Bhikshuka Upanishad (भिक्षुक उपनिषद)

॥ श्री हरि ॥ ॥अथ भिक्षुकोपनिषत् ॥ ॥ हरिः ॐ ॥ भिक्षूणां पटलं यत्र विश्रान्तिमगमत्सदा । तन्त्रैपदं ब्रह्मतत्त्वं ब्रह्ममात्रं करोतु माम् ॥ ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमदुच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ वह परब्रह्म पूर्ण है और वह जगत ब्रह्म भी पूर्ण है, पूर्णता से ही पूर्ण उत्पन्न होता है। यह कार्यात्मक पूर्ण कारणात्मक पूर्ण से ही उत्पन्न होता है। उस पूर्ण की पूर्णता को लेकर यह पूर्ण ही शेष रहता है। ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ भगवान् शांति स्वरुप हैं अतः वह मेरे अधिभौतिक, अधिदैविक और अध्यात्मिक तीनो प्रकार के विघ्नों को सर्वथा शान्त करें । ॥ हरिः ॐ ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥ भिक्षुकोपनिषत् ॥ भिक्षुक उपनिषद ॐ अथ भिक्षूणां मोक्षार्थिनां कुटीचकबहूदकहंसपरमहंसाश्वेति चत्वारः । ॥१॥ मोक्षार्थी भिक्षुओं की चार श्रेणियाँ होती हैं-कुटीचक, बहूदक, हंस और परमहंस ॥१॥ कुटीचका नाम गौतमभरद्वाजयाज्ञवल्क्यवसिष्ट - प्रभृतयोऽष्टौ ग्रासांश्वरन्तो योगमार्गे मोक्षमेव प्रार्थयन्ते । ॥२॥ कुटीचक-भिक्षु गौतम, भरद्वाज, याज्ञवल्क्य और वसिष्ठ आदि के समान अष्टग्रास भोजन लेकर योगमार्ग में (योग के माध्यम से) मोक्ष के लिए प्रयत्न करते हैं॥२॥ अथ बहूदका नाम त्रिदण्डकमण्डलुशिखा - यज्ञोपवीतकाषायवस्त्रधारिणो ब्र रह्मर्षिगृहे मधुमांसं वर्जयित्वाष्टौ ग्रासान्भैक्षाचरणं कृत्वा योगमार्गे मोक्षमेव प्रार्थयन्ते । ॥३॥ बहूदक-भिक्षु त्रिदण्ड, कमण्डलु, शिखा, यज्ञोपवीत और काषाय वस्त्र धारण करते हैं तथा मधु-मांस को छोड़कर ब्रह्मर्षि (किसी सदाचारी नैष्ठिक) के घर में भिक्षाचरण द्वारा आठ ग्रास भोजन ग्रहण करते हुए योगमार्ग द्वारा मोक्षानुसंधान करते हैं॥३॥ अथ हंसा नाम ग्राम एकरात्रं नगरे पञ्चरात्रं क्षेत्रे सप्तरात्रं तदुपरि न वसेयुः । गोमूत्रगोमयाहारिणो नित्यं चान्द्रायणपरायणा योगमार्गे मोक्षमेव प्रार्थयन्ते । ॥४॥ हंस नामक-भिक्षु किसी गाँव में एक रात्रि, नगर में पंचरात्रि तथा (तीर्थ) क्षेत्र में सात रात्रि से अधिक निवास नहीं करते। वे गोमूत्र और गोमय (गोबर) का आहार ग्रहण करते हुए नित्य चान्द्रायण व्रत परायण होकर योग मार्ग से मोक्ष की खोज करते हैं ॥४॥ अथ परमहंसा नाम संवर्तकारुणिश्वेतकेतुजडभरत - दत्तात्रेयशुकवामदेवहारीतकप्रभृतयोऽष्टौ ग्रा रासांश्वरन्तो योगमार्गे मोक्षमेव प्रार्थयन्ते । वृक्षमूले शून्यगृहे श्मशानवासिनो वा साम्बरा वा दिगम्बरा वा । न तेषां धर्माधर्मो लाभालाभौ शुद्धाशुद्धौ द्वैतवर्जिता समलोष्टाश्मकाञ्चनाः सर्ववर्णेषु भैक्षाचरणं कृत्वा सर्वत्रात्मैवेति पश्यन्ति । अथ जातरूपधरा निर्द्वन्द्वा निष्परिग्रहाः शुक्लध्यानपरायणा आत्मनिष्टाः प्राणसंधारणार्थे यथोक्तकाले भैक्षमाचरन्तः शून्यागारदेवगृह - तृणकूटवल्मीकवृक्षमूलकुलालशालाग्निहोत्रशालानदीपुलिन - गिरिकन्दरकुहरकोटरनिर्झरस्थण्डिले तत्र ब्रह्ममार्गे सम्यक्सम्पन्नाः शुद्धमानसाः परमहंसाचरणेन संन्यासेन देहत्यागं कुर्वन्ति ते परमहंसा नामेत्युपनिषत् ॥ ॥५॥ परमहंस नामक भिक्षु संवर्तक, आरुणि, श्वेतकेतु, जड़भरत, दत्तात्रेय, शुकदेव, वामदेव और हारीतक आदि की तरह अष्टग्रास भोजन ग्रहण करके योगमार्ग में विचरण करते हुए मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। परमहंसों का निवास स्थान वृक्षमूल, शून्यगृह अथवा श्मशान होता है। वे वस्त्रयुक्त (साम्बर) अथवा दिगम्बर होते हैं। उनके लिए धर्म-अधर्म, लाभ-अलाभ कुछ नहीं होता। वे शुद्ध और अशुद्ध द्वैत के सन्दर्भ में कोई अभिमत नहीं रखते। वे मिट्टी, पत्थर और सोने में कोई भेद नहीं करते अर्थात् उनके लिए ये सभी समान हैं। सभी वर्गों में वे भिक्षाचरण करते हैं एवं सर्वत्र अपनी आत्मा का ही दर्शन करते हैं। वे जातरूप धर (पैदा हुए बालक की तरह निर्लिप्त, निर्विकार, शुचि-अशुचि भाव से परे) होते हैं। वे (परमहंस) निर्द्वन्द्व, परिग्रहरहित, शुक्ल-ध्यान परायण, आत्मनिष्ठ, जीवन धारण करने की इच्छा से यथोक्त काल में भिक्षाटन करने वाले, एकान्त घर, देवस्थल, झोपड़ी, वल्मीक (बाँबी), वृक्षमूल, कुलालशाला (कुम्भकार गृह), यज्ञशाला, नदीतट, पर्वत स्थित गुहा, टीला, गड्ढा, झरना आदि किसी भी स्थल पर निवास करते हैं। वहाँ निवास करते हुए वे भली प्रकार (आत्मिक विभूतियों से) सम्पन्न होकर शुद्ध मन से परमहंस वृत्ति का पालन करते हुए संन्यास द्वारा शरीर त्याग करते हैं। वे (ऐसा करने वाले) परमहंस (कहलाते) हैं- ऐसा इस उपनिषद् को अभिमत है॥५॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥ शान्तिपाठ ॥ हरिः ॐ ॥ ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमदुच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ वह परब्रह्म पूर्ण है और वह जगत ब्रह्म भी पूर्ण है, पूर्णता से ही पूर्ण उत्पन्न होता है। यह कार्यात्मक पूर्ण कारणात्मक पूर्ण से ही उत्पन्न होता है। उस पूर्ण की पूर्णता को लेकर यह पूर्ण ही शेष रहता है। ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ भगवान् शांति स्वरुप हैं अतः वह मेरे अधिभौतिक, अधिदैविक और अध्यात्मिक तीनो प्रकार के विघ्नों को सर्वथा शान्त करें । ॥ इति भिक्षुकोपनिषत् ॥ ॥ भिक्षुक उपनिषद समात ॥

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