ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त २९

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त २९ ऋषिः गौरिवीतिः शाक्त्य देवता - इन्द्र, उशना । छंद - त्रिष्टुप, त्र्यर्यमा मनुषो देवताता त्री रोचना दिव्या धारयन्त । अर्चन्ति त्वा मरुतः पूतदक्षास्त्वमेषामृषिरिन्द्रासि धीरः ॥१॥ हे इन्द्रदेव मनु के यज्ञ में जो तीन गुण हैं और अन्तरिक्ष में उत्पन्न तीन दिव्य तेज हैं, उन्हें मरुद्गणों ने धारण किया है। हे इन्द्रदेव ! पवित्र बलों से युक्त मरुद्गण आपकी स्तुति करते हैं। आप इन मरुतों के द्रष्टा हैं ॥१॥ अनु यदीं मरुतो मन्दसानमार्चन्निन्द्रं पपिवांसं सुतस्य । आदत्त वज्रमभि यदहिं हन्नपो यह्वीरसृजत्सर्तवा उ ॥२॥ जब मरुद्गणों ने अभिषुत सोम के पान से हर्षित इन्द्रदेव की स्तुति की, तब इन्द्रदेव ने वज्र हाथ में धारण करके वृत्र को मारा और उसके द्वारा रोके गये बृहद् जल-प्रवाहों को बहने के लिए मुक्त किया ॥२॥ उत ब्रह्माणो मरुतो मे अस्येन्द्रः सोमस्य सुषुतस्य पेयाः । तद्धि हव्यं मनुषे गा अविन्ददहन्नहिं पपिवाँ इन्द्रो अस्य ॥३॥ हे महान् मरुतो ! इन्द्रदेव सहित आप सब भली प्रकार अभिषुत हुए इस सोमरस का पान करें। इस सोम युक्त हवि को पान करते हुएआप यजमानों को गौएँ प्राप्त करायें। इसी सोम को पीकर इन्द्रदेव ने वृत्र को मारा था ॥३॥ आद्रोदसी वितरं वि ष्कभायत्संविव्यानश्चिद्भियसे मृगं कः । जिगर्तिमिन्द्रो अपजर्गुराणः प्रति श्वसन्तमव दानवं हन् ॥४॥ सोमपान करने के बाद इन्द्रदेव ने द्यावा-पृथिवी को निश्चल किया तथा आक्रामक मुद्रा में इन्द्रदेव ने मृगवत् माया करने वाले वृत्र को भयभीत किया। भय से छिपकर वह वृत्र लम्बी श्वास ले रहा था, तब इन्द्रदेव ने उसके प्रपंच को नष्ट कर उसे मार डाला ॥४॥ अध क्रत्वा मघवन्तुभ्यं देवा अनु विश्वे अददुः सोमपेयम् । यत्सूर्यस्य हरितः पतन्तीः पुरः सतीरुपरा एतशे कः ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! सूर्य की आगे बढ़ने वाली घोड़ियों (किरणों) को आपने एतश (अश्व संज्ञक शक्तिशाली प्रवाह) के साथ संयुक्त किया। आपके कार्य से हर्षित होकर विश्वेदेवों ने आपके पान के लिए सोम प्रस्तुत किया ॥५॥ नव यदस्य नवतिं च भोगान्त्साकं वज्रेण मघवा विवृश्चत् । अर्चन्तीन्द्रं मरुतः सधस्थे त्रैष्टुभेन वचसा बाधत द्याम् ॥६॥ महान् इन्द्रदेव ने शत्रु के निन्यानवे नगरों को एक ही क्षण में वज्र से ध्वस्त कर दिया और द्युलोक को थामकर स्थित किया, तब मरुद्गणों ने संग्राम-स्थल में त्रिष्टुप् छन्द युक्त ऋचाओं से इन्द्रदेव की स्तुतियाँ सम्पन्न की ॥६॥ सखा सख्ये अपचत्तूयमग्निरस्य क्रत्वा महिषा त्री शतानि । त्री साकमिन्द्रो मनुषः सरांसि सुतं पिबद्धृत्रहत्याय सोमम् ॥७॥ इन्द्रदेव के मित्ररूप अग्नि ने इन्द्र की कार्यक्षमता को बढ़ाने के लिए तीन सौ महिषों (प्राणधाराओं) को पकाया (परिपक्व किया) । वृत्र को मारने के लिए इन्द्रदेव ने मनुष्यों द्वारा निष्पन्न सोम के तीन पात्रों का एक साथ पान किया ॥७॥ त्री यच्छता महिषाणामघो मास्त्री सरांसि मघवा सोम्यापाः । कारं न विश्वे अह्वन्त देवा भरमिन्द्राय यदहिं जघान ॥८॥ हे इन्द्रदेव ! जब आपने तीन सौ महिषों (प्राण-प्रवाहों) को स्वीकार किया और सोम के तीन पात्रों का पान किया, तब आपने वृत्र को मारा । देवों ने कुशल कर्मकार की भाँति इन्द्रदेव का आवाहन किया ॥८॥ उशना यत्सहस्यैरयातं गृहमिन्द्र जूजुवानेभिरश्वैः । वन्वानो अत्र सरथं ययाथ कुत्सेन देवैरवनोर्ह शुष्णम् ॥९॥ हे इन्द्रदेव ! जब आप और 'उशना' (कवि-दूरदर्शी) दोनों संघर्षक और वेगवान् अश्वों के द्वारा घर गए, तब आपने शत्रुओं को मारा तथा कुत्स और देवों के साथ रथ पर आरूढ़ हुए। हे इन्द्रदेव ! आपने 'शुष्ण' असुर का भी हनन किया ॥९॥ प्रान्यच्चक्रमवृहः सूर्यस्य कुत्सायान्यद्वरिवो यातवेऽकः । अनासो दस्यूँरमृणो वधेन नि दुर्योण आवृण‌मृध्रवाचः ॥१०॥ हे इन्द्रदेव ! आपने सूर्य के चक्रों में एक चक्र को पृथक् कर दिया और अन्य चक्र 'कुत्स' को प्रतिष्ठा देने के लिए तैयार किया। आप नाकरहित (स्वर्गच्युत) और उच्च शब्द करने वाले दस्युओं को वज्र से मारकर संग्राम में विजयी हुए ॥१०॥ स्तोमासस्त्वा गौरिवीतेरवर्धन्नरन्धयो वैदथिनाय पिप्रुम् । आ त्वामृजिश्वा सख्याय चक्रे पचन्पक्तीरपिबः सोममस्य ॥११॥ हे इन्द्रदेव ! गौरिवीति के स्तोत्रों ने आपको प्रवर्द्धत किया, तो आपने विथि पुत्र जिश्व के लिए 'पिपु' (असुर) को मारा । तब ऋजिश्वा ने आपको मित्रता के पूरक रूप में आपके निमित्त पुरोडाश पकाकर निवेदित किया और उनके द्वारा निवेदित सोम का भी आपने पान किया ॥११॥ नवग्वासः सुतसोमास इन्द्रं दशग्वासो अभ्यर्चन्त्यकैः । गव्यं चिदूर्वमपिधानवन्तं तं चिन्नरः शशमाना अप व्रन् ॥१२॥ सौमों का अभिषवण करने वाले 'नवग्वा' और 'दशग्वा' ने इन्द्रदेव के अभिमुख अर्चनीय स्तोत्रों से स्तुतियाँ कीं। तब प्रशंसित इन्द्रदेव ने अपने सहायक मरुद्गणों द्वारा असुरों को मारकर छिपे हुए गौ-समूहों को मुक्त किया ॥१२॥ कथो नु ते परि चराणि विद्वान्वीर्या मघवन्या चकर्थ । या चो नु नव्या कृणवः शविष्ठ प्रेदु ता ते विदथेषु ब्रवाम ॥१३॥ हे ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव ! आपने जो पराक्रमयुक्त कार्य प्रकट किया है, उन्हें जानने वाले हम आपकी परिचर्या किस प्रकार करें ? हे बलशाली इन्द्रदेव ! आपने जो नये पराक्रम के कार्य सम्पादित किये हैं, आपके उन पराक्रमों का हम अपने यज्ञों में सम्यक् वर्णन करेंगे ॥१३॥ एता विश्वा चकृवाँ इन्द्र भूर्यपरीतो जनुषा वीर्येण । या चिन्नु वज्रिन्कृणवो दधृष्वान्न ते वर्ता तविष्या अस्ति तस्याः ॥१४॥ हे इन्द्रदेव ! आप शत्रुओं में अटल (अड़िग) संघर्षक हैं। आपने जन्म लेकर अपने बल से सम्पूर्ण भुवनों को बनायो। हे वज्रधारी इन्द्रदेव ! आपने शत्रुओं को मारते हुए जिन पराक्रमों को किया है, आपके उस बल का निवारण करने वाला अन्य कोई नहीं है ॥१४॥ इन्द्र ब्रह्म क्रियमाणा जुषस्व या ते शविष्ठ नव्या अकर्म । वस्त्रेव भद्रा सुकृता वसूयू रथं न धीरः स्वपा अतक्षम् ॥१५॥ हे अतीव बलशाली इन्द्रदेव! हमने आपके निमित्त जिन नवीन स्तोत्रों की रचना की हैं, हम लोगों द्वारा निवेदित उन स्तोत्रों को आप ग्रहण करें। हम स्तोता उत्तम कर्म करने वाले, बुद्धिमान् और धनाभिलाषी हैं। हम उत्तम वस्त्रों और उत्तम रथ के निर्माण की तरह इन स्तोत्रों का निर्माण करते हैं ॥१५॥

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