ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १०१

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १०१ ऋषि - कुत्स अंगिरसः: देवता-इन्द्र,। छंद -जगती, ८-११ त्रिष्टुप प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना । अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥१॥ हे ऋत्विग्गण ! श्रेष्ठ इन्द्रदेव की, हविष्यान्न देकर अर्चना करो। 'जश्व' की सहायता से, कृष्णासुर की गर्भिणी स्त्रियों के साथ उसका वध करने वाले, दायें हाथ में वज्र धारण करने वाले, मरुद्गणों की सेना के साथ विद्यमान रहने वाले, शक्ति सम्पन्न, उन इन्द्रदेव का अपने संरक्षण की कामना करने वाले हम यज्ञमान मित्रभाव से आवाहन करते हैं॥१॥ यो व्यंसं जाहृषाणेन मन्युना यः शम्बरं यो अहन्पिप्रुमव्रतम् । इन्द्रो यः शुष्णमशुषं न्यावृणङ्गरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥२॥ जिन इन्द्रदेव ने सर्वप्रथम वृत्रासुर के कंधों को काटा, पश्चात् धर्म नियमों से विहीन पिघु का हनन किया। प्रजा के शोषक शम्बर और शुष्ण दोनों दैत्यों का वध किया, इस प्रकार सभी दैत्यों के नाशक वे इन्द्रदेव हैं। मित्रता के लिए मरुत् के सहयोगी ऐसे इन्द्रदेव का हम आवाहन करते हैं॥३॥ यस्य द्यावापृथिवी पौंस्यं महद्यस्य व्रते वरुणो यस्य सूर्यः । यस्येन्द्रस्य सिन्धवः सश्चति व्रतं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥३॥ जिनकी मर्थ्यशक्ति से स्वर्गलोक, भूलोक, वरुण, सूर्य और सरिताएँ अपने-अपने व्रत नियमों में आरूढ़ हैं। मरुतों से युति ऐसे इन्द्रदेव को मैत्रीभाव की दृढ़ता हेतु आवाहित करते हैं॥३॥ यो अश्वानां यो गवां गोपतिर्वशी य आरितः कर्मणिकर्मणि स्थिरः । वीळोश्चिदिन्द्रो यो असुन्वतो वधो मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥४॥ जो इन्द्रदेव गौओं और अश्वों के पालक (स्वामी) हैं, सभी को अपने नियन्त्रण में रखकर प्रत्येक कार्य (कर्तव्य निर्वाह) में सुस्थिर रहकर प्रशंसित होते हैं। जो इन्द्रदेव विधि पूर्वक सोमयुक्त यज्ञीय कर्म से रहित शत्रुओं के नाशक हैं, ऐसे मरुयुक्त इन्द्रदेव को मित्रता के लिए आवाहित करते हैं ॥४॥ यो विश्वस्य जगतः प्राणतस्पतिर्यो ब्रह्मणे प्रथमो गा अविन्दत् । इन्द्रो यो दस्यूँरधराँ अवातिरन्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥५॥ विश्वाधिपति इन्द्रदेव जो सम्पूर्ण गतिमान् प्राणधारियों के स्वामी हैं, जिन्होंने ब्रह्मपरायण ज्ञानवानों को सर्वप्रथम गौएँ उपलब्ध करायीं, जिन्होंने अपने नीचे दुष्टों का दलन किया, ऐसे मरुयुक्त इन्द्रदेव की मैत्री की स्थिरता हेतु हम उनका आवाहन करते हैं॥५॥ यः शूरेभिर्हव्यो यश्च भीरुभिर्यो धावद्भिर्हयते यश्च जिग्युभिः । इन्द्रं यं विश्वा भुवनाभि संदधुर्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥६॥ जो इन्द्रदेव शूरवीरों और भीरु मानवों, दोनों के द्वारा सहयोग हेतु आवाहित किए जाते हैं, जो संग्राम विजेताओं और पलायनकर्ताओं द्वारा भी बुलाये जाते हैं तथा सम्पूर्ण लोक जिनकी पराक्रम शक्ति के आश्रित हैं, ऐसे मरुतों से युक्त इन्द्रदेव को हम मैत्री के लिए आमंत्रित करते हैं॥६॥ रुद्राणामेति प्रदिशा विचक्षणो रुद्रेभिर्योषा तनुते पृथु ज्रयः । इन्द्रं मनीषा अभ्यर्चति श्रुतं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥७॥ जो विवेक सम्पन्न (बुद्धिमान्) इन्द्रदेव रुद्रपुत्र मरुतों की दिशा का अनुगमन करते हैं; मरुतों और देवी उषा के सामंजस्य से अपने विस्तृत प्रसिद्ध तेज को और अधिक विस्तारित करते हैं तथा जिन प्रख्यात इन्द्रदेव की अर्चना मनुष्यों की मेधा सम्पन्न प्रखर वाणी करती है, ऐसे मरुतां से संयुक्त इन्द्रदेव को मित्रता वृद्धि के लिए आमंत्रित करते हैं॥७॥ यद्वा मरुत्वः परमे सधस्थे यद्वावमे वृजने मादयासे । अत आ याह्यध्वरं नो अच्छा त्वाया हविश्चकृमा सत्यराधः ॥८॥ है मरुतों से युक्त इन्द्रदेव ! आप सर्वश्रेष्ठ दिव्य लोक अथवा अधर स्थित अन्तरिक्ष लोक में जहाँ कहीं भी आनन्द युक्त हों, हमारे इस यज्ञस्थल पर अतिशीघ्र पधारें। हे श्रेष्ठ ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव ! आपकी कृपा के आकांक्षी हम आपके निमित्त यज्ञ में आहुतियाँ प्रदान करते हैं॥८॥ त्वायेन्द्र सोमं सुषुमा सुदक्ष त्वाया हविश्वकृमा ब्रह्मवाहः । अधा नियुत्वः सगणो मरुद्भिरस्मिन्यज्ञे बर्हिषि मादयस्व ॥९॥ दक्षता सम्पन्न हे श्रेष्ठ इन्द्रदेव! आपके निमित्त ही हम सोम निणादित करते हैं। हे स्तोत्रों द्वारा प्राप्त होने योग्य इन्द्रदेव! आपके लिए ही हम हवि प्रदान करते हैं। हे अश्वों से युक्त इन्द्रदेव ! मरुद्गणों सहित इस यज्ञ में आकर विराजमान हों और सोमपान से आनन्दित हों ॥९॥ मादयस्व हरिभिर्ये त इन्द्र वि ष्यस्व शिप्रे वि सृजस्व धेने । आ त्वा सुशिप्र हरयो वहन्तूशन्हव्यानि प्रति नो जुषस्व ॥१०॥ हे इन्द्रदेव ! अश्वों के साथ प्रसन्नता को प्राप्त करें, अपने जबड़ों को खोलकर सुखद ध्वनि करें। हे श्रेष्ठ शिरस्त्राण धारण करने वाले इन्द्रदेव ! रथ खींचने वाले घोड़े आपको हमारे समीप ले आयें । अभीष्ट पूरक इन्द्रदेव आप हमारी आहुतियों को प्रेम पूर्वक ग्रहण करें ॥१०॥ मरुत्स्तोत्रस्य वृजनस्य गोपा वयमिन्द्रेण सनुयाम वाजम् । तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥११॥ मरुद्गणों की स्तुतियों से प्रशंसित, शत्रु संहारक इन्द्रदेव द्वारा संरक्षित हमें उनके (इन्द्रदेव के) सहयोग से अन्न की प्राप्ति हो। अतएव मित्र, वरुण, अदिति, सिन्धु, पृथ्वी और दिव्यलोक सभी हमें सहयोग प्रदान करें ॥११॥

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