ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ४७

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ४७ ऋषि - प्रस्कण्व काण्वः देवता- आश्विनौ । छंद-प्रगाथः अयं वां मधुमत्तमः सुतः सोम ऋतावृधा । तमश्विना पिबतं तिरोअन्यं धत्तं रत्नानि दाशुषे ॥१॥ हे यज्ञ कर्म का विस्तार करने वाले अश्विनीकुमारो ! अपने इस यज्ञ में अत्यन्त मधुर तथा एक दिन पूर्व शोधित सोमरस का आप सेवन करें । यज्ञकर्ता यजमान को रत्न एवं ऐश्वर्य प्रदान करें ॥१॥ त्रिवन्धुरेण त्रिवृता सुपेशसा रथेना यातमश्विना । कण्वासो वां ब्रह्म कृण्वन्त्यध्वरे तेषां सु शृणुतं हवम् ॥२॥ हे अश्विनीकुमारों ! तीन वृत्त युक्त (त्रिकोण), तीन अवलम्बनवाले अति सुशोभित रथ से यहाँ आयें। यज्ञ में कण्व वंशज आप दोनों के लिये मंत्र-युक्त स्तुतियाँ करते हैं, उनके आवाहन को सुनें ॥२॥ अश्विना मधुमत्तमं पातं सोममृतावृधा । अथाद्य दस्रा वसु बिभ्रता रथे दाश्वांसमुप गच्छतम् ॥३॥ हे शत्रुनाशक, यज्ञ-वर्द्धक अश्विनीकुमारो ! अत्यन्तै मीठे सोमरस का पान करें। आज रथ में धनों को धारण कर विदाता यजमान के समीप आयें ॥३॥ त्रिषधस्थे बर्हिषि विश्ववेदसा मध्वा यज्ञं मिमिक्षतम् । कण्वासो वां सुतसोमा अभिद्यवो युवां हवन्ते अश्विना ॥४॥ हे सर्वज्ञ अश्विनीकुमारो ! तीन स्थानों पर रखे हुए कुश-आसन पर अधिष्ठित होकर आप यज्ञ का सिंचन करें। स्वर्ग की कामना वाले कण्व वंशज सोम को अभिषुत कर आप दोनों को बुलाते हैं॥४॥ याभिः कण्वमभिष्टिभिः प्रावतं युवमश्विना । ताभिः ष्वस्माँ अवतं शुभस्पती पातं सोममृतावृधा ॥५॥ यज्ञ को बढ़ाने वाले शुभ कर्मों के पोषक हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों ने जिन इच्छित रक्षण-साधनों से कण्व की भली प्रकार रक्षा की, उन साधनों से हमारी भी भली प्रकार रक्षा करें और प्रस्तुत सोमरस का पान करें ॥५॥ सुदासे दस्रा वसु बिभ्रता रथे पृक्षो वहतमश्विना । रयिं समुद्रादुत वा दिवस्पर्यस्मे धत्तं पुरुस्पृहम् ॥६॥ शत्रुओं के लिए उग्ररूप धारण करने वाले हे अश्विनीकुमारो ! रथ में धनों को धारण कर आपने सुदास को अन्न पहुँचाया । उसी प्रकार अन्तरिक्ष या सागरों से लाकर बहुतों द्वारा वाञ्छित धन हमारे लिए प्रदान करें ॥६॥ यन्नासत्या परावति यद्वा स्थो अधि तुर्वशे । अतो रथेन सुवृता न आ गतं साकं सूर्यस्य रश्मिभिः ॥७॥ हे सत्य-समर्थक अश्विनीकुमारो ! आप दूर हों या पास हों, वहाँ से उत्तम गतिमान् रथ से सूर्य रश्मियों के साथ हमारे पास आयें ॥७॥ अर्वाञ्चा वां सप्तयोऽध्वरश्रियो वहन्तु सवनेदुप । इषं पृञ्चन्ता सुकृते सुदानव आ बर्हिः सीदतं नरा ॥८॥ हे देवपुरुषो अश्विनीकुमारो ! यज्ञ की शोभा बढ़ाने वाले आपके अश्व आप दोनों को सोमयाग के समीप ले आयें। उत्तम कर्म करने वाले और दान देने वाले याजकों के लिये अन्नों की पूर्ति करते हुए आप दोनों कुश के आसनों पर बैठे ॥८॥ तेन नासत्या गतं रथेन सूर्यत्वचा । येन शश्वदूहथुर्दाशुषे वसु मध्वः सोमस्य पीतये ॥९॥ हे सत्य – समर्थक अश्विनीकुमारो ! सूर्य सदृश तेजस्वी जिस रथ से दाता याजकों के लिए सदैव धन लाकर देते रहे हैं, उसी रथ से आप मीठे सोमरस पान के लिये पधारें ॥९॥ उक्थेभिरर्वागवसे पुरुवसू अर्कैश्च नि ह्वयामहे । शश्वत्कण्वानां सदसि प्रिये हि कं सोमं पपथुरश्विना ॥१०॥ हे विपुल धन वाले अश्विनीकुमारौ ! अपनी रक्षा के निमित्त हम स्तोत्रों और पूजा-अर्चनाओं से बार-बार आपका आवाहन करते हैं। कण्व वंशजों की यज्ञ सभा में आप सर्वदा सोमपान करते रहे हैं॥१०॥

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