ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ४६

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ४६ ऋषि - प्रस्कण्व काण्वः देवता- आश्विनौ । छंद-गायत्रीः एषो उषा अपूर्व्या व्युच्छति प्रिया दिवः । स्तुषे वामश्विना बृहत् ॥१॥ यह प्रिय अपूर्व (अलौकिक) देवी उषा आकाश के तम का नाश करती हैं। देवी उषा के कार्य में सहयोगी हे अश्विनीकुमारो ! हम महान् स्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति करते हैं॥१॥ या दस्रा सिन्धुमातरा मनोतरा रयीणाम् । धिया देवा वसुविदा ॥२॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप शत्रुओं के नाशक एवं नदियों के उत्पत्तिकर्ता हैं। आप विवेकपूर्वक कर्म करने वालों को अपार सम्पत्ति देने वाले हैं॥२॥ वच्यन्ते वां ककुहासो जूर्णायामधि विष्टपि । यद्वां रथो विभिष्पतात् ॥३॥ हे अश्विनीकुमारो ! जब आपका रथ पक्षियों की तरह आकाश में पहुँचता है, तब प्रशंसनीय स्वर्गलोक में भी आप के लिये स्तोत्रों का पाठ किया जाता है॥३॥ हविषा जारो अपां पिपर्ति पपुरिर्नरा । पिता कुटस्य चर्षणिः ॥४॥ हे देवपुरुषो ! जलों को सुखाने वाले, पिता रूप, पोषणकर्ता, कार्यद्रष्टा सूर्यदेव (हमारे द्वारा प्रदत्त) हवि से आपको संतुष्ट करते हैं, अर्थात् सूर्यदेव प्राणिमात्र के पोषण के लिये अन्नादि पदार्थ उत्पन्न करके प्रकृति के विराट् यज्ञ में आहुति दे रहे हैं ॥४॥ आदारो वां मतीनां नासत्या मतवचसा । पातं सोमस्य धृष्णुया ॥५॥ असत्यहीन, मननपूर्वक वचन बोलने वाले हे अश्विनीकुमारो ! आप अपनी बुद्धि को प्रेरित करने वाले एवं संघर्ष शक्ति बढ़ाने वाले इस सोमरस का पान करें ॥५॥ या नः पीपरदश्विना ज्योतिष्मती तमस्तिरः । तामस्मे रासाथामिषम् ॥६॥ हे अश्विनीकुमारो ! जो पोषक अन्न हमारे जीवन के अन्धकार को दूर कर प्रकाशित करने वाला हो, वह हमें प्रदान करें ॥६॥ आ नो नावा मतीनां यातं पाराय गन्तवे । युञ्जाथामश्विना रथम् ॥७॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों अपना रथ नियोजितकर हमारे पास आयें। अपनी श्रेष्ठ बुद्धि से हमें दुःखों के सागर से पार ले चलें ॥७॥ अरित्रं वां दिवस्पृथु तीर्थे सिन्धूनां रथः । धिया युयुज्र इन्दवः ॥८॥ हे अश्विनीकुमारो ! आपके आवागमन के साधन द्युलोक (की सीमा) से भी विस्तृत हैं। (तीनों लोकों में आपकी गति है) नदियों, तीर्थ प्रदेशों में भी आपके साधन हैं, (पृथ्वी पर भी) आपके लिये रथ तैयार है । (आप किसी भी साधन से पहुँचने में समर्थ हैं। आप के लिये यहाँ विचारयुक्त कर्म द्वारा सोमरस तैयार किया गया है॥८॥ दिवस्कण्वास इन्दवो वसु सिन्धूनां पदे । स्वं वत्रिं कुह धित्सथः ॥९॥ कण्व वंशजों द्वारा तैयार सोम दिव्यता से परिपूर्ण है। नदियों के तट पर ऐश्वर्य रखा है। हे अश्विनीकुमारो ! अब आप अपना स्वरूप कहाँ प्रदर्शित करना चाहते हैं ? ॥९॥ अभूदु भा उ अंशवे हिरण्यं प्रति सूर्यः । व्यख्यज्जिह्वयासितः ॥१०॥ अमृतमयी किरणों वाले ये सूर्यदेव ! अपनी आभा से स्वर्णतुल्य प्रकट हो रहे हैं। इसी समय श्यामल अग्निदेव, ज्वालारूप जिह्वा से विशेष प्रकाशित हो चुके हैं। हे अश्विनीकुमारो! यहीं आपके शुभागमन का समय है ॥१०॥ अभूदु पारमेतवे पन्था ऋतस्य साधुया । अदर्शि वि सुतिर्दिवः ॥११॥ द्युलोक से अंधकार को पार करती हुई, विशिष्ट प्रभा प्रकट होने लगी है, जिससे यज्ञ के मार्ग अच्छी तरह से प्रकाशित हुए हैं । अतः हे अश्विनीकुमारो ! आपको आना चाहिये ॥११॥ तत्तदिदश्विनोरवो जरिता प्रति भूषति । मदे सोमस्य पिप्रतोः ॥१२॥ सोम के हर्ष से पूर्ण होने वाले अश्विनीकुमारों के उत्तम संरक्षण का स्तोतागण भली प्रकार वर्णन करते हैं॥१२॥ वावसाना विवस्वति सोमस्य पीत्या गिरा । मनुष्वच्छम्भू आ गतम् ॥१३॥ हे दीप्तिमान् (यजमानों के) मनों में निवास करने वाले, सुखदायक अश्विनीकुमारो ! मनु के समान श्रेष्ठ परिचर्या करने वाले यजमान के समीप निवास करने वाले (सुखप्रदान करने वाले हे अश्विनीकुमारो !) आप दोनों सोमपान के निमित्त एवं स्तुतियों के निमित्त इस योग में पधारें ॥१३॥ युवोरुषा अनु श्रियं परिज्मनोरुपाचरत् । ऋता वनथो अक्तुभिः ॥१४॥ हे अश्विनीकुमारो ! चारों ओर गमन करने वाले आप दोनों की शोभा के पीछे-पीछे देवी उषा अनुगमन कर रही हैं। आप रात्रि में भी यज्ञों का सेवन करते हैं॥१४॥ उभा पिबतमश्विनोभा नः शर्म यच्छतम् । अविद्रियाभिरूतिभिः ॥१५॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों सोमरस का पान करें । आलस्य न करते हुए हमारी रक्षा करें तथा हमें सुख प्रदान करें ॥१५॥

Recommendations