ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त ४०

ऋग्वेद - चतुर्थ मंडल सूक्त ४० ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - दधिक्रा, ५ सूर्य। छंद जगती, १ त्रिष्टुप दधिक्राव्ण इदु नु चर्किराम विश्वा इन्मामुषसः सूदयन्तु । अपामग्नेरुषसः सूर्यस्य बृहस्पतेराङ्गिरसस्य जिष्णोः ॥१॥ हम दधिक्रादेव की बार-बार प्रार्थना करेंगे। समस्त उषाएँ हमें प्रेरणा प्रदान करें। हम जल, अग्नि, सूर्य, उषा, बृहस्पति तथा आंगिरस जिष्णु की प्रार्थना करेंगे ॥१॥ सत्वा भरिषो गविषो दुवन्यसच्छ्रवस्यादिष उषसस्तुरण्यसत् । सत्यो द्रवो द्रवरः पतंगरो दधिक्रावेषमूर्जं स्वर्जनत् ॥२॥ शक्तिशाली, भरण-पोषण करने वाले, गौओं को प्रेरित करने वाले, भक्तों के बीच में निवास करने वाले तथा द्रुतगति से गमन करने वाले दधिक्रादेव, उषाकाल में अन्न की कामना करें। सत्यगमनशील, वेगवाले, दूसरों को भी वेग प्रदान करने वाले तथा उछलते हुए गमन करने वाले दधिक्रादेव हमारे निमित्त अन्न, बल तथा हर्ष पैदा करें ॥२॥ उत स्मास्य द्रवतस्तुरण्यतः पर्णं न वेरनु वाति प्रगर्धिनः । श्येनस्येव ध्रजतो अङ्कसं परि दधिक्राव्णः सहोर्जा तरित्रतः ॥३॥ जिस प्रकार पक्षियों का अनुगमन उनके पंख करते हैं, उसी प्रकार गमन करने वाले, वेगपूर्वक भागने वाले तथा प्रतिस्पर्धा करने वाले दधिक्रादेव का अनुगमन मनुष्य करते हैं। बाज़ पक्षी के समान गमन करने वाले तथा सुरक्षा करने वाले दधिक्रादेव के शरीर को एकत्र होकर अन्नादि के लिए सब लोग घेर लेते हैं ॥३॥ उत स्य वाजी क्षिपणिं तुरण्यति ग्रीवायां बद्धो अपिकक्ष आसनि । क्रतुं दधिक्रा अनु संतवीत्वत्पथामङ्कांस्यन्वापनीफणत् ॥४॥ वे दधिक्रादेव बलशाली अश्व की तरह काँख तथा मुँह से बँधे होने पर भी अपने रिपुओं की ओर तीव्र गति से गमन करते हैं। वे अत्यधिक शक्तिशाली होकर यज्ञों का अनुगमन करके, कुटिल मार्गों को पार कर जाते हैं ॥४॥ हंसः शुचिषद्वसुरन्तरिक्षसद्धोता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत् । नृषद्वरसदृतसव्योमसदब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतम् ॥५॥ हंस (सूर्य) तेजोमय आकाश में एवं वसु (वायु) अन्तरिक्ष में अवस्थित हैं। होता (अग्नि) वेदिका पर अतिथि की तरह पूज्य होकर घरों में वास करते हैं। ऋत (सत्य या ब्रह्म) का वास मनुष्यों, वरणीय स्थानों, यज्ञस्थल एवं अन्तरिक्ष में होता है। वे जल में, रश्मियों में, सत्य एवं पर्वतों में उत्पन्न हुए हैं ॥५॥

Recommendations