ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त २५

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त २५ ऋषि – आजीगर्तिः शुन: शेप स करित्रमो वैश्वामित्रों देवतरातः: देवता- वरुण । छंद- गायत्री यच्चिद्धि ते विशो यथा प्र देव वरुण व्रतम् । मिनीमसि द्यविद्यवि ॥१॥ हे वरुणदेव ! जैसे अन्य मनुष्य आपके व्रत-अनुष्ठान में प्रमाद करते हैं, वैसे ही हमसे भी आपके नियमों आदि में कभी-कभी प्रमाद हो जाता है। (कृपया इसे क्षमा करें) ॥१॥ मा नो वधाय हत्नवे जिहीळानस्य रीरधः । मा हृणानस्य मन्यवे ॥२॥ हे वरुणदेव ! आप अपने निरादर करने वाले का वध करने के लिए धारण किये गये शस्त्र के सम्मुख हमें प्रस्तुत न करें । अपनी क्रुद्ध अवस्था में भी हम पर कृपा करके क्रोध न करें ॥२॥ वि मृळीकाय ते मनो रथीरश्वं न संदितम् । गीर्भिर्वरुण सीमहि ॥३॥ हे वरुणदेव ! जिस प्रकार रथी वीर अपने थके घोड़ों की परिचर्या करते हैं, उसी प्रकार आपके मन को हर्षित करने के लिए हम स्तुतियों का गान करते हैं॥३॥ परा हि मे विमन्यवः पतन्ति वस्यइष्टये । वयो न वसतीरुप ॥४॥ (हे वरुणदेव !) जिस प्रकार पक्षी अपने घोसलों की ओर दौड़ते हुए गमन करते हैं, उसी प्रकार हमारी चंचल बुद्धियाँ धन प्राप्ति के लिए दूर-दूर दौड़ती हैं ॥४॥ कदा क्षत्रश्रियं नरमा वरुणं करामहे । मृळीकायोरुचक्षसम् ॥५॥ बल-ऐश्वर्य के अधिपति सर्वद्रष्टा वरुणदेव को कल्याण के निमित्त हम यहाँ (यज्ञस्थल में) कब बुलायेंगे ? (अर्थात् यह अवसर कब मिलेगा ?) ॥५॥ तदित्समानमाशाते वेनन्ता न प्र युच्छतः । धृतव्रताय दाशुषे ॥६॥ व्रत धारण करने वाले (हविष्यान्न) दाता यजमान के मंगल के निमित्त ये मित्र और वरुण देव हविष्यान्न की इच्छा करते हैं, वे कभी उसका त्याग नहीं करते । वे हमें बन्धन से मुक्त करें ॥६॥ वेदा यो वीनां पदमन्तरिक्षण पतताम् । वेद नावः समुद्रियः ॥७॥ हे वरुणदेव ! अन्तरिक्ष में उड़ने वाले पक्षियों के मार्ग को और समुद्र में संचार करने वाली नौकाओं के मार्ग को भी आप जानते हैं॥७॥ वेद मासो धृतव्रतो द्वादश प्रजावतः । वेदा य उपजायते ॥८॥ नियमधारक वरुणदेव प्रजा के उपयोगी बारह महीमों को जानते हैं और तेरहवें माह (अधिक मास) को भी जानते हैं ॥८॥ वेद वातस्य वर्तनिमुरोर्ऋष्वस्य बृहतः । वेदा ये अध्यासते ॥९॥ वे वरुणदेव अत्यन्त विस्तृत, दर्शनीय और अधिक गुणवान् वायु के मार्ग को जानते हैं। वे ऊपर द्युलोक में रहने वाले देवों को भी जानते हैं॥९॥ नि षसाद धृतव्रतो वरुणः पस्त्यास्वा । साम्राज्याय सुक्रतुः ॥१०॥ प्रकृति के नियमों का विधिवत् पालन कराने वाले, श्रेष्ठ कर्मों में सदैव निरत रहने वाले वरुणदेव प्रजाओं में साम्राज्य स्थापित करने के लिए बैठते हैं॥१०॥ अतो विश्वान्यद्भुता चिकित्वाँ अभि पश्यति । कृतानि या च कर्त्या ॥११॥ सब अद्भुत कर्मों की क्रिया-विधि जानने वाले वरुणदेव, जो कर्म सम्पादित हो चुके हैं और जो किये जाने हैं, उन सबको भली-भाँति देखते हैं॥११॥ स नो विश्वाहा सुक्रतुरादित्यः सुपथा करत् । प्र ण आयूंषि तारिषत् ॥१२॥ वे उत्तम कर्मशील अदिति पुत्र वरुणदेव हमें सदा श्रेष्ठ मार्ग की ओर प्रेरित करें और हमारी आयु को बढ़ाएँ ॥१२॥ बिभ्रद्वापिं हिरण्ययं वरुणो वस्त निर्णिजम् । परि स्पशो नि षेदिरे ॥१३॥ सुवर्णमय कवच धारण करके वरुणदेव अपने हृष्ट-पुष्ट शरीर को सुसज्जित करते हैं। शुभ्र प्रकाश किरणें उनके चारों ओर विस्तीर्ण होती हैं॥१३॥ न यं दिप्सन्ति दिप्सवो न द्रुह्वाणो जनानाम् । न देवमभिमातयः ॥१४॥ हिंसा करने की इच्छा वाले शत्रु-जन (भयाक्रान्त होकर ) जिनकी हिंसा नहीं कर पाते, लोगों के प्रति द्वेष रखने वाले, जिनसे द्वेष नहीं कर पाते- ऐसे (वरुणो देव को पापीजन स्पर्श तक नहीं कर पाते ॥१४॥ उत यो मानुषेष्वा यशश्चक्रे असाम्या । अस्माकमुदरेष्वा ॥१५॥ जिन वरुणदेव ने मनुष्यों के लिए विपुल अन्न - भंडार उत्पन्न किया है, उन्होंने ही हमारे उदर में पाचन सामर्थ्य भी स्थापित की है॥१५॥ परा मे यन्ति धीतयो गावो न गव्यूतीरनु । इच्छन्तीरुरुचक्षसम् ॥१६॥ उस सर्वद्रष्टा वरुणदेव की कामना करने वाली हमारी बुद्धियाँ, वैसे ही उन तक पहुँचती हैं, जैसे गौएँ गोष्ठ । (बाड़े) की ओर जाती हैं॥१६॥ सं नु वोचावहै पुनर्यतो मे मध्वाभृतम् । होतेव क्षदसे प्रियम् ॥१७॥ होता (अग्निदेव) के समान हमारे द्वारा लाकर समर्पित की गई हवियों का आप अग्निदेव के समान भक्षण करें, फिर हम दोनों वार्ता करेंगे ॥१७॥ दर्श नु विश्वदर्शतं दर्श रथमधि क्षमि । एता जुषत मे गिरः ॥१८॥ दर्शन योग्य वरुणदेव को उनके रथ के साथ हमने भूमि पर देखा है । उन्होंने हमारी स्तुतियाँ स्वीकारी हैं॥ १८ ॥ इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृळय । त्वामवस्युरा चके ॥१९॥ हे वरुणदेव ! आप हमारी प्रार्थना पर ध्यान दें, हमें सुखी बनायें । अपनी रक्षा के लिए हम आपकी स्तुति करते हैं ॥१९॥ त्वं विश्वस्य मेधिर दिवश्च ग्मश्च राजसि । स यामनि प्रति श्रुधि ॥२०॥ हे मेधावीं वरुणदेव ! आप द्युलोक, भूलोक और सारे विश्वपर आधिपत्य रखते हैं, आप हमारे आवाहन को स्वीकार कर 'हम रक्षा करेंगे- ऐसा प्रत्युत्तर प्रदान करें ॥२०॥ उदुत्तमं मुमुग्धि नो वि पाशं मध्यमं वृत । अवाधमानि जीवसे ॥२१॥ हे वरुणदेव ! हमारे उत्तम (ऊपर के) पाश को खोल दें, हमारे मध्यम पाश को काट दें और हमारे नीचे के पाश को हटाकर हमें उत्तम जीवन प्रदान करें ॥२१॥

Recommendations