ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त १३

ऋग्वेद–चतुर्थ मंडल सूक्त १३ ऋषि-वामदेवो गौतमः देवता–अग्नि । छंद-त्रिष्टुप, प्रत्यग्निरुषसामग्रमख्यद्विभातीनां सुमना रत्नधेयम् । यातमश्विना सुकृतो दुरोणमुत्सूर्यो ज्योतिषा देव एति ॥१॥ सुन्दर मनवाले अग्निदेव उषाओं के पूर्व ही रल के सदृश देदीप्यमान अपने ओज को फैलाते हैं। हे अश्विनीकुमारो! आप यज्ञादि सत्कर्म करने वालों के गृह में गमन करें। तेजस्वी सूर्यदेव उदित हो रहे हैं ॥१॥ ऊर्ध्वं भानुं सविता देवो अश्रेद्रप्सं दविध्वद्गविषो न सत्वा । अनु व्रतं वरुणो यन्ति मित्रो यत्सूर्य दिव्यारोहयन्ति ॥२॥ जिस प्रकार बलशाली वृषभ गौओं की इच्छा करके धूल को उड़ाते हैं, उसी प्रकार तेजस्वी आदित्य अपनी रश्मियों को ऊपर की ओर फैलाते हैं। जब रश्मियाँ आदित्य को द्युलोक में चढ़ाती हैं, तब मित्रावरुण अपने-अपने कर्मों का अनुगमन करते हैं ॥२॥ यं सीमकृण्वन्तमसे विपृचे ध्रुवक्षेमा अनवस्यन्तो अर्थम् । तं सूर्यं हरितः सप्त यह्वीः स्पशं विश्वस्य जगतो वहन्ति ॥३॥ अपने स्थान पर दृढ़ रहने वाले तथा अपने कर्म का परित्याग न करने वाले देवताओं ने चारों तरफ की तमिस्री को नष्ट करने के लिए जिन आदित्यदेव का सृजन किया, उन सम्पूर्ण जगत् का अवलोकन करने वाले आदित्यदेव को सात अश्व वहन करते हैं ॥३॥ वहिष्ठेभिर्विहरन्यासि तन्तुमवव्ययन्नसितं देव वस्म । दविध्वतो रश्मयः सूर्यस्य चर्मेवावाधुस्तमो अप्स्वन्तः ॥४॥ हे आलोकवान् सूर्यदेव ! आप अपनी रश्मियों को बिखेरते हुए तथा काली रात रूपी आवरण को नष्ट करते हुए अपने शक्तिशाली अश्वों द्वारा सब जगह गमन करते हैं। कम्पायमान आपकी रश्मियाँ आकाश के बीच में चर्म के समान विद्यमान अंधकार को दूर करती हैं ॥४॥ अनायतो अनिबद्धः कथायं न्य‌ङ्गुत्तानोऽव पद्यते न । कया याति स्वधया को ददर्श दिवः स्कम्भः समृतः पाति नाकम् ॥५॥ बिना आश्रय तथा बन्धन के ये सूर्यदेव किस शक्ति से ऊपर की ओर गमन करते हैं? वे नीचे क्यों नहीं पतित होते? इसे किसने देखा है ? द्युलोक के आश्रय रूप होकर वे सत्यरूप सूर्यदेव स्वर्ग की सुरक्षा करते हैं ॥५॥

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