Shree Rampurvatapiniyopnishd Chapter 2 (श्री रामपूर्वतापिनीयोपनिषद् द्वितीय सर्ग)

॥ श्री हरि ॥ ॥ श्रीरामरहस्योपनिषत् ॥ ॥ द्वितीय सर्ग ॥ श्रीराम का स्वरूप एवं राम के बीज मन्त्र का अर्थ स्वर्भूज्योतिर्मयोऽनन्तरूपी स्वेनैव भासते । जीवत्वेन समो यस्य सृष्टिस्थितिलयस्य च ॥१॥ वह (श्रीराम) कारण रहित हैं एवं कारण की अपेक्षा न रखकर स्वयं प्रकट होते हैं। इसलिए 'स्वयंभू' कहलाये। उनका स्वरूप चिन्मय, प्रकाशमय है। वे रूपधारक होते हुए भी अनन्त हैं। (अर्थात् देश, काल, वस्तु से परे हैं।) वे अपने ही स्वप्रज्जवलित ज्योति से प्रकाशमान हैं। वे जीव की आत्मा के रूप में उसमें प्रतिष्ठित हैं। वे ही सृष्टि, स्थित और लय के कारण हैं। ॥१॥ कारणत्वेन चिच्छक्त्या रजः सत्त्वतमोगुणैः । यथैव वटबीजस्थः प्राकृतश्च महान्द्रुमः ॥२॥ इसके लिए वे अपनी चित्त शक्ति के द्वारा रजोगुण, शतोगुण तथा तमोगुण का प्रयोग करते हैं। वे सृष्टि में उसी प्रकार स्थित हैं जैसे की एक बहुत बड़ा बट का पेड़ एक छोटे से बीज में अदृश्य रूप में स्थित रहता है। ॥२॥ तथैव रामबीजस्थं जगदेतच्चराचरम् । रेफारूढा मूर्तयः स्युः शक्तयस्तिस्र एव चेति ॥ ३॥ उसी प्रकार यह सृष्टि, चराचर जगत, भी राम नामक बीज में स्थित हैं। सृष्टि के कारण ब्रह्मा, पालन के कारण विष्णु तथा लय के कारण शिव- यह तीनों मूर्तियाँ (देव) राम मन्त्र के 'र'-कार पर आरूढ़ हैं। उसी प्रकार तीनों शक्तियाँ जो निर्माण, स्थित एवं लय का कारण हैं- वो भी राम के बीज 'र' पर आरूढ़ हैं। ॥३॥ राम शब्द का अक्षर विभाग निम्न है- र, आ, अ, म्। इनमें 'र' तो साक्षात् राम का वाचक है, 'आ' ब्रह्मा का, 'अ' विष्णु का एवं 'म' शंकर का वाचक है। उनके कार्य की. जरूरत के अनुसार तीनों शक्तियों का क्रमशः वाचक है। ॥ इति रामपूर्वतापिनीयोपनिषद् द्वितीय सर्ग ॥ ॥ १॥ श्रीरामपूर्वतापिनीयोपनिषद् का द्वितीय सर्ग समाप्त हुआ।

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