ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त २९

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त २९ ऋषि – आजीगर्तिः शुनः शेप स करित्रमो वैश्वामित्रों देवतरातः: देवता- इन्द्र । छंद-पंक्तिः यच्चिद्धि सत्य सोमपा अनाशस्ता इव स्मसि । आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ ॥१॥ हे सत्य स्वरूप सोमपायी इन्द्रदेव! यद्यपि हम प्रशंसा पाने के पात्र तो नहीं हैं, तथापि हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव! हमें सहस्रों श्रेष्ठ गौएँ और घोड़े प्रदान करके सम्पन्न बनायें ॥१॥ शिप्रिन्वाजानां पते शचीवस्तव दंसना । आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ ॥२॥ हे इन्द्रदेव ! आप शक्तिशाली, शिरस्त्राण धारण करने वाले, बलों के अधीश्वर और ऐश्वर्यशाली हैं। आपका सदैव हम पर अनुग्रह बना रहे॥२॥ नि ष्वापया मिथूदृशा सस्तामबुध्यमाने । आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ ॥३॥ हे इन्द्रदेव ! दोनों दुर्गतियाँ (विपत्ति और दरिद्रता) परस्पर एक दूसरे को देखती हुई सो जायें। वे कभी न जागें, वे अचेत पड़ी रहें । हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! हमें सहस्रों श्रेष्ठ गौएँ और अश्व प्रदान करके सम्पन्न बनायें ॥३॥ ससन्तु त्या अरातयो बोधन्तु शूर रातयः । आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! हमारे शत्रु सोते रहें और हमारे वीर मित्र जागते रहें । हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! हमें सहस्रों श्रेष्ठ गौएँ और अश्व प्रदान करके सम्पन्न बनायें ॥४॥ समिन्द्र गर्दभं मृण नुवन्तं पापयामुया । आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! कपटपूर्ण वाणी बोलने वाले शत्रु रूप गधे को मार डालें । हे ऐश्वर्यशालिन् इन्द्रदेव ! हमें सहस्रों पुष्ट गौएँ और अश्व देकर सम्पन्न बनायें ॥५॥ पताति कुण्डुणाच्या दूरं वातो वनादधि । आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ ॥६॥ हे इन्द्रदेव ! विध्वंसकारी बवंडर वनों से दूर जाकर गिरें । हे ऐश्वर्यशालिन् इन्द्रदेव ! हमें सहस्रों पुष्ट गौएँ और अश्व देकर सम्पन्न बनायें ॥६॥ सर्वं परिक्रोशं जहि जम्भया कृकदाश्वम् । आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ ॥७॥ हे इन्द्रदेव ! हम पर आक्रोश करने वाले सब शत्रुओं को विनष्ट करें । हिंसकों का नाश करें। हे ऐश्वर्यशालिन् इन्द्रदेव ! हमें सहस्रों पुष्ट गौएँ और अश्व देकर सम्पन्न बनायें ॥७॥

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