ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ३२

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ३२ ऋषिः गातुरात्रेयः देवता - इन्द्र, । छंद -त्रिष्टुप, अदर्दरुत्समसृजो वि खानि त्वमर्णवान्बद्वधानाँ अरम्णाः । महान्तमिन्द्र पर्वतं वि यद्वः सृजो वि धारा अव दानवं हन् ॥१॥ हे इन्द्रदेव ! आपने बादलों को भेदकर जल धाराओं को प्रकट करने के लिए बाधाओं को दूर किया और ऊँची तरंगों वाले समुद्र को अधिक जल प्रदान करके प्रसन्न किया। आपने ही राक्षसों का संहार किया ॥१॥ त्वमुत्साँ ऋतुभिर्बद्वधानाँ अरंह ऊधः पर्वतस्य वज्रिन् । अहिं चिदुग्र प्रयुतं शयानं जघन्वाँ इन्द्र तविषीमधत्थाः ॥२॥ हे वज्रधारी इन्द्रदेव ! आप वर्षाकाल में अवरुद्ध मेघों के बन्धनों को तोड़कर मेघों के बल को नष्ट करने वाले हैं। हे उग्र इन्द्रदेव! आपने सोये हुए बलवान् वृत्र को मारकर अपने बल को विख्यात किया ॥२॥ त्यस्य चिन्महतो निर्मृगस्य वधर्जघान तविषीभिरिन्द्रः । य एक इदप्रतिर्मन्यमान आदस्मादन्यो अजनिष्ट तव्यान् ॥३॥ एक मात्र इन्द्रदेव ही अतुलनीय हैं। उन्होंने वृत्र के पृथ्वी पर चलने (प्रयोग किये जाने) वाले अस्त्रों को नष्ट कर दिया। उससे (वृत्र के प्रभाव से) एक अन्य बलशाली (असुर) प्रकट हुआ ॥३॥ त्यं चिदेषां स्वधया मदन्तं मिहो नपातं सुवृधं तमोगाम् । वृषप्रभर्मा दानवस्य भामं वज्रेण वज्री नि जघान शुष्णम् ॥४॥ वर्षणशील मेघ पर प्रहार कर गिराने वाले और वज्र धारण करने वाले इन्द्रदेव ने उस 'शुष्ण' असुर को वज्र से मार गिराया, जो वृत्रासुर के क्रोध से उत्पन्न होकर तम से आच्छादित करता था। मेघों को अवरुद्ध कर गिरने (बरसने) नहीं देता था और प्राणियों के अन्नों को स्वयं खाकर हर्षित होता था ॥४॥ त्यं चिदस्य क्रतुभिर्निषत्तममर्मणो विददिदस्य मर्म । यदीं सुक्षत्र प्रभृता मदस्य युयुत्सन्तं तमसि हर्ये धाः ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! जिसके मर्म को कोई नहीं जान सकता, उस वृत्र के गुह्य मर्म को आपने अपने कर्मों (पुरुषार्थ) से जान लिया । उत्तम बल सम्पन्न हे इन्द्रदेव ! सोमपान से प्रमुदित होकर आपने युद्धाभिलाषी वृत्र को तमिस्रा पूर्ण स्थान में भी खोज लिया ॥५॥ त्यं चिदित्था कत्पयं शयानमसूर्ये तमसि वावृधानम् । तं चिन्मन्दानो वृषभः सुतस्योच्चैरिन्द्रो अपगूर्या जघान ॥६॥ वृत्र सुखकारी जल में सोते हुए, गहन तमिस्रा में पुष्ट होता था। अभिषुत सोमपान से प्रमुदित होकर अतीव बलशाली इन्द्रदेव ने वज्र को ऊँचा उठाकर उस वृत्र को मारा ॥६॥ उद्यदिन्द्रो महते दानवाय वधर्यमिष्ट सहो अप्रतीतम् । यदीं वज्रस्य प्रभृतौ ददाभ विश्वस्य जन्तोरधमं चकार ॥७॥ जब इन्द्रदेव ने उस भीमकाय दानव को मारने के लिए अजेय वज्र को उठाया और जब वृत्र पर उसके द्वारा प्रचण्ड प्रहार किया; तब उसे सब प्राणियों की अपेक्षा निम्नतम स्थिति में पहुँचा दिया ॥७॥ त्यं चिदर्णं मधुपं शयानमसिन्वं वत्रं मह्याददुग्रः । अपादमत्रं महता वधेन नि दुर्योण आवृण‌मृध्रवाचम् ॥८॥ उग्रवीर इन्द्रदेव ने, विकराल मेघों को घेरकर सोने वाले, शत्रुओं का संहार करने वाले और सबको आच्छादित करने वाले उसे असुर वृत्र को पकड़ लिया। संग्राम में इन्द्रदेव ने उस पादरहित, परिमाणरहित, दुष्ट वचन बोलने वाले वृत्र को क्षत-विक्षत किया ॥८॥ को अस्य शुष्मं तविषीं वरात एको धना भरते अप्रतीतः । इमे चिदस्य ज्रयसो नु देवी इन्द्रस्यौजसो भियसा जिहाते ॥९॥ इन्द्रदेव के शोषक बल का निवारण कौन कर सकता है ? अप्रतिद्वन्द्वी इन्द्रदेव अकेले ही शत्रुओं के धन का हरण कर लेते हैं। दीप्तिमती द्यावा-पृथिवीं भी वेगवान् इन्द्रदेव के बल से भयभीत होकर चलती हैं ॥९॥ न्यस्मै देवी स्वधितिर्जिहीत इन्द्राय गातुरुशतीव येमे । सं यदोजो युवते विश्वमाभिरनु स्वधाव्ने क्षितयो नमन्त ॥१०॥ यह दीप्तिमान्, स्वयं धारणशील आकाश भी इन इन्द्रदेव के लिए नम्र होकर रहता है। जिस प्रकार कामना करने वाली स्त्रियाँ पति को आत्मसमर्पण कर देती हैं, उसी प्रकार पृथ्वी इन्द्रदेव के आगे आत्मसमर्पण कर देती है। जब ये इन्द्रदेव अपने सम्पूर्ण बल को प्रजाओं के मध्य स्थापित करते हैं, तब प्रजाएँ इन बलवान् इन्द्रदेव को नमन करती हैं ॥१०॥ एकं नु त्वा सत्पतिं पाञ्चजन्यं जातं शृणोमि यशसं जनेषु । तं मे जगृभ्र आशसो नविष्ठं दोषा वस्तोर्हवमानास इन्द्रम् ॥११॥ हे इन्द्रदेव ! हम मनुष्यों से सुनते हैं कि आप सज्जनों के पालक, पंचजनों के हितैषी और अतिशय यशस्वी हैं। एक मात्र आप ही इस वरीयता के साथ उत्पन्न हुए हैं। दिन-रात स्तुतियों के साथ वि देने वाली और कामना करने वाली हमारी सन्ताने अतिशय स्तुत्य इन्द्रदेव को प्राप्त करें ॥११॥ एवा हि त्वामृतुथा यातयन्तं मघा विप्रेभ्यो ददतं शृणोमि । किं ते ब्रह्माणो गृहते सखायो ये त्वाया निदधुः काममिन्द्र ॥१२॥ हे इन्द्रदेव ! हम सुनते हैं कि आप समय-समय पर प्राणियों के प्रेरक बनते हैं। आप ज्ञानियों को धनादि दान करने वाले हैं। हे इन्द्रदेव ! जो स्तोतागण आपमें अपनी कामनाओं को स्थापित करते हैं, आपके वे ज्ञानी मित्र आपसे क्या पाते हैं ? ॥१२॥

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