ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १६३

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १६३ ऋषि - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अश्वः । छंद - त्रिष्टुप यदक्रन्दः प्रथमं जायमान उद्यन्त्समुद्रादुत वा पुरीषात् । श्येनस्य पक्षा हरिणस्य बाहू उपस्तुत्यं महि जातं ते अर्वन् ॥१॥ हे अर्वन् (चंचल गतिवाले) ! बाज़ के पंखों तथा हिरन के पैरों की तरह गतिशील आप जब प्रथम समुद्र से उत्पन्न हुए, तब उत्पत्ति स्थान से प्रकट होकर आप शब्द करने लगे, तब आपकी महिमा स्तुत्य हुई ॥१॥ यमेन दत्तं त्रित एनमायुनगिन्द्र एणं प्रथमो अध्यतिष्ठत् । गन्धर्वो अस्य रशनामगृभ्णात्सूरादश्वं वसवो निरतष्ट ॥२॥ वसुओं ने सूर्यमण्डल से अश्व (तीव्र गति से संचार करने वाली ऊर्जा रश्मियों को निकाला। तीनों लोकों में विचरने वाले वायु ने यम के द्वारा प्रदान किये गये अश्व को रथ में (कर्म में नियोजित किया। सर्व प्रथम इस अश्व पर इन्द्रदेव चढ़े और गन्धर्व ने इसकी लगाम सँभाली (ऐसे अश्व की हम स्तुति करते हैं ।) ॥२॥ असि यमो अस्यादित्यो अर्वन्नसि त्रितो गुह्येन व्रतेन । असि सोमेन समया विपृक्त आहुस्ते त्रीणि दिवि बन्धनानि ॥३॥ हे अर्वन् ! अपने गुप्त व्रतों (जो प्रकट नहीं हैं, ऐसी विशेषताओं) के कारण आप यम हैं, आदित्य हैं, त्रित (तीनों लोकों अथवा तीनों आयामों) में संव्याप्त हैं। सोम (पोषक प्रवाह) के साथ आप एक रूप हैं। द्युलोक में स्थित आपके तीन बन्धन (ऋक्, यजु, साम रूप) कहे गये हैं॥३॥ त्रीणि त आहुर्दिवि बन्धनानि त्रीण्यप्सु त्रीण्यन्तः समुद्रे । उतेव मे वरुणश्छन्त्स्यर्वन्यत्रा त आहुः परमं जनित्रम् ॥४॥ हे अर्वन् (चंचल प्रकृति वाले) ! आपको श्रेष्ठ उत्पादक सूर्य कहा गया है। दिव्य लोक में, जलों में तथा अन्तरिक्ष में आपके तीन-तीन बन्धन कहे गये हैं। आप वरुण रूप में हमारी प्रशंसा करते हैं ॥४॥ इमा ते वाजिन्नवमार्जनानीमा शफानां सनितुर्निधाना । अत्रा ते भद्रा रशना अपश्यमृतस्य या अभिरक्षन्ति गोपाः ॥५॥ हे वाजिन् (बलशाली मेघ) ! आपके मार्जन (सिंचन) करने वाले साधनों को हम देखते हैं। आपके खुरों (धाराओं के आधात) से खुदे हुए यह स्थान देखते हैं। यहाँ आपके कल्याणकारी रज्जु (नियंत्रक सूत्र) हैं, जो रक्षा करने वाले हैं, जो कि इस ऋत (सनातन सत्य-यज्ञ) की रक्षा करते हैं॥५॥ आत्मानं ते मनसारादजानामवो दिवा पतयन्तं पतंगम् । शिरो अपश्यं पथिभिः सुगेभिररेणुभिर्जेहमानं पतत्रि ॥६॥ हे अश्व (तीव्र गति से संचार करने वाले वायुभूत हव्य) ! नीचे के स्थान से आकाश मार्ग द्वारा सूर्य की तरफ जाते हुए आपकी आत्मा को हम विचारपूर्वक जानते हैं। सरलतापूर्वक जाने योग्य, धूलि रहित मार्गों से जाते हुए आपके नीचे की ओर आने वाले सिरों (श्रेष्ठ भागों) को भी हम देखते हैं॥६॥ अत्रा ते रूपमुत्तममपश्यं जिगीषमाणमिष आ पदे गोः । यदा ते मर्ती अनु भोगमानळादिद्द्वसिष्ठ ओषधीरजीगः ॥७॥ हे अश्व (तीव्र गति से संचार करने वाले वायुभूत हव्य) ! आपके यज्ञ की कामना वाले श्रेष्ठ स्वरूप को हम सूर्य मण्डल में विद्यमान देखते हैं। यजमान ने जिस समय उत्तम हवियों को आपके निमित्त समर्पित किया, उसके बाद ही आपने हव्य रूप ओषधियों को ग्रहण किया ॥७॥ अनु त्वा रथो अनु मर्यो अर्वन्ननु गावोऽनु भगः कनीनाम् । अनु व्रातासस्तव सख्यमीयुरनु देवा ममिरे वीर्यं ते ॥८॥ हे अर्वन् (चंचल प्रकृति वाले यज्ञाग्नि) । रथ (मनोरथ) आपके अनुगामी हैं। आपके अनुगामी मनुष्य, कन्याओं का सौभाग्य तथा गौएँ हैं। मनुष्य समुदाय ने आपकी मित्रता को प्राप्त किया तथा देवगणों ने आपके शौर्य को वर्णित किया है॥८॥ हिरण्यशृङ्गोऽयो अस्य पादा मनोजवा अवर इन्द्र आसीत् । देवा इदस्य हविरद्यमायन्यो अर्वन्तं प्रथमो अध्यतिष्ठत् ॥९॥ सबसे पहले स्वर्ण मुकुट धारण करके अश्व पर आरूढ़ होने वाले इन्द्रदेव थे। इस अश्व के पैर लोहे के समान दृढ़ और मन के सदृश वेगवान् हैं । देवताओं ने ही इसके हवि रूप भोजन को ग्रहण किया ॥९॥ ईर्मान्तासः सिलिकमध्यमासः सं शूरणासो दिव्यासो अत्याः । हंसा इव श्रेणिशो यतन्ते यदाक्षिषुर्दिव्यमज्ममश्वाः ॥१०॥ जब पुष्ट जंघाओं और वक्ष वाले, मध्य भाग (कटिभाग) में पतले, बलशाली, सूर्य के रथ को खींचने वाले और लगातार चलने वाले अश्व (किरणे) पंक्तिबद्ध होकर हंसों के समान चलते हैं, तब वे स्वर्ग मार्ग में दिव्यता को प्राप्त होते हैं॥१०॥ तव शरीरं पतयिष्ण्वर्वन्तव चित्तं वात इव ध्रजीमान् । तव शृङ्गाणि विष्ठिता पुरुत्रारण्येषु जर्भुराणा चरन्ति ॥११॥ हे अर्वन् (चंचल प्रकृति वाले अग्निदेव) ! आपका शरीर ऊर्ध्वगमन करने वाला और चित्त वायु के समान वेगवाला है। आपकी विशेष प्रकार से स्थित दीप्तियाँ वनों में दावानल के रूप में व्याप्त हैं॥ ११॥ उप प्रागाच्छसनं वाज्यर्वा देवद्रीचा मनसा दीध्यानः । अजः पुरो नीयते नाभिरस्यानु पश्चात्कवयो यन्ति रेभाः ॥१२॥ यशस्वी, मन के समान तीव्र गति से चलायमान, तेजस्वी अश्व (सूक्ष्मीकृत हव्या ऊपर की ओर देवमार्ग को जाता है। अज (अर्थात् कृष्ण वर्ण धूम्र) आगे चलता है। (सूक्ष्मीकृत हुव्य का) नाभि (नाभिक न्यूक्लियस-मुख्य भाग) उसका अनुगमन करता है। पीछे – पीछे पाट करते हुए स्तोता चलते हैं (मंत्रों का पाठ होता है ।) ॥१२॥ उप प्रागात्परमं यत्सधस्थमर्वां अच्छा पितरं मातरं च । अद्या देवाञ्जुष्टतमो हि गम्या अथा शास्ते दाशुषे वार्याणि ॥१३॥ शक्तिशाली अर्वन् (चंचल प्रकृति वाले सूक्ष्मीकृत हव्यो ! सर्वश्रेष्ठ उच्च स्थान को प्राप्त करके पालक और सम्माननीय माता-पिता (द्यावा- पृथिवी) से मिलते हैं। हे याजक! आप भी सद्‌गुणों से सुशोभित होते हुए देवत्व को प्राप्त करें । देवताओं से अपार वैभव उपलब्ध करें ॥१३॥

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