यदिन्द्रः प्रथमा व्याश वृत्रं जघन्वाँ अवृणीत सोमम् ॥८॥ इन्द्रदेव का उदर सरोवर की भाँति विस्तार वाला है। इन्हें अनेकों सो-सबन पूर्ण करते हैं। इन्द्रदेव ने सर्वप्रथम सोम रस रूप हविष्यान्न का भक्षण किया, तदनन्तर वृत्र को मारकर अन्य देवों के लिए सोम ग्रहण किया ॥८॥ आ तू भर माकिरेतत्परि ष्ठाद्विद्मा हि त्वा वसुपतिं वसूनाम् । इन्द्र यत्ते माहिनं दत्रमस्त्यस्मभ्यं तद्धर्यश्व प्र यन्धि ॥९॥ हे इन्द्रदेव ! हमें शीघ्र ही अपार धन-वैभव प्रदान करें। आपको धन- दान से मैन रोक सकता हैं? आपको हुम श्रेष्ठ धनाधिपति के रूप में जानते हैं। हैं हरिं संज्ञक अश्वों के स्वामी इन्द्रदेव! आपके पास जो भी हमारे लिए उपयोगी धन हो; वह हमें प्रदान करें ॥९॥ अस्मे प्र यन्धि मघवन्नृजीषिन्निन्द्र रायो विश्ववारस्य भूरेः । अस्मे शतं शरदो जीवसे धा अस्मे वीराञ्छश्वत इन्द्र शिप्रिन् ॥१०॥ हे ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव ! आप उदारचेता हैं। आप सबके द्वारा वरणीय प्रभूत धन-ऐश्वर्य हमें प्रदान करें। हैं। उत्तम शिरस्त्राण वाले इन्द्रदेव ! हमें जीने के लिए सौ वर्ष की आयु प्रदान करें तथा बहुत से वीर पुत्र प्रदान करें ॥१०॥ शुनं हुवेम मघवानमिन्द्रमस्मिन्भरे नृतमं वाजसातौ । शृण्वन्तमुग्रमूतये समत्सु घ्नन्तं वृत्राणि संजितं धनानाम् ॥११॥ हम अपने जीवन-संग्राम में संरक्षण प्राप्ति के लिए ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव या आवाहन करते हैं। वे इन्द्रदेव, पवित्रता प्रदान करने वाले, मनुष्यों के नियन्ता, हमारी स्तुतियों को सुनने वाले, उग्र, युद्धों में शत्रुओं का विनाश करने वाले और धनों के विजेता है ॥११॥

Recommendations