ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ३७

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ३७ ऋषिः भौमोऽत्रिः देवता - इन्द्र, । छंद - त्रिष्टुप सं भानुना यतते सूर्यस्याजुह्वानो घृतपृष्ठः स्वञ्चाः । तस्मा अमृध्रा उषसो व्युच्छान्य इन्द्राय सुनवामेत्याह ॥१॥ उत्तम रूप से आवाहित और घृत आहुतियों से दीप्तिमान् अग्नि की ज्वालाएँ सूर्यरश्मियों से सुसंगत होकर चलती हैं। उस समय जो यजमान "इन्द्रदेव के लिए सोम-सवन करें"- ऐसा कहता है, उसके निमित्त उषा अत्यन्त सुखकारी होकर प्रकाशित होती है ॥१॥ समिद्धाग्निर्वनवत्स्तीर्णबर्हिर्युक्तग्रावा सुतसोमो जराते । ग्रावाणो यस्येषिरं वदन्त्ययदध्वर्युर्हविषाव सिन्धुम् ॥२॥ अध्वर्यु अग्नि को प्रज्वलित करके, आसन विस्तीर्ण कर यजन कार्य में प्रवृत्त होता है। वह सोम अभिषवण के पाषाण से युक्त होकर स्तुति करते हुए पाषाण से तीव्र शब्द करता है। वह अध्वर्यु सोमयुक्त हविष्यान्न लेकर नदी तट पर यज्ञन कार्य सम्पन्न करता है ॥२॥ वधूरियं पतिमिच्छन्त्येति य ईं वहाते महिषीमिषिराम् । आस्य श्रवस्याद्रथ आ च घोषात्पुरू सहस्रा परि वर्तयाते ॥३॥ जिस प्रकार श्रेष्ठ कामनाएँ करती हुई पली यज्ञ में पति की अनुगामिनी होती है, उसी प्रकार इन्द्रदेव भी अपनी अनुगामिनी रानी को यज्ञ में वहन करते हैं। प्रभूत ऐश्वर्ययुक्त इन्द्रदेव के रथ की कीर्ति चतुर्दिक फैलकर गुंजरित हो। वे इन्द्रदेव सहस्रों विपुल धनों को चारों ओर से हमारे पास लायें ॥३॥ न स राजा व्यथते यस्मिन्निन्द्रस्तीत्रं सोमं पिबति गोसखायम् । आ सत्वनैरजति हन्ति वृत्रं क्षेति क्षितीः सुभगो नाम पुष्यन् ॥४॥ जिसके राज्य में इन्द्रदेव सर्वदा गो-दुग्ध मिश्रित सोमरस का पान करते हैं, वे राजा कभी व्यर्थित नहीं होते। अपने सत्य सेवकों के साथ सर्वत्र विचरते हैं। अपने शत्रुओं को मारते हैं। प्रजाओं को सुरक्षित रखते हैं। वे अपने सौभाग्य और नाम-यश को पुष्ट करते हैं ॥४॥ पुष्यात्क्षेमे अभि योगे भवात्युभे वृतौ संयती सं जयाति । प्रियः सूर्ये प्रियो अग्ना भवाति य इन्द्राय सुतसोमो ददाशत् ॥५॥ जो इन्द्रदेव के निमित्त सोम अभिषवण कर उन्हें शुद्ध सोम प्रदान करता है। वह अपने बन्धुओं और सन्तानों का सम्यक् पोषण करता हुआ प्राप्त धन की रक्षा करने और अप्राप्त धन को प्राप्त करने में समर्थ होता है। वहू सभी जीवन-संग्रामों के उपस्थित होने पर विजयी होता है। वह सूर्यदेव और अग्निदेव के लिए प्रिय होता है॥५॥

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