ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ३५

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ३५ ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः । देवता - इन्द्रः । छंद - त्रिष्टुप तिष्ठा हरी रथ आ युज्यमाना याहि वायुर्न नियुतो नो अच्छ । पिबास्यन्धो अभिसृष्टो अस्मे इन्द्र स्वाहा ररिमा ते मदाय ॥१॥ हे इन्द्रदेव ! हरि नामक अश्व जिस रथ में नियोजित होने हैंः नियत नामक अश्वों वाले वाय के समान आप उस रथ में बैठकर हमारी ओर आयें। हमारे द्वारा प्रदत्त हविष्यान्न रूपी सोमरस का पान करें। हम आपके मन को प्रमुदित करने के लिए स्वाहा सहित सोमरस प्रदान करते हैं। ॥१॥ उपाजिरा पुरुहूताय सप्ती हरी रथस्य धूर्ध्वा युनज्मि । द्रवद्यथा सम्भृतं विश्वतश्चिदुपेमं यज्ञमा वहात इन्द्रम् ॥२॥ अनेक जनों द्वारा जिनका आवाहन किया जाता है, ऐसे इन्द्रदेव के शीघ्रतापूर्वक आगमन के लिए वेगवान् दो अश्वों को रथ के अग्रभाग से संयोजित करते हैं। वे अश्व इन्द्रदेव को सब ओर से इस सर्वसाधन- सम्पन्न देवयज्ञ में अविलम्ब ले आयें ॥२॥ उपो नयस्व वृषणा तपुष्पोतेमव त्वं वृषभ स्वधावः । ग्रसेतामश्वा वि मुचेह शोणा दिवेदिवे सदृशीरद्धि धानाः ॥३॥ हे इष्टवर्धक और अन्नवान् इन्द्रदेव! आप बलवान् और शत्रुओं से रक्षा करने वाले अश्यों को समीप ले आयें तथा इस यजमान की रक्षा करें । अपने रक्तवर्ण अश्वों को यहाँ विमुक्त करें, ताकि वे आहार ग्रहण कर सके । आग प्रतिदिन उत्तम विष्यान्न अहण करें ॥३॥ ब्रह्मणा ते ब्रह्मयुजा युनज्मि हरी सखाया सधमाद आशू । स्थिरं रथं सुखमिन्द्राधितिष्ठन्प्रजानन्विद्वाँ उप याहि सोमम् ॥४॥ हे इन्द्रदेव! मन्त्रों से नियोजित होने वाले, युद्धों में कीर्ति सम्पन्न, मित्र- भाव सम्पन्न हरि नामक दोनों अश्वों। कों हम मन्त्रों में योजित करते हैं। हे इन्द्रदेव ! सुदृढ़ और सुखकारौं रथ में अधिष्ठित होकर आप सोमयाग के समीप आयें। आप सब यज्ञो को जानने वाले विद्वान् हैं॥४॥ मा ते हरी वृषणा वीतपृष्ठा नि रीरमन्यजमानासो अन्ये । अत्यायाहि शश्वतो वयं तेऽरं सुतेभिः कृणवाम सोमैः ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! आपके बलवान् और सुन्दर पृष्ठभाग वाले हर नामक अच्चों को अन्य यजमान संतुष्ट करें। हम अभिषुत सोमरस द्वारा आपको भलीप्रकार तृप्त करते हैं। आप अनेक यजमानों को छोड़कर हमारे पास आयें ॥५॥ तवायं सोमस्त्वमेह्यर्वाछश्वत्तमं सुमना अस्य पाहि । अस्मिन्यज्ञे बर्हिष्या निषद्या दधिष्वेमं जठर इन्दुमिन्द्र ॥६॥ हे इन्द्रदेव ! यह सौमरस आपके निमित्त हैं। आप हमारी ओर अभिमुख हों तथा प्रफुल्लित मन से इस सोम का पान करे । हमारे इस यज्ञ में कुशों पर बैठकर इस सौम को अपने उदर में धारण करें ॥६॥ स्तीर्णं ते बर्हिः सुत इन्द्र सोमः कृता धाना अत्तवे ते हरिभ्याम् । तदोकसे पुरुशाकाय वृष्णे मरुत्वते तुभ्यं राता हवींषि ॥७॥ हे इन्द्रदेव ! आपके निमित्त कुश का आसन बिछाया गया और सोमरस निचोड़ कर तैयार किया गया हैं। आपके दोनों अश्नों के नाने के लिए धान्य तैयार है। यह यज्ञ आपका निवास स्थान हैं। आप बहुत सामर्थ्यवान्, इष्टवर्धक और मरुतों की सेना से युक्त हैं। आपके निमित्त ये हवियों दी गई हैं॥७॥ इमं नरः पर्वतास्तुभ्यमापः समिन्द्र गोभिर्मधुमन्तमक्रन् । तस्यागत्या सुमना ऋष्व पाहि प्रजानन्विद्वान्पथ्या अनु स्वाः ॥८॥ हे इन्द्रदेव ! आपके निमित्त ऋत्विग्गगों ने पाषाण से निष्पन्न, जलसंयुक्त सोमरस तैयार किया हैं। दुग्ध मिश्रित करके उसे अतिशय मधुर बनाया है। हे सर्व द्रष्टा और विद्वान् इन्द्रदेव ! आप हमारी स्तुतियों को जानते हुए उत्तम मन में इसका पान करें ॥८॥ याँ आभजो मरुत इन्द्र सोमे ये त्वामवर्धन्नभवन्गणस्ते । ें तेभिरेतं सजोषा वावशानोऽग्नेः पिब जिह्वया सोममिन्द्र ॥९॥ हे इन्द्रदेव !! जिन मरुतों को आप सोमयाग में सम्मानित करते हैं, जो आपको प्रवर्धत करते हैं, जो आपके सहायक होते हैं, उन सबके साथ सोम की अभिलाषा करते हुए आप अग्नि रूप जिह्वा से इस सोम का पान करें ॥९॥ इन्द्र पिब स्वधया चित्सुतस्याग्नेर्वा पाहि जिह्वया यजत्र । अध्वर्योर्वा प्रयतं शक्र हस्ताद्धोतुर्वा यज्ञं हविषो जुषस्व ॥१०॥ हे यज्ञनीय इन्द्रदेव ! अपने पराक्रम से अभिपुत सोम का पान करें अथवा आँन रूप जिहा से सोम का पान करें। अध्वर्यु के हाथ में प्रदत्त सौम का पान करें अथवा होता के हव्यादि युक्त यज्ञ का सेवन करें ॥१०॥ शुनं हुवेम मघवानमिन्द्रमस्मिन्भरे नृतमं वाजसातौ । शृण्वन्तमुग्रमूतये समत्सु घ्नन्तं वृत्राणि संजितं धनानाम् ॥११॥ हम अपने जीवन-संग्राम में संरक्षण के लिए ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव का आवाहन करते है ये पवित्र कर्ता, मनुष्यों के नियन्ता, स्तुतियों के श्रवणकर्ता, उग्र, शत्रुओं का हनन करने वाले तथा धन-सम्पदाओं को जीतने वाले हैं॥११॥

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