Tripadvibhutipaha Narayana Upanishad Chapter 3 (त्रिपाद्विभूतिपहानारायणोपनिषत) तृतीय अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥ त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषत् ॥ ॥ तृतीयोऽध्यायः ॥ ॥ तृतीय अध्याय ॥ अथ छात्रस्तथेतिहोवाच । भगवन्देशिक परमतत्त्वज्ञ सविलासमहामूलाऽविद्योदयक्रमः कथितः । तदु प्रपञ्चोत्पत्तिक्रमः कीदृशो भवति । विशेषेण कथनीयः । तस्य तत्त्वं वेदितुमिच्छामि । शिष्यने 'ठीक है' कहकर फिर पूछा- 'भगवन् ! परमतत्त्वज्ञ गुरुदेव ! आपने विलास के सहित महामूलअविद्या के उदयक्रम का वर्णन किया। उस (मूलाविद्या) से प्रपञ्च की उत्पत्ति का क्रम किस प्रकार है, इसे विशेषतः वर्णन करें। मैं उसका तत्त्व जानना चाहता हूँ ॥१॥ तथेत्युक्त्वा गुरुरित्युवाच । यथानादिसर्वप्रपञ्चो दृश्यते । नित्योऽनित्यो वेति संशय्येते । प्रपञ्चोऽपि द्विविधः । विद्याप्रपञ्चश्चाविद्याप्रपञ्चश्चेति । विद्याप्रपञ्चस्य नित्यत्वं सिद्धमेव नित्यानन्दचिद्विलासात्मकत्वात् । अथ च शुद्धबुद्धमुक्तसत्यानन्दस्वरूपत्वाच्च । अविद्याप्रपञ्चस्य नित्यत्वमनित्यत्वं वा कथमिति । प्रवाहतो नित्यत्वं वदन्ति केचन । प्रलयादिकं श्रूयमाणत्वादनित्यत्वं वदन्त्यन्ये । उभयं न भवति । पुनः कथमिति । संकोचविकासात्मकमहामायाविलासात्मक एव सर्वोऽप्यविद्याप्रपञ्चः । परमार्थतो न किंचिदस्ति क्षणशून्यानादिमूलाऽविद्याविलासत्वात् । तत्कथमिति । एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म । नेह नानास्ति किंचन । तस्माद्ब्रह्मव्यतिरिक्तं सर्वं बाधितमेव । सत्यमेव परम्ब्रह्म सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म । 'ऐसा ही हो' यह कहकर गुरु बोले-'यह अनादि प्रपञ्च जैसा दिखायी पड़ता है, वह नित्य है या अनित्य इस प्रकार का संशय उत्पन्न होता है। प्रपञ्च भी दो प्रकार का है-विद्या-प्रपञ्च और अविद्या-प्रपञ्च । विद्याप्रपञ्च की नित्यता तो इसी से सिद्ध है कि वह नित्यानन्दमय चैतन्य का विलास तथा शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सत्य एवं आनन्दस्वरूप हैं। अविद्या-प्रपञ्च नित्य है या अनित्य ? कुछ लोग प्रवाहरूप से उसकी नित्यता बतलाते हैं। शास्त्रों में प्रलयादि का वर्णन सुना जाता है, इस कारण से दूसरे उसकी अनित्यता बतलाते हैं। वस्तुतः दोनों ही बातें नहीं हैं। फिर है किस प्रकार ? समस्त अविद्याप्रपञ्च महामाया को संकोच एवं विकासरूप विलास ही है। क्षण-क्षण में शून्य होनेवाला अनादि मूल अविद्या का विलास होने के कारण परमार्थतः कुछ भी नहीं है अर्थात् समस्त अविद्या-प्रपञ्च प्रतिक्षण विलीन होनेवाला है, अतः उसकी पारमार्थिक सत्ता नहीं है। वह किस प्रकार ? एकमात्र अद्वितीय ब्रह्म ही है। यहाँ अनेक नामकी वस्तु कुछ भी नहीं है, ऐसी श्रुति है। अतएव ब्रह्म से भिन्न सब बाधित अर्थात प्रतीतिमात्र, सत्ताहीन ही है। सत्य ही परम ब्रह्म है। ब्रह्म सत्यस्वरूप, ज्ञानस्वरूप एवं अन्तहीन है ॥ २॥ ततः सविलासमूलाऽविद्योपसंहारक्रमः कथमिति । अत्यादरपूर्वकमतिहर्षेण देशिक उपदिशति । चतुर्युगसहस्राणि ब्रह्मणो दिवा भवति । तावता कालेन पुनस्तस्य रात्रिर्भवति । द्वे अहोरात्रे एकं दिनं भवति । तस्मिन्नेकस्मिन्दिने आसत्यलोकान्तमुदयस्थितिलया जायन्ते । पञ्चदशदिनानि पक्षो भवति । पक्षद्वयं मासो भवति । मासद्वयमृतुर्भवति । ऋतुत्रयमयनं भवति । अयनद्वयं वत्सरो भवति । वत्सरशतं ब्रह्ममानेन ब्रह्मणः परमायुःप्रमाणम् । तावत्कालस्तस्य स्थितिरुच्यते । स्थित्यन्तेऽण्डविराट्पुरुषः स्वांशं हिरण्यगर्भमभ्येति । हिरण्यगर्भस्य कारणं परमात्मानमण्डपरिपालकनारायणमभ्येति । पुनर्वत्सरशतं तस्य प्रलयो भवति । तदा जीवाः सर्वे प्रकृतौ प्रलीयन्ते । प्र रलयं सर्वशून्यं भवति । तब विलास (अभिव्यक्ति)- संहित मूल-अविद्या के उपसंहार का क्रम किस प्रकार है?' (इस प्रकार शिष्य के पूछने पर) अत्यन्त आदरपूर्वक बड़ी प्रसन्नता से गुरु उपदेश करते हैं-'सहस्र चतुर्युगों का ब्रह्माजी का एक दिवस होता है। इतने ही समय की फिर उनकी रात्रि होती है। रात्रि और दिवस दोनों का सम्मिलित रूप एक दिन होता है। उस एक दिन में सत्यलोक तक के समस्त लोकों की उत्पत्ति, स्थिति एवं लय हो जाते हैं। (ऐसे) पंद्रह दिनों का (ब्रह्माजीका) पक्ष (पखवाड़ा) होता है। दो पक्षों का महीना होता है। दो महीनों का ऋतु होता है। तीन ऋतुओंका अयन होता है। दो अयनों का वर्ष होता है। ब्रह्मा के वर्षों के प्रमाण से सौ वर्ष की ब्रह्माजी की परमायु (पूर्ण आयु) होती है। इतने समय तक उन (ब्रह्माजी) की स्थिति कही जाती है। स्थिति के अन्त में अण्डगत विराट्पुरुष अपने अंशी हिरण्यगर्भ को प्राप्त होते उनमें लीन हो जाते हैं। हिरण्यगर्भ के कारण परमात्मा अण्डपरिपालक नारायण को वे हिरण्यगर्भ प्राप्त होते हैं। फिर सौ वर्षों तक उनकी प्रलय होती है। उस समय सब जीव प्रकृति में लीन हो जाते हैं। प्रलय के समय सब शून्य हो जाता है' ॥३-४॥ तस्य ब्रह्मणः स्थितिप्रलयावादिनारायणस्यांशेनावतीर्ण- स्याण्डपरिपालकस्य महाविष्णोरहोरात्रिसंज्ञकौ । ते अहोरात्रे एकं दिनं भवति । एवं दिनपक्षमास- संवत्सरादिभेदाच्च तदीयमानेन शतकोटिवत्सरकालस्तस्य स्थितिरुच्यते । स्थित्यन्ते स्वांशं महाविराट्पुरुषमभ्येति । ततः सावरणं ब्रह्माण्डं विनाशमेति । ब्रह्माण्डावरणं विनश्यति तद्धि विष्णोः स्वरूपम् । तस्य तावत्प्रलयो भवति । प्रलये सर्वशून्यं भवति । 'उन ब्रह्माजी की स्थिति एवं प्रलय आदि-नारायण के अंश से अवतीर्ण इन अण्ड-परिपालक महाविष्णु के दिवस एवं रात्रि कहे जाते हैं। इन दिवस एवं रात्रि का अर्थात् ब्रह्मा के सौ वर्षों के जीवन एवं सौ वर्षों की प्रलय का महाविष्णु का एक दिन होता है। इसी प्रमाण से दिन, पक्ष, मास, संवत्सर आदि भेदसे उनके सौ करोड़ वर्षों तक उनकी स्थिति कही जाती है। स्थिति के अन्त में वह अपने कारण महाविराट् पुरुष को प्राप्त होते अर्थात उनमें लीन हो जाते हैं। तब आवरण के साथ ब्रह्माण्ड विनष्ट हो जाता है। ब्रह्माण्ड का आवरण विनष्ट होता है, वही आवरण विष्णु का स्वरूप है। उन श्रीमहा विष्णु की उतनी ही (एक अरब वर्ष की) प्रलय होती है। प्रलय के समय सब शून्य हो जाता है' ॥५॥ अण्डपरिपालकमहाविष्णोः स्थितिप्रलयावादिविराट्पुरुषस्याहोरात्रिसंज्ञकौ ते अहोरात्रे एकं दिनं भवति । एवं दिनपक्षमाससंवत्सरादिभेदाच्च तदीयमानेन शतकोटिवत्सरकालस्तस्य स्थितिरुच्यते । स्थित्यन्ते आदिविराट्पुरुषः स्वांशमायोपाधिकनारायणमभ्येति । तस्य विराट्पुरुषस्य यावत्स्थितिकालस्तावत्प्रलयो भवति । प्रलये सर्वशून्यं भवति । 'अण्डपरिपालक महाविष्णु की स्थिति एवं प्रलय (उनके दो अरब वर्ष) आदिविराट् पुरुष के दिवस रात्रि कहे जाते हैं। उन दिवस-रात्रि का एक दिन होता है। इसी प्रकार दिन, पक्ष, मास, संवत्सर आदि भेदसे उनके कालमान के सौ करोड़ वर्ष पर्यन्त उनकी स्थिति कही जाती है। स्थिति के अन्त में आदिविराट् पुरुष अपने अंशी मायोपाधिक नारायण को प्राप्त होता है अर्थात् उनमें लीन हो जाता है। उस विराट्पुरुष का जितना स्थिति काल है, उतना ही प्रलयकाल भी होता है। प्रलय के समय सब शून्य हो जाता है' ॥ ६॥ विरा‌स्थितिप्रलयौ मूलाविद्याण्डपरिपालकस्यादिनारायणस्याहोरात्रिसंज्ञकौ । ते अहोरात्रे एकं दिनं भवति । एवं दिनपक्षमाससंवत्सरादिभेदाच्च तदीयमानेन शतकोटिवत्सरकालस्तस्य स्थितिरुच्यते । स्थित्यन्ते त्रिपाद्विभूतिनारायण स्येच्छावशान्निमेषो जायते । तस्मान्मूलाविद्याण्डस्य सावरणस्य विलयो भवति । ततः सविलासमूलविद्या सर्वकार्योपाधिसमन्विता सदसद्विलक्षणानिर्वाच्या लक्षणशून्याविर्भावतिरोभावात्मिकानाद्यखिलकारण- कारणानन्तमहामायाविशेषणविशेषिता परमसूक्ष्ममूलकारणमव्यक्तं विशति । अव्यक्तं विशेद्ब्रह्मणि निरिन्धनो वैश्वानरो यथा । तस्मान्मायोपाधिक आदिनारायणस्तथा स्वस्वरूपं भजति । सर्वे जीवाश्च स्वस्वरूपं भजन्ते । यथा जपाकुसुमसान्निध्याद्रक्तस्फटिक- प्रतीतिस्तदभावे शुद्धस्फटिकप्रतीतिः । ब्ररह्मणोपि मायोपाधिवशात्सगुणपरिच्छिन्नादिप्रतीतिरुपाधि- विलयान्निर्गुणनिरवयवादिप्रतीतिरित्युपनिषत् ॥ विराट की स्थिति एवं प्रलय मूल-अविद्याण्ड परिपालक आदि- नारायण के दिवस-रात्रि कहे जाते हैं। उन दिवस-रात्रि का एक दिन होता है। इसी प्रकार दिन, पक्ष, मास, संवत्सर आदि भेद से उनके कालमान के सौ करोड़ वर्षों के समय तक उनकी स्थिति कही जाती है। स्थिति के अन्त में त्रिपाद्विभूतिनारायण की इच्छा से उनका निमेष होता है (उनकी पलकें गिरती हैं)। इस निमेषसे मूल-अविद्याण्डका उसके आवरणके साथ प्रलय हो जाता है। तब मूल-अविद्या, जो सत्- असत् से विलक्षण, अनिर्वचनीय, लक्षणरहित, आविर्भाव- तिरोभावरूप, अनादि अखिल कारणों की कारणरूप एवं अनन्त महामाया विशेषणों से युक्त है, अपने विलास के साथ तथा सम्पूर्ण कार्यरूप उपाधि के सहित परमसूक्ष्म मूल कारण-अव्यक्त में प्रवेश कर जाती है। अव्यक्त फिर ब्रह्म में प्रवेश कर जाता है; उस समय ईंधन के जल जाने पर जैसे अग्नि अपने वास्तविक स्वरूप को, प्राप्त कर लेता है, वैसे ही मायोपाधिक आदिनारायण, मायारूप उपाधि के नष्ट हो जाने पर अपने स्वरूप में स्थित हो जाते हैं। समस्त जीव अपने स्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं। जैसे जपा (जवा)-पुष्प के सान्निध्य (समीपता) से स्फटिक में ललाई की प्रतीति होती है और उस पुष्प के अभाव में शुद्ध स्फटिक प्रतीत होता है, वैसे ही ब्रह्म में भी मायारूप उपाधि से ही सगुणत्व, परिच्छिन्नत्व आदिकी प्रतीति होती है। उपाधि का नाश हो जानेपर निर्गुणत्व, निरवयवत्व आदि की प्रतीति होती है ॥ ७॥ ॥ इति तृतीयोऽध्यायः ॥ ॥ तृतीय अध्याय समाप्त ॥

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