ऋग्वेद द्वितीय मंडल सूक्त १४

ऋग्वेद - द्वितीय मंडल सूक्त १४ ऋषिः- गृत्समद (अंगीरसः शौन होत्रः पश्चयाद) भार्गवः शौनकः। देवता- इन्द्रः । छंद- त्रिष्टुप, अध्वर्यवो भरतेन्द्राय सोममामत्रेभिः सिञ्चता मद्यमन्धः । कामी हि वीरः सदमस्य पीतिं जुहोत वृष्णे तदिदेष वष्टि ॥१॥ हे अध्वर्युगणो ! सदैव सोम-पान की कामना वाले वीर इन्द्रदेव को भरपूर मात्रा में सोमरस तथा पात्रों में हर्षदायक अन्न प्रदान करें । इन्द्रदेव की कामना के अनुसार सुखवर्षक सोम की आहुतियाँ उन्हें प्रदान करें ॥१॥ अध्वर्यवो यो अपो वव्रिवांसं वृत्रं जघानाशन्येव वृक्षम् । तस्मा एतं भरत तद्वशायँ एष इन्द्रो अर्हति पीतिमस्य ॥२॥ हे अध्वर्युगणो ! जिस तरह बिजली वृक्ष को धराशायी कर देती है, उसी तरह जिन इन्द्रदेव ने जल को रोककर रखने वाले वृत्र को धराशायी किया था, वे इन्द्रदेव इस सोमरस पान के योग्य हैं, अतः उनकी कामनानुसार सोम रस प्रदान करो ॥२॥ अध्वर्यवो यो दृभीकं जघान यो गा उदाजदप हि वलं वः । तस्मा एतमन्तरिक्षे न वातमिन्द्रं सोमैरोर्णत जूर्न वस्त्रैः ॥३॥ हे अध्वर्युगणो ! जिन इन्द्रदेव ने दृभीक राक्षस का हनन किया, जिनने बल-पूर्वक रोकी गई गौओं (किरणों) को मुक्त कराया। उन इन्द्रदेव के निमित्त, आकाश में व्याप्त वायु की तरह यह सोम स्थापित करो । शरीर को बस्त्रों से आच्छादित करने की भाँति इन्द्रदेव को सोम से आच्छादित करो ॥३॥ अध्वर्यवो य उरणं जघान नव चख्वांसं नवतिं च बाहून् । यो अर्बुदमव नीचा बबाधे तमिन्द्रं सोमस्य भृथे हिनोत ॥४॥ हे अध्वर्युगणो ! जिन इन्द्रदेव ने उरण नामक राक्षस की निन्यानबे भुजाओं को काटा और उसे मारा तथा अर्बुद राक्षस को अधोमुख करके उसे पीड़ित किया, उन इन्द्रदेव को सोम यज्ञ में आने के लिए प्रेरित करो ॥४॥ अध्वर्यवो यः स्वश्नं जघान यः शुष्णमशुषं यो व्यंसम् । यः पिपुं नमुचिं यो रुधिक्रां तस्मा इन्द्रायान्धसो जुहोत ॥५॥ जिन इन्द्रदेव ने अश्न, प्रज्ञाशोषक शुष्ण, बाहुरहित अहि, पिपु, नमुचि तथा रुधिक्रा नामक राक्षसों का वध किया, उन इन्द्रदेव को विभिन्न हविष्यान्नों की आहुतियाँ समर्पित करो ॥५॥ अध्वर्यवो यः शतं शम्बरस्य पुरो बिभेदाश्मनेव पूर्वीः । यो वर्चिनः शतमिन्द्रः सहस्रमपावपद्भरता सोममस्मै ॥६॥ हे अध्वर्युगणो ! जिन इन्द्रदेव ने शम्बर राक्षस के सौ पुराने नगरों को अपने शक्तिशाली वज्र से ध्वंस किया, जिनने वर्चीक के सौ हजार पुत्रों को धराशायी किया, उन इन्द्रदेव के निमित्त सोम प्रदान करो ॥६॥ अध्वर्यवो यः शतमा सहस्रं भूम्या उपस्थेऽवपज्जघन्वान् । कुत्सस्यायोरतिथिग्वस्य वीरान्यावृणग्भरता सोममस्मै ॥७॥ हे अध्वर्युगणो ! जिन शत्रुनाशक इन्द्र देव ने हजारों असुरा को मारकर सैकड़ों बार भूमि पर बिछा दिया। जिनने कुत्स, आयु तथा अतिथिग्व के द्वेषियों का वध किया, उन इन्द्रदेव के निमित्त सोम एकत्रित करो ॥७॥ अध्वर्यवो यन्नरः कामयाध्वे श्रुष्टी वहन्तो नशथा तदिन्द्रे । गभस्तिपूतं भरत श्रुतायेन्द्राय सोमं यज्यवो जुहोत ॥८॥ हे अध्वर्युगणो ! नेता इन्द्रदेव को हविष्यान्न प्रदान करके अपनी कामनानुसार वाञ्छित वस्तुएँ प्राप्त करो। अंगुलियों से शोधित सोम को यशस्वी इन्द्रदेव के निमित्त प्रदान करते हुए आहुतियाँ दें ॥८ ॥ अध्वर्यवः कर्तना श्रुष्टिमस्मै वने निपूतं वन उन्नयध्वम् । जुषाणो हस्त्यमभि वावशे व इन्द्राय सोमं मदिरं जुहोत ॥९॥ हे अध्वर्युगणो काष्ठपात्र में शोधित सोमरस को रखकर इन्द्रदेव के समीप पहुँचाओ । वे सोमपायी तुम्हारे हाथ में शोधित सोमरस की इच्छा करते हैं । अतः इन्द्रदेव को हर्षित करने वाले सोम की आहुतियाँ समर्पित करो ॥९॥ अध्वर्यवः पयसोधर्यथा गोः सोमेभिरीं पृणता भोजमिन्द्रम् । वेदाहमस्य निभृतं म एतद्दित्सन्तं भूयो यजतश्चिकेत ॥१०॥ हे अध्वर्युगणो ! जिस तरह गाय के थन दूध से भरे रहते हैं, उसी तरह भोज्य पदार्थ प्रदान करने वाले इन्द्रदेव को सोम के द्वारा पूर्ण करो । इससे पूज्य इन्द्रदेव दाता यजमान को और अधिक ऐश्वर्य प्रदान करते हैं। इस गोपनीय रहस्य को हम भली-भाँति जानते हैं ॥१०॥ अध्वर्यवो यो दिव्यस्य वस्वो यः पार्थिवस्य क्षम्यस्य राजा । तमूर्दरं न पृणता यवेनेन्द्रं सोमेभिस्तदपो वो अस्तु ॥११॥ हे अध्वर्युगणो ! इन्द्रदेव द्युलोक, पृथ्वीलोक तथा अन्तरिक्ष में उत्पन्न समस्त ऐश्वर्य के स्वामी हैं। जिस प्रकार से जौ आदि अन्न से कोठे भरे जाते हैं उसी प्रकार उन इन्द्रदेव को सोमरस के द्वारा सदैव पूर्ण करते रहो ॥११॥ अस्मभ्यं तद्वसो दानाय राधः समर्थयस्व बहु ते वसव्यम् । इन्द्र यच्चित्रं श्रवस्या अनु यून्बृहद्वदेम विदथे सुवीराः ॥१२॥ हे ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव ! आप महान् ऐश्वर्यशाली हैं, अतः श्रेष्ठ कार्यों के निमित्त हमें धन प्रदान करें। हम सदैव आपके धन को प्राप्त करने की कामना करते हैं। हम इस यज्ञ में पुत्र-पौत्रों सहित उत्तम स्तोत्रों का गायन करके आपकी स्तुतियाँ करें ॥१२॥

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