ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ६९

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ६९ ऋषि-पाराशर शाक्त्यः देवता - अग्नि । छंद - द्विपदा विराट शुक्रः शुशुक्वाँ उषो न जारः पप्रा समीची दिवो न ज्योतिः ॥१॥ परि प्रजातः क्रत्वा बभूथ भुवो देवानां पिता पुत्रः सन् ॥२॥ हे अग्निदेव ! आप उषा प्रेमी सूर्यदेव के समान दीप्तिमान् हैं। प्रकाशमान सूर्यदेव की ज्योति के समान तेजस्वी होकर अपने तेज़ से आकाश और पृथ्वी को पूर्ण करते हैं। हे अग्निदेव ! उत्पन्न होकर आपने अपने कर्म से सारे विश्व को व्याप्त किया। आप देवों द्वारा उत्पन्न पुत्र रूप होकर भी उन्हें हवि आदि देकर उनके पिता रूप हो जाते हैं॥१-२॥ वेधा अदृप्तो अग्निर्विजानन्नूधर्न गोनां स्वाद्मा पितूनाम् ॥३॥ जने न शेव आहूर्यः सन्मध्ये निषत्तो रण्वो दुरोणे ॥४॥ अहंकाररहित बुद्धि से कर्तव्यों को जानने वाले, गौ दुग्ध के समान स्वादिष्ट अन्नों को देने वाले अग्निदेव यजमानों द्वारा बुलाने पर आकर, यज्ञ के मध्य में प्रतिष्ठित होकर शोभा पाते हैं और उन याजकों को सुख प्रदान करते हैं॥३-४॥ पुत्रो न जातो रण्वो दुरोणे वाजी न प्रीतो विशो वि तारीत् ॥५॥ विशो यदले नृभिः सनीळा अग्निर्देवत्वा विश्वान्यश्याः ॥६॥ घर में उत्पन्न हुए पुत्र के समान सुखदायक अग्निदेव हर्षान्वित अश्वों की तरह मनुष्यों को दुःख से पार लगाते हैं। जब मनुष्यों के साथ हम, देवों का आवाहन करते हैं, तब ये अग्निदेव दिव्य प्रेरणाओं से समन्वित होकर दिव्यता को धारण करते हैं॥५-६॥ नकिष्ट एता व्रता मिनन्ति नृभ्यो यदेभ्यः श्रुष्टिं चकर्थ ॥७॥ तत्तु ते दंसो यदहन्त्समानैर्नृभिर्यद्युक्तो विवे रपांसि ॥८॥ हे अग्निदेव ! जिन मनुष्यों के आप सहायक होते हैं, वे आपके नियमों को तोड़ नहीं सकते। आपने ही मनुष्यों से युक्त होकर पाप रूपी राक्षसों को मार गिराया, यह आपका श्रेष्ठ और प्रशंसनीय कार्य हैं॥७- ८॥ उषो न जारो विभावोस्रः संज्ञातरूपश्चिकेतदस्मै ॥९॥ त्मना वहन्तो दुरो व्यृण्वन्नवन्त विश्वे स्वर्हशीके ॥१०॥ उषा प्रेमी सूर्यदेव के समान देदीप्यमान्, प्रकाशित और प्रख्यात अग्निदेव इस हविदाता पुरुष को जानें। हवियुक्त होकर यज्ञ द्वार को खोलकर ये अग्निदेव सम्पूर्ण आकाश में, दशों-दिशाओं में व्याप्त होकर ऊर्ध्वगति प्राप्त करते हैं॥९-१०॥

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