ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ८४

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ८४ ऋषि – गौतमो राहुगणः: देवता- इन्द्र । छंद - १-६ अनुष्टुप, ७-९ उषणिक, १०-१२ पंक्ति, १३-१५ गायत्री, १६-१८ त्रिष्टुप, १९ वृहती, २० सतोवृहती असावि सोम इन्द्र ते शविष्ठ धृष्णवा गहि । आ त्वा पृणक्त्विन्द्रियं रजः सूर्यो न रश्मिभिः ॥१॥ हे शक्तिशाली, शत्रुओं को पराजित करने वाले इन्द्रदेव ! अन्तरिक्ष को अपनी किरणों से परिव्याप्त करने वाले सूर्यदेव के समान आप में भी सोमपान के बाद अपार शक्ति का संचार हो ॥१॥ इन्द्रमिद्धरी वहतोऽप्रतिधृष्टशवसम् । ऋषीणां च स्तुतीरुप यज्ञं च मानुषाणाम् ॥२॥ अपराजेय शक्ति से सम्पन्न इन्द्रदेव को उनके अश्व यज्ञशाला में पहुँचायें, जहाँ याजकों-ऋषियों द्वारा स्तुति गान हो रहा है॥२॥ आ तिष्ठ वृत्रहत्रथं युक्ता ते ब्रह्मणा हरी । अर्वाचीनं सु ते मनो ग्रावा कृणोतु वग्नुना ॥३॥ शत्रुओं को पराजित करने वाले है इन्द्रदेव! आप मंत्रों के द्वारा जोड़े गये घोड़ों वाले अपने रथ पर बैठे। सोम कुचलते हुए पत्थर की ध्वनि आपके मन को उसकी ओर आकर्षित करे (अर्थात् सोमरस पीने की इच्छा से यहाँ आयें) ॥३॥ इममिन्द्र सुतं पिब ज्येष्ठममर्त्य मदम् । शुक्रस्य त्वाभ्यक्षरन्धारा ऋतस्य सादने ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! अविनाशी, श्रेष्ठ, आनन्दवर्धक, सोमरस का पान करें । यज्ञस्थल में शोधित सोमरस आपकी ओर प्रवाहित हो रहा है (आपको समर्पित है) ॥४॥ इन्द्राय नूनमर्चतोक्थानि च ब्रवीतन । सुता अमत्सुरिन्दवो ज्येष्ठं नमस्यता सहः ॥५॥ हे ऋत्विजों ! आनन्दवर्धक, पवित्र सोमरस समर्पित करके विभिन्न स्तोत्रों से गुणगान करते हुए, आप सभी इन्द्रदेव की ही पूजा करो । सामर्थ्यशाली उन इन्द्रदेव को नमस्कार करो ॥५॥ नकिष्टुद्रथीतरो हरी यदिन्द्र यच्छसे । नकिष्वानु मज्मना नकिः स्वश्व आनशे ॥६॥ अश्वशक्ति से चालित रथ में बैठने वाले है इन्द्रदेव! आपसे अधिक पराक्रमी कोई दूसरा वीर नहीं है। आप जैसा कोई अन्य शक्तिशाली अश्वपालक (घोड़े का स्वामी नहीं है॥६॥ य एक इद्विदयते वसु मर्ताय दाशुषे । ईशानो अप्रतिष्कुत इन्द्रो अङ्ग ॥७॥ हे प्रिय याजको ! दानशील होने के कारण मनुष्यों को धन देने वाले, प्रतिकार न किये जाने वाले, वे अकेले इन्द्रदेव ही सभी (प्राणियों) के अधिपति हैं॥७॥ कदा मर्तमराधसं पदा क्षुम्पमिव स्फुरत् । कदा नः शुश्रवद्गिर इन्द्रो अङ्ग ॥८॥ वे इन्द्रदेव हमारी स्तुतियों को कब सुनेंगे ? और आराधना न करने वालों को क्षुद्र पौधे की भाँति कब नष्ट करेंगे ? ॥८ ॥ यश्चिद्धि त्वा बहुभ्य आ सुतावाँ आविवासति । उग्रं तत्पत्यते शव इन्द्रो अङ्ग ॥९॥ असंख्यों में से जो यजमान सोमयज्ञ करके आपकी आराधना करता है, उसे हे इन्द्रदेव! आप शीघ्र बल सम्पन्न बना देते हैं॥९॥ स्वादोरित्या विषूवतो मध्वः पिबन्ति गौर्यः । या इन्द्रेण सयावरीवृष्णा मदन्ति शोभसे वस्वीरनु स्वराज्यम् ॥१०॥ भक्तों पर कृपावृष्टि करने वाले इन्द्र (सूयी देव के साथ आनन्दपूर्वक गौएँ (किरणें) शोभा पाती हैं। वे भूमि पर स्वराज्य की मर्यादा के अनुरूप उत्पन्न सुस्वादु मधुर रस का पान करती हैं॥१०॥ ता अस्य पृशनायुवः सोमं श्रीणन्ति पृश्नयः । प्रिया इन्द्रस्य धेनवो वज्रं हिन्वन्ति सायकं वस्वीरनु स्वराज्यम् ॥११॥ इन्द्रदेव (सूर्य) का स्पर्श करने वाली धवल गौएँ (किरणें) दूध (पोषण) प्रदान करती हुईं, उनके वज्र को प्रेरणा देती हुई स्वराज्य में ही रहती हैं॥११॥ ता अस्य नमसा सहः सपर्यन्ति प्रचेतसः । व्रतान्यस्य सश्चिरे पुरूणि पूर्वचित्तये वस्वीरनु स्वराज्यम् ॥१२॥ ज्ञान युक्त वे (किरणें) उन (इन्द्रदेव) के प्रभाव का पूजन करती हैं, पूर्व में हो चुके को समझने वाली वे इन्द्रदेव द्वारा पहले किये गये कार्यों का स्मरण दिलाती हैं, और स्वराज्य के अनुशासन में ही रहती हैं॥१२॥ इन्द्रो दधीचो अस्थभिर्वृत्राण्यप्रतिष्कुतः । जघान नवतीर्नव ॥१३॥ अपराजित इन्द्रदेव ने दधीचि की हड्डियों से (बने हुए वज्र से) निन्यानवे (सैंकड़ों-हजारों) राक्षसों का संहार किया ॥१३॥ इच्छन्नश्वस्य यच्छिरः पर्वतेष्वपश्रितम् । तद्विदच्छर्यणावति ॥१४॥ इन्द्रदेव ने इच्छा करने से यह जान लिया कि (उस) अश्व का सिर पर्वतों के पीछे शर्यणावत् सरोवर में है और पूर्व मंत्रानुसार उसका वज्र बनाकर असुरों का वध कर दिया ॥१४॥ अत्राह गोरमन्वत नाम त्वष्टुरपीच्यम् । इत्था चन्द्रमसो गृहे ॥१५॥ मनीषियों ने त्वष्टा (संसार को तुष्ट करने वाले सूर्यदेव) का दिव्यतेज, गतिमान् चन्द्रमण्डल में अनुभव किया ॥१५॥ को अद्य युङ्क्ते धुरि गा ऋतस्य शिमीवतो भामिनो दुर्हणायून् । आसन्निषून्हृत्स्वसो मयोभून्य एषां भृत्यामृणधत्स जीवात् ॥१६॥ सामर्थ्यवान्, शत्रुओं पर क्रोध करने वाले, बाण धारण करके लक्ष्य भेद करने वाले इन्द्रदेव के रथ, जिसकी धुरी ऋत (सत्य अथवा यज्ञ) है, उसके साथ अश्वों को आज कौन योजित कर सकता है? जो इन (अश्वों) का पालन-पोषण करता है, वही जीवित (प्राणवान्) रहता है॥१६॥ क ईषते तुज्यते को बिभाय को मंसते सन्तमिन्द्रं को अन्ति । कस्तोकाय क इभायोत रायेऽधि ब्रवत्तन्वे को जनाय ॥१७॥ (इन्द्रदेव के सम्मुख युद्ध में) कौन भागता है? कौन मारा जाता है ? कौन भयभीत होता है? कौन सहायक होता है? समीपस्थ इन्द्रदेव को कौन जानता है ? कौन सन्तान के निमित्त, कौन पशुधन एवं ऐश्वर्य के निमित्त, कौन शारीरिक सुख के निमित्त और कौन सम्बन्धी जनों के हित के निमित्त इन्द्रदेव से उत्तम वचनों द्वारा स्तुति करता है? ॥१७॥ को अग्निमीट्टे हविषा घृतेन स्रुचा यजाता ऋतुभिध्रुवेभिः । कस्मै देवा आ वहानाशु होम को मंसते वीतिहोत्रः सुदेवः ॥१८॥ कौन अग्निदेव की स्तुति करते हैं? कौन सर्वदा सुचि पात्र से घृत और हवि से यज्ञ करते हैं ? देवगण किसके निमित्त आहूत धन को लाते हैं ? कौन इन दाता, उत्तम याजक, श्रेष्ठ इन्द्रदेव को जानते हैं ? ॥१८॥ त्वमङ्ग प्र शंसिषो देवः शविष्ठ मर्त्यम् । न त्वदन्यो मघवन्नस्ति मर्डितेन्द्र ब्रवीमि ते वचः ॥१९॥ हे प्रशंसनीय बलवान् इन्द्रदेव ! आप अपने तेज से तेजस्वी होकर साधक की प्रशंसा करते हैं। हे ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव ! आपके अलावा अन्य कोई सुख प्रदान करने वाला नहीं है, अतः हम सभी आपका स्तवन कर रहे हैं॥ १९॥ मा ते राधांसि मा त ऊतयो वसोऽस्मान्कदा चना दभन् । विश्वा च न उपमिमीहि मानुष वसूनि चर्षणिभ्य आ ॥२०॥ हे विश्व के आश्रयदाता इन्द्रदेव! आपके द्वारा प्रदान धन साधन हमारे लिए विनाशकारी न बने। रक्षा के लिए प्रेरित आपके द्वारा दी गई शक्तियाँ विध्वंस न करें। हे मानव हितैषी इन्द्रदेव ! हम सज्जन नागरिकों को सभी प्रकार की (लौकिक एवं दैवी) सम्पत्ति प्रदान करें ॥२०॥

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