ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ६०

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ६० ऋषि-नोधा गौतम देवता - अग्नि । छंद - त्रिष्टुप वह्नि यशसं विदथस्य केतुं सुप्राव्यं दूतं सद्योअर्थम् । द्विजन्मानं रयिमिव प्रशस्तं रातिं भरद्भगवे मातरिश्वा ॥१॥ हुविवाहक, यशस्वी, यज्ञ पताका सदृश लहराने वाले, उत्तम रक्षक, शीघ्र धन प्रदायक, देवताओं तक हवि पहुँचाने वाले, द्विज (अरणि मंथन और मंत्ररूप विद्या इन दो के द्वारा उद्भूत), धन के समान प्रशंसित अग्निदेव को वायुदेव ने भृगु का मित्र बनाया ॥१॥ अस्य शासुरुभयासः सचन्ते हविष्मन्त उशिजो ये च मर्ताः । दिवश्चित्पूर्वी न्यसादि होतापृच्छ्यो विश्पतिर्विक्षु वेधाः ॥२॥ देवों को हवि समर्पित करते हुए समुन्नत जीवन जीने वाले तथा सामान्य जीवन जीने वाले मनुष्य दोनों अग्निदेव के शासन में ही रहते हैं। पूजनीय, जलवर्षक, प्रजापालक, होतारूप अग्निदेव सूर्योदय से पहले ही (याजकों द्वारा यज्ञवेदी पर यज्ञाग्नि के रूप में) प्रकट होते हैं॥२॥ तं नव्यसी हृद आ जायमानमस्मत्सुकीर्तिर्मधुजिह्वमश्याः । यमृत्विजो वृजने मानुषासः प्रयस्वन्त आयवो जीजनन्त ॥३॥ जीवन-संग्राम में विजयी होते हुए, उन्नति की आकांक्षा करने वाले मनुष्य जिन अग्निदेव को उत्पन्न करते हैं, उन, प्रत्येक हृदय में विराजमान, मधुर वाणी वाले, उत्तम, यशस्वी अग्निदेव को हमारी नवीन स्तुतियाँ प्राप्त हों॥३॥ उशिक्पावको वसुर्मानुषेषु वरेण्यो होताधायि विक्षु । दमूना गृहपतिर्दम आँ अग्निर्भुवद्रयिपती रयीणाम् ॥४॥ धन-वैभव प्राप्त करने की कामना से पवित्रता प्रदान करने वाले ये अग्निदेव, याजकों द्वारा होतारूप में वरण किये जाते हैं। दोषों का दमन करने वाले, गृह पालक, श्रेष्ठ ऐश्वर्य के स्वामी, ये अग्निदेव यज्ञों में वेदी पर स्थापित किये जाते हैं॥४॥ तं त्वा वयं पतिमग्ने रयीणां प्र शंसामो मतिभिर्गोतमासः । आशुं न वाजम्भरं मर्जयन्तः प्रातर्मधू धियावसुर्जगम्यात् ॥५॥ हे अग्निदेव ! हम गौतम वंशज आपकी अपनी बुद्धि से प्रशंसा करते हैं। अन्न देने वाले, पवित्र करने वाले, अश्व की तरह बल, सम्पन्न आप, हमें धन प्राप्त करने का कौशल प्रदान करें और प्रात:काल (यज्ञ में) शीघ्र ही पधारें ॥५॥

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