Kevalyopanishat-Chapter-2 (केवल्योपनिषत्‌ द्वितीय खण्ड)

॥ द्वितीय खण्ड ॥ अणोरणीयानहमेव तद्वन्महानहं विश्वमहं विचित्रम् । पुरातनोऽहं पुरुषोऽहमीशो हिरण्मयोऽहं शिवरूपमस्मि ॥ २०॥ मैं (परब्रह्म) अणु से भी अणु अर्थात् परमाणु हूँ, ठीक ऐसे ही मैं महान् से महानतम अर्थात् विराट्। पुरुष हैं, यह विचित्रताओं से भरा-पूरा सम्पूर्ण विश्व ही मेरा स्वरूप है। मैं पुरातन पुरुष हूँ, मैं ही ईश्वर हूँ, मैं | ही हिरण्यमय पुरुष हूँ और मैं ही शिवस्वरूप (परमतत्त्व हूँ) ॥२०॥ अपाणिपादोऽहमचिन्त्यशक्तिः पश्याम्यचक्षुः स शृणोम्यकर्णः । अहं विजानामि विविक्तरूपो न चास्ति वेत्ता मम चित्सदाऽहम् ॥ २१ वेदैरनेकैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् । न पुण्यपापे मम नास्ति नाशो न जन्म देहेन्द्रियबुद्धिरस्ति ॥ २२॥ वह हाथ-पैरों से रहित होते हुए भी सतत गतिशील है, जो चिन्तन से परे है, ऐसा शक्ति स्वरूप ब्रह्म मैं ही हूँ। मैं नेत्रों के अभाव में सभी कुछ देखता हूँ, कानों के बिना भी सब कुछ श्रवण करता हूँ, बुद्धि आदि से पृथक् होकर भी मैं सब कुछ जानता हूँ; किन्तु मुझे जानने वाला कोई नहीं है, मैं सदा ही चित् स्वरूप हूँ। समस्त वेद-उपनिषदादि द्वारा मैं ही जानने योग्य हूँ। मैं ही वेदान्त का कर्ता हूँ और वेदवेत्ता भी स्वयं मैं ही हूँ ॥२१-२२॥ न भूमिरापो न च वह्निरस्ति न चानिलो मेऽस्ति न चाम्बरं च । एवं विदित्वा परमात्मरूपं गुहाशयं निष्कलमद्वितीयम् ॥ २३ ॥ मुझ (ब्रह्म) को पुण्य-पापादि कर्म स्पर्श नहीं करते, मैं कभी विनष्ट नहीं होता और न ही मेरा कभी जन्म ही होता है। न मेरे शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ ही हैं। मेरे लिए न भूमि है, न जल है, न अग्नि है, न वायु है और न आकाश तत्त्व ही है॥२३॥ समस्तसाक्षिं सदसद्विहीनं प्रयाति शुद्धं परमात्मरूपम् ॥ यः शतरुद्रियमधीते सोऽग्निपूतो भवति सुरापानात्पूतो भवति स ब्रह्महत्यायाः पूतो भवति स सुवर्णस्तेयात्पूतो भवति स कृत्याकृत्यात्पूतो भवति तस्मादविमुक्तमाश्रितो भवत्यत्याश्रमी सर्वदा सकृद्वा जपेत् ॥ ॥ २४॥ अनेन ज्ञानमाप्नोति संसारार्णवनाशनम् । तस्मादेवं विदित्वैनं कैवल्यं पदमश्नुते कैवल्यं पदमश्नुत इति ॥ २५॥ जो भी मनुष्य अविनाशी ब्रह्म को इस प्रकार से गुहा-अर्थात् बुद्धि के गह्वर में स्थित, निष्कल (अंग विहीन) एवं अद्वितीय, सदसत् से परे, सभी के साक्षीरूप में विद्यमाने जानता है, वह पवित्रतम परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर लेता है। जो भी मनुष्य इस शतरुद्रिय का पाठ करता है, वह अग्नि के सदृश पवित्र हो जाता है, वायु की भाँति गतिशील रहते हुए शुचिता का वरण करता है। वह सुरापान और ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्त हो जाता है; उसे स्वर्ण की चोरी का पाप भी नहीं लगता, शुभाशुभ कर्मों से उसका उद्धार हो जाता है। भगवान् सदाशिव के प्रति समर्पित हो वह अविमुक्त स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। इसलिए जो (मनुष्य) आश्रम से अतीत हो गये हैं, ऐसे उन परमहंसों को सर्वदा या फिर कम से कम एक बार इस (उपनिषद्) का पाठ अवश्य करना चाहिए ॥२४-२५॥ ॥ इति द्वितीयः खण्डः ॥ ॥ द्वितीय खण्ड समाप्त ॥ ॥ हरि ॐ ॥ शान्तिपाठ ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥ १९॥ परमात्मा हम दोनों गुरु शिष्यों का साथ साथ पालन करे। हमारी रक्षा करें। हम साथ साथ अपने विद्याबल का वर्धन करें। हमारा अध्यान किया हुआ ज्ञान तेजस्वी हो। हम दोनों कभी परस्पर द्वेष न करें। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हमारे, अधिभौतिक, अधिदैविक तथा तथा आध्यात्मिक तापों (दुखों) की शांति हो। ॥ इति कैवल्योपनिषत् ॥ ॥ कैवल्य उपनिषद समाप्त ॥

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