Maha Upanishad Chapter 6 (महा उपनिषद) छठा अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥ महोपनिषत् ॥ ॥ महा उपनिषद ॥ षष्ठोऽध्यायः छठा अध्याय अन्तरास्थां परित्यज्य भावश्रीं भावनामयीम् । योऽसि सोऽसि जगत्यस्मिंल्लीलया विहरानघ ॥ १॥ सर्वत्राहमकर्तेति दृढभावनयानया । परमामृतनाम्नी सा समतैवावशिष्यते ॥ २॥ हे निष्पाप! अन्तरंग की आस्था एवं भावनायुक्त भावों की सम्पदा का परित्याग करके आप अपने वास्तविक रूप में संसार में सुखपूर्वक विचरण करें। सभी जगह स्वयं को अकर्ता मानें, इस सुदृढ़ भावना से परम अमृत नाम की समता (एकरसता) ही अवशिष्ट रहती है॥१-२॥ खेदोल्लासविलासेषु स्वात्मकर्तृतयैकया । स्व वसंकल्पे क्षयं याते समतैवावशिष्यते ॥ ३॥ समता सर्वभावेषु यासौ सत्यपरा स्थितिः । तस्यामवस्थितं चित्तं न भूयो जन्मभाग्भवेत् ॥ ४॥ दुःख और उल्लास-विलास-ये मनुष्य द्वारा स्वतः उत्पादित हैं। अपने संकल्प के क्षय होने पर समता भाव ही अवशेष रहता है। सभी पदार्थों में समता की वास्तविक स्थिति को चित्त में निष्ठापूर्वक धारण कर लेने पर आवागमन का चक्र समाप्त हो जाता है॥३-४॥ अथवा सर्वकर्तृत्वमकर्तृत्वं च वै मुने । सर्वं त्यक्त्वा मनः पीत्वा योऽसि सोऽसि स्थिरो भव ॥ ५॥ शेषस्थिरो समाधानो येन त्यजसि तत्त्यज । चिन्मनःकलनाकारं प्रकाशतिमिरादिकम् ॥ ६॥ वासनां वासितारं च प्राणस्पन्दनपूर्वकम् । समूलमखिलं त्यक्त्वा व्योमसाम्यः प्रशान्तधीः ॥ ७॥ हे मुने! सभी कर्तव्य तथा अकर्तव्य का त्यागकर, मन का पान कर आप अपने वास्तविक स्वरूप में स्थिर हों। बाद में समाधिस्थ होकर जिससे आप त्याग किया करते हैं, उसे भी छोड़ दें। चेतन ने ही मानसिक संकल्प का आकार धारण कर रखा है, वही प्रकाश और अंधकार का रूप धारण किये हुए है। अतः प्राणस्पन्दन के साथ- साथ वासना का सम्पूर्ण परित्याग करके आकाश की तरह निर्मल और शान्त मन वाले बनें ॥५-७॥ हृदयात्सम्परित्यज्य सर्ववासनपङ्क्तयः । यस्तिष्ठति गतव्यग्रः स मुक्तः परमेश्वरः ॥ ८॥ दृष्टं द्रष्टव्यमखिलं भ्रान्तं भ्रान्त्या दिशो दश । युक्त्या वै चरतो ज्ञस्य संसारो गोष्पदाकृतिः ॥ ९॥ सबाह्याभ्यन्तरे देहे ह्यध ऊर्ध्वं च दिक्षु च । इत आत्मा ततोऽप्यात्मा नास्त्यनात्ममयं जगत् ॥ १०॥ मुक्त और शान्त वही है, जो हृदय से सभी वासनाओं को छोड़ देता है, वही परमेश्वर है। वह दसों दिशाओं में घूमते हुए भ्रान्तिवश द्रष्टव्य पदार्थों को देखने में सक्षम है। प्रयत्नपूर्वक आचरणशील ज्ञानीपुरुषों के लिए यह संसार गोष्पद (गाय का खुर) की तरह सहज ही पार उतरने योग्य बन जाता है। शरीर के बाहर भीतर, ऊपरनीचे तथा सभी दिशाओं में सर्वत्र आत्मा ही विद्यमान है, उसके निमित्त यह संसार अनात्ममय नहीं होता ॥८-१०॥ न तदस्ति न यत्राहं न तदस्ति न तन्मयम् । किमन्यदभिवाञ्छामि सर्वं सच्चिन्मयं ततम् ॥ ११॥ समस्तं खल्विदं ब्रह्म सर्वमात्मेदमाततम् । अहमन्य इदं चान्यदिति भ्रान्तिं त्यजानघ ॥ १२॥ तते ब्रह्मघने नित्ये संभवन्ति न कल्पिताः । न शोकोऽस्ति न मोहोऽस्ति न जरास्ति न जन्म वा ॥ १३ ॥ हे निष्पाप! 'यह और है" मैं अन्य हूँ', इस प्रकार की भ्रान्त-धारणा का परित्याग कर दे। ऐसा कोई स्थल नहीं, जहाँ मेरा अस्तित्व नहीं, उस वस्तु का अभाव है, जो आत्मरूप न हो। मैं ऐसी कौन सी वस्तु की। कामना करूं? सब में सत् और चिन्मय तत्त्व संव्याप्त है। यह सब कुछ ब्रह्ममय ही है, सबमें आत्मा का ही विस्तार है। सर्वव्यापी और नित्य सच्चिदानन्द घन ब्रह्म में काल्पनिक भावों की सम्भावना नहीं है। यह तत्त्व शोक, मोह, जरा और जन्म से रहित है॥११-१३॥ यदस्तीह तदेवास्ति विज्वरो भव सर्वदा । यथाप्राप्तानुभवतः सर्वत्रानभिवाञ्छनात् ॥ १४॥ त्यागादानपरित्यागी विज्वरो भव सर्वदा । यस्येदं जन्म पाश्चात्यं तमाश्वेव महामते ॥ १५॥ विशन्ति विद्या विमला मुक्ता वेणुमिवोत्तमम् । विरक्तमनसां सम्यक्स्वप्रसङ्गादुदाहृतम् ॥ १६॥ द्रष्टुर्दृश्यसमायोगात्प्रत्ययानन्दनिश्चयः । यस्तं स्वमात्मतत्त्वोत्थं निष्पन्दं समुपास्महे ॥ १७॥ द्रष्टृदर्शनदृश्यानि त्यक्त्वा वासनया सह । दर्शनप्रत्ययाभासमात्मानं समुपास्महे ॥ १८ ॥ आत्मतत्त्व में जो विद्यमान है, वही सब कुछ है। अतएव हमेशा सभी जगह किसी पदार्थ की अभिलाषा न करते हुए सहज में जो उपलब्ध हो, उसी का आसक्तिरहित होकर उपभोग करते हुए शोकरहित होकर रहना चाहिए। किसी वस्तु का न तो परित्याग और न ग्रहण- इस प्रकार सन्तापहीन होकर रहना चाहिए। हे महामते ! जिस व्यक्ति का यह जन्म आखिरी है (अर्थात् आगे जिसका जन्म नहीं होना है), उसमें शीघ्र ही श्रेष्ठ प्रजाति की मुक्ता के समान निर्मल विद्या प्रविष्ट होती है। जिनके मन में वैराग्य भाव है, ऐसे ज्ञानियों द्वारा अपने अनुभवजन्य ज्ञान से यह अभिव्यक्त किया गया है कि द्रष्टा को दृश्य के माध्यम से जो निश्चयात्मिको सुखानुभूति होती है, वह आत्मतत्त्व से प्रकट हुआ स्पन्दन है, जिसकी हम उत्तम रीति से उपासना करते हैं॥१४-१८॥ द्वयोर्मध्यगतं नित्यमस्तिनास्तीति पक्षयोः । प्रकाशनं प्रकाशानामात्मानं समुपास्महे ॥ १९॥ वासनात्मक चिन्तन के साथ द्रष्टा, दृश्य और दर्शन इन तीनों का परित्याग करके प्रकाशमान आत्मा के हम उपासक हैं। अस्ति-नास्ति के बीच विद्यमान प्रकाशों के भी प्रकाशक सनातन आत्मा के हम उपासक हैं॥१९॥ सन्त्यज्य हृद्‌गुहेशानं देवमन्यं प्रयान्ति ये । ते रत्नमभिवाञ्छन्ति त्यक्तहस्तस्थकौस्तुभाः ॥ २०॥ उत्थितानुत्थितानेतानिन्द्रियारीन्पुनः पुनः । हन्याद्विवेकदण्डेन वज्रेणेव हरिर्गिरीन् ॥ २१॥ हमारे हृदय में वह आत्मतत्त्व महेश्वर के रूप में विद्यमान है। जो पुरुष इस आत्मा को त्यागकर अन्य वस्तु की प्राप्ति हेतु यत्नशील हैं, वे अपने हाथ में स्थित कौस्तुभमणि को छोड़कर अन्य रत्न की अभिलाषा करते हैं। इन्द्र द्वारा वज्र से पर्वतों को तहस-नहस करने की तरह इन्द्रियरूपी शत्रु-चाहे बलवान् हों या कमजोर, उन्हें विवेकरूपी दण्डप्रहार से बारम्बार प्रताड़ित करना चाहिए ॥ २०-२१॥ संसाररात्रिदुःस्वप्ने शून्ये देहमये भ्रमे । सर्वमेवापवित्रं तदृष्टं संसृतिविभ्रमम् ॥ २२॥ अज्ञानोपहतो बाल्ये यौवने वनिताहतः । शेषे कलत्रचिन्तार्तः किं करोति नराधमः ॥ २३॥ सतोऽसत्ता स्थिता मूर्ध्नि रम्याणां मूर्ध्वरम्यता । सुखानां मूर्ध्निदुःखानि किमेकं संश्रयाम्यहम् ॥ २४॥ संसाररूपी रात्रि के दुःस्वप्नरूप और सर्वथा शून्यवत् इस शरीररूपी भ्रम में जो भी कुछ मायाजाल का प्रसार देखा है, वह सभी पवित्रता से परे है। बाल्यकाल में अज्ञानता से ग्रसित रहा, युवाकाल में वनिता (स्त्री) के द्वारा आहत किया गया और अब अन्तिम अवस्था में यह अधम मनुष्य स्त्री-पुत्रादि की चिन्ता में आर्त (दुःखी) होकर आखिर अपना क्या उपकार कर सकता है? सत् के मूर्धा (सिर) पर असत् का बोलबाला है। रमणीकता के ऊपर कुरूपता चढ़ी हुई है। सुखों के ऊपर दुःख प्रतिष्ठित हैं। ऐसी स्थिति में मैं किस एक का अवलम्बन प्राप्त करूं? ॥२२-२४॥ येषां निमेषणामेषौ जगतः प्रलयोदयौ । तादृशाः पुरुषा यान्ति मादृशां गणनैव का ॥ २५॥ संसार एव दुःखानां सीमान्त इति कथ्यते । तन्मध्ये पतिते देहे सुखमासाद्यते कथम् ॥ २६॥ जिनके निमेष एवं उन्मेष से इस संसार का विनाश एवं उत्पत्ति निश्चित है। इस प्रकार के सर्वश्रेष्ठ पुरुष भी जब काल-कवलित हो जाते हैं, तब मुझ जैसे सामान्य पुरुषों की तो गणना ही क्या है। इस नश्वर जगत् को ही दुःखों की अन्तिम परिधि माना गया है, उसमें शरीर के पड़े रहने पर सुखास्वादन किस प्रकार हो सकता है? ॥२५-२६॥ प्रबुद्धोऽस्मि प्रबुद्धोऽस्मि दुष्टश्चोरोऽयमात्मनः । मनो नाम निहन्म्येनं मनसास्मि चिरं हृतः ॥ २७॥ मा खेदं भज हेयेषु नोपादेयपरो भव । हेयादेयादृशौ त्यक्त्वा शेषस्थः सुस्थिरो भव ॥ २८॥ मैं प्रबुद्ध हो गया हूँ, मैं जाग गया हूँ। मेरी आत्मा को चुराने वाला दुष्ट चोर मेरा यह दूषित मन ही है। इसने न जाने मुझे कब अति दीर्घकाल से चुराकर अपने वश में कर लिया है। अब मैं इसे जान गया हूँ। अतः इसको विनष्ट कर डालूंगा। हेय पदार्थों के लिए दुःखित मत हो और उपादेय पदार्थों के प्रति आसक्त मत हो। हेय एवं उपादेय से सम्बन्धित दृष्टि का परित्याग करके शेष में प्रतिष्ठित होकर अवस्थित हो जाओ॥२७-२८॥ निराशता निर्भयता नित्यता समता ज्ञता । निरीहता निष्क्रियता सौम्यता निर्विकल्पता ॥ २९॥ धृर्मैत्री मनस्तुष्टिर्मृदुता मृदुभाषिता । हेयोपादेयनिर्मुक्ते ज्ञे तिष्ठन्त्यपवासनम् ॥ ३०॥ गृहीततृष्णाशबरीवासनाजालमाततम् । संसारवारिप्रसृतं चिन्तातन्तुभिराततम् ॥ ३१॥ अनया तीक्ष्णया तात छिन्धि बुद्धिशलाकया । वात्ययेवाम्बुदं जालं छित्त्वा तिष्ठ तते पदे ॥ ३२॥ इस नश्वर जगत् की ओर से निराशा, निर्भयता, नित्यता, अभिज्ञता, समता, निष्कामता, निष्क्रियता, सौम्यता, धृति, निर्विकल्पता, मैत्री, सन्तोष, मृदुता एवं मृदुभाषण आदि गुण वासनारहित तथा हेय (हीन) और उपादेय (उपयोगी) के प्रभाव से रहित प्रज्ञावान् पुरुष में निवास करते हैं। तृष्णारूपिणी भीलनी के द्वारा विस्तीर्ण किये हुए वासना रूपी जाल से तुम आबद्ध किये गये हो, चिन्ता रूपी रश्मियों के द्वारा संसार रूपी मृग-मरीचिकात्मक जल चतुर्दिक फैला दिया गया है। हे पुत्र निदाघ! जिस तरह बवण्डर से मेघ रूपी जाल छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, वैसे ही इस ज्ञानरूपी तीव्र बछी से उसे नष्ट करके अपने व्यापक स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाओ॥ २९-३२॥ मनसैव मनश्छित्त्वा कुठारेणेव पादपम् । पदं पावनमासाद्य सद्य एव स्थिरो भव ॥ ३३॥ तिष्ठन्नगच्छन्स्वपञ्जाग्रन्निवसन्नुत्पतन्पतन् । असदेवेदमित्यन्तं निश्चित्यास्तां परित्यज ॥ ३४॥ दृश्यमाश्रयसीदं चेत्तत्सच्चितोऽसि बन्धवान् । दृश्यं सन्त्यजसीदं चेत्तदाऽचित्तोऽसि मोक्षवान् ॥ ३५॥ जिस प्रकार वृक्ष द्वारा प्रदत्त बेंट का सान्निध्य पाकर कुल्हाड़ी वृक्ष को ही काट डालती है, उसी प्रकार मन के द्वारा ही मन को काटकर परम पावन अविनाशी पद को अतिशीघ्र प्राप्त करके स्थिर हो जाओ। खड़े रहते, चलते, जागते, सोते, निवास करते, बैठते, उठते तथा गिरते समय भी ये सभी कुछ असत् ही है; इस प्रकार का दृढ़ निश्चय रखो। दृश्य पदार्थों से आस्था का परित्याग कर दो; क्योंकि यदि दृश्य पदार्थ का आश्रय प्राप्त करते हो, तो चित्तमय होकर बन्धन में पड़ते हो तथा यदि दृश्य पदार्थ का पूरी तरह से त्याग करते हो, तो चित्त शुन्यता के कारण मोक्ष प्राप्ति के अधिकारी बनते हो ॥३३-३५॥ नाहं नेदमिति ध्यायंस्तिष्ठ त्वमचलाचलः । आत्मनो जगतश्चान्तर्द्रष्टृदृश्यदशान्तरे ॥ ३६॥ दर्शनाख्यं स्वमात्मानं सर्वदा भावयन्भव । स्वाद्यस्वादकसंत्यक्तं स्वाद्यस्वादकमध्यगम् ॥ ३७॥ स्वदनं केवलं ध्यायन्परमात्ममयो भव । अवलम्ब्य निरालम्बं मध्येमध्ये स्थिरो भव ॥ ३८॥ न मैं स्वयं हूँ और न ही यह संसार है, ऐसा चिन्तन करते हुए तुम पर्वत की भाँति अडिग होकर निवास करो। आत्मा एवं जगत् के मध्य द्रष्टा एवं दृश्य आदि इन दोनों स्थितियों के मध्य अपने आपको सदैव दर्शन स्वरूप आत्मा को ही मानते रहो। स्वादयुक्त पदार्थ एवं उस स्वाद युक्त पदार्थ के चखने वाले 'कर्ता' से भिन्न और इन दोनों के बीच में केवल स्वाद का चिन्तन करते हुए परमात्मस्वरूप होकर प्रतिष्ठित हो जाओ। बीचबीच में अवलम्बन रहित स्थिति का आश्रय प्राप्त करके एक स्थान पर स्थित हो जाओ॥३६-३८॥ रज्जुबद्धा विमुच्यन्ते तृष्णाबद्धा न केनचित् । तस्मान्निदाघ तृष्णा त्वं त्यज संकल्पवर्जनात् ॥ ३९॥ एतामहंभावमयीपपुण्यां छित्त्वानहंभाव शलाकयैव ॥ स्वभावजां भव्यभवन्तभूमौ भव प्रशान्ताखिलभूतभीतिः ॥ ४०॥ अहमेषां पदार्थानामेते च मम जीवितम् । नाहमेभिर्विना किंचिन्न मयैते विना किल ॥ ४१॥ इत्यन्तर्निश्चयं त्यक्त्वा विचार्य मनसा सह । नाहं पदार्थस्य न मे पदार्थ इति भाविते ॥ ४२॥ अन्तःशीतलया बुद्धया कुर्वतो लीलया क्रियाम् । यो नूनं वासनात्यागो ध्येयो ब्रह्मन्प्रकीर्तितः ॥ ४३॥ रज्जु (रस्सी) से बँधे हुए लोग तो मुक्त हो जाते हैं, लेकिन तृष्णा से आबद्ध प्राणि-समूह किसी के द्वारा भी मोक्ष को प्राप्त नहीं कराये जा सकते। इसलिए हे पुत्र निदाघ! तुम संकल्प का त्याग करते हुए तृष्णा को छोड़ने का प्रयास करो। अहंभाव से रहित इस बर्थी के द्वारा अहंभाव से युक्त, स्वभावतः प्रादुर्भूत हुई पापमयी इस तृष्णा को काटकर समस्त प्राणिवर्ग को उत्पन्न होने वाले भय से निर्भय होकर सौन्दर्ययुक्त परमार्थ लोक में भ्रमण करो। मैं इन समस्त पदार्थों का हूँ और ये सभी मेरे जीवन हैं, इनके अभाव में मैं कुछ भी नहीं हैं और न ही ये मेरे बिना कुछ हैं; अपने अन्तर्मन के द्वारा इस संकल्प को छोड़ दो। मन से विचार करो कि मैं इन पदार्थों का नहीं हैं और ये पदार्थ मेरे नहीं हैं, इस प्रकार की दृढ़ भावना करो। स्थिर शान्त चित्त से चिन्तन करते हुए विचारपूर्वक अपने कार्यों को सामान्य ढंग से सम्पन्न करते हुए जो वासना का त्याग किया जाता है, हे ब्रह्मन् ! वही वास्तविक ध्येय कहा गया है॥३९-४३॥ सर्वं समतया बुद्धया यः कृत्वा वासनाक्षयम् । जहाति निर्ममो देहं नेयोऽसौ वासनाक्षयः ॥ ४४॥ अहंकारमयीं त्यक्त्वा वासनां लीलयैव यः । तिष्ठति ध्येयसंत्यागी स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४५॥ जो पुरुष समत्व बुद्धि के द्वारा सदैव के लिए वासना का परित्याग करके ममतारहित हो जाता है, उसी से शरीर के बन्धनों का भी त्याग किया जा सकता है। इस कारण वासना का त्याग ही परम कर्तव्य है। जो मनुष्य अहंकार से युक्त वासना को सहजतापूर्वक त्याग करके, ध्येय वस्तु का सम्यक् रूपेण परित्याग करके प्रतिष्ठित होता है, वही पुरुष जीवन्मुक्त कहलाता है॥४४-४५॥ निर्मूलं कलनां त्यक्त्वा वासनां यः शमं गतः । ज्ञेयं त्यागमिमं विद्धि मुक्तं तं ब्राह्मणोत्तमम् ॥ ४६॥ जो मनुष्य संकल्परूप वासना को मूलसहित छोड़कर परमशक्ति को प्राप्त होता है, उसी का वह श्रेष्ठ त्याग समझने योग्य है। उसी को मुक्त हुआ तथा ब्रह्मवेत्ताओं में अनुपम जानो ॥४६॥ द्वावेतौ ब्रह्मतां यातौ द्वावेतौ विगतज्वरौ । आपतत्सु यथाकालं सुखदुःखेष्वनारतौ । संन्यासियोगिनौ दान्तौ विद्धि शान्तौ मुनीश्वर ॥ ४७॥ ईप्सितानीप्सिते न स्तो यस्यान्तर्वर्तिदृष्टिषु । सुषुप्तवद्यश्चरति स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४८ ॥ हर्षामर्षभयक्रोधकामकार्पण्यदृष्टिभिः । न हृष्यति ग्लायति यः परामर्शविवर्जितः ॥ ४९॥ बाह्यार्थवासनो‌द्भूता तृष्णा बद्धेति कथ्यते । सर्वार्थवासनोन्मुक्ता तृष्णा मुक्तेति भण्यते ॥ ५०॥ ये दोनों ही ब्रह्मतत्त्व को प्राप्त करते हैं, ये ही दोनों-सांसारिक ताप से मुक्त हैं। हे मुने! शम-दम से युक्त संन्यासी एवं योगी किसी भी काल में आ पड़ने वाले सुखों व दुःखों से युक्त नहीं होते। जिसके अन्तःकरण में इच्छा एवं अनिच्छा दोनों ही समाप्त हो गई है और जो सुषुप्तावस्था का आचरण करता है, वही पुरुष जीवन्मुक्त कहलाता है; जो वासनाओं से रहित है, वह हर्ष, अमर्ष, भय, क्रोध, काम एवं कार्पण्य की दृष्टि से न तो आनन्दित होता है और न ही दुःखी होता है। जो तृष्णा बाहर के विषयों की वासना से प्रकट होती है, वह बन्धन डालने वाली कही गयी है॥४७-५०॥ इदमस्तु ममेत्यन्तमिच्छां प्रार्थनयान्विताम् । तां तीक्ष्णां शृ‌ङ्खलां विद्धि दुःखजन्मभयप्रदाम् ॥ ५१॥ तामेतां सर्वभावेषु सत्स्वसत्सु च सर्वदा । संत्यज्य परमोदारं पदमेति महामनाः ॥ ५२॥ बन्धास्थामथ मोक्षास्थां सुखदुःखदशामपि । त्यक्त्वा सदसदास्थां त्वं तिष्ठाक्षुब्धमहाब्धिवत् ॥ ५३॥ जायते निश्चयः साधो पुरुषस्य चतुर्विधः ॥ ५४॥ आपादमस्तकमहं मातापितृविनिर्मितः । इत्येको निश्चयो ब्रह्मन्बन्धायासविलोकनात् ॥ ५५॥ अतीतः सर्वभावेभ्यो वालाग्रादप्यहं तनुः । इति द्वितीयो मोक्षाय निश्चयो जायते सताम् ॥ ५६॥ जगज्जाल पदार्थात्मा सर्व एवाहमक्षयः । तृतीयो निश्चयश्चोक्तो मोक्षायैव द्विजोत्तम ॥ ५७॥ जो तृष्णा सभी तरह के विषयों की वासना से रहित होती है, वह मोक्ष प्रदाता होती है। प्रार्थना के द्वारा किसी भी वस्तु के प्राप्ति की कामना ही दुःख, भय एवं जन्म प्रदात्री होती है। उसे घोर बन्धनस्वरूपा जानो। महात्माजन सत्-असत्रूप समस्त पदार्थों की इच्छा-आकांक्षा का हमेशा के लिए पूर्णरूपेण परित्याग करके परमउदार पद को प्राप्त करते हैं। बन्धन की सत्ता में आस्था एवं मोक्ष की आस्था तथा सुख-दुःख स्वरूपा सत् एवं असत् की आस्था-विश्वास का सदैव के लिए त्याग करके प्रशान्त महासागर के सदृश प्रतिष्ठित हो जाओ। हे महात्मन् ! पुरुष के चार तरह के निश्चय होते हैं, जिनमें से प्रथम निश्चय यह है कि 'पैर से सिर तक मेरी संरचना मेरे माता-पिता के संयोग से हुई है। हे ब्रह्मन्! अब द्वितीय निश्चय सुनें। बन्धन में दुःखों का अवलोकन कर 'मैं सभी तरह के जागतिक प्रपञ्चों-विकारों से परे बाल के अग्रभाग से भी अतिसूक्ष्म आत्मा हूँ।' यह निश्चय ज्ञानीजनों को मोक्ष दिलाने वाला कहा गया है। हे विप्रवर! तृतीय निश्चय यह है कि 'मैं सम्पूर्ण चराचर जगत् के पदार्थों की आत्मा हूँ, सर्वरूप एवं क्षयरहित हैं। इस प्रकार से यह तीसरा निश्चय मनुष्य की मुक्ति का विशेष कारण होता है॥५१-५७॥ अहं जगद्वा सकलं शून्यं व्योम समं सदा । एवमेष चतुर्थोऽपि निश्चयो मोक्षसिद्धिदः ॥ ५८॥ एतेषां प्रथमः प्रोक्तस्तृष्णया बन्धयोग्यया । शुद्धतृष्णास्त्रयः स्वच्छा जीवन्मुक्ता विलासिनः ॥ ५९॥ सर्वं चाप्यहमेवेति निश्चयो यो महामते । तमादाय विषादाय न भूयो जायते मतिः ॥ ६०॥ अब चौथा निश्चय सुनें, 'मैं या जगत् सभी कुछ आकाश की भाँति शून्य है।' यह चतुर्थ निश्चय पुरुष के लिए मोक्ष प्रदान करने वाला कहा गया है। इनमें से प्रथम निश्चय बन्धन में बाँधने वाला तथा तृष्णा (बन्धनभूता) से युक्त है। शेष तीनों निश्चय स्वच्छ, शुद्ध तृष्णा (बन्धनरहित) से समन्वित होते हैं तथा इन तीनों निश्चयों से युक्त मनुष्य जीवन्मुक्त एवं आत्मतत्त्व में विलास करने वाले होते हैं। हे परमश्रेष्ठ ज्ञानवान् मुने!' मैं ही सभी कुछ हूँ।' ऐसा जो दृढ़ निश्चय (संकल्प) है, उसे धारण करके बुद्धि पुनः विषाद को प्राप्त नहीं करती ॥ ५८-६०॥ शून्यं तत्प्रकृतिर्माया ब्रह्मविज्ञानमित्यपि । शिवः पुरुष ईशानो नित्यमात्मेति कथ्यते ॥ ६१॥ द्वैताद्वैतसमुद्‌भूतैर्जगन्निर्माणलीलया । परमात्ममयीशक्तिरद्वैतैव विजृम्भते ॥ ६२॥ सर्वातीतपदालम्बी परिपूर्णैकचिन्मयः । नोद्वेगी न च तुष्टात्मा संसारे नावसीदति ॥ ६३॥ आत्मा के नाम से कहा जाने वाला शून्य ही प्रकृति, माया, ब्रह्मज्ञान, पुरुष, ईशान, शिव, नित्य एवं ब्रह्मज्ञान आदि के नाम से जाना जाता है। परमात्मस्वरूपा अद्वैत शक्ति ही द्वैत एवं अद्वैत से प्रादुर्भूत हुए पदार्थों से संसार के निर्माण की लीला करके विकसित हो रही है। जो सभी तरह के मायाजाल से परे आत्मरूपी पद का आश्रय प्राप्त करके एक पूर्णरूपेण चिन्मयस्थिति में रहकर न कोई उद्योग करते हैं और न ही संतुष्ट होते हैं। इस जागतिक शोक में वे कभी नहीं पड़ते ॥६१-६३॥ प्राप्तकर्मकरो नित्यं शत्रुमित्रसमानदृक् । ईहितानीहितैर्मुक्तो न शोचति न काङ्क्षति ॥ ६४॥ सर्वस्याभिमतं वक्ता चोदितः पेशलोक्तिमान् । आशयज्ञश्च भूतानां संसारे नावसीदति ॥ ६५॥ हे पुत्र! जो मनुष्य नित्य प्राप्त कर्मों को करता है, शत्रु एवं मित्र को सम्यक् दृष्टि से देखता है और इच्छाअनिच्छा से मुक्ति प्राप्त कर चुका है, न विषाद करता है, न किसी भी तरह की वस्तुएँ पाने की आकांक्षा करता है, मृदुभाषी है, प्रश्नों के पूछने पर नम्रतापूर्वक उत्तर देता है तथा समस्त प्राणियों के भावों को जानने में सक्षम है; वही मनुष्य इस विश्व में विषाद को प्राप्त नहीं होता ॥ ६४-६५॥ पूर्वा दृष्टिमवष्टभ्य ध्येयत्यागविलासिनीम् । जीवन्मुक्ततया स्वस्थो लोके विहर विज्वरः ॥ ६६॥ अन्तः संत्यक्तसर्वाशो वीतरागो विवासनः । बहिःसर्वसमाचारो लोके विहर विज्वरः ॥ ६७॥ प्रथम दृष्टि (आत्मदृष्टि) को लक्ष्य करके विलास की कामना का त्याग करके सांसारिक ताप से रहित होकर तथा अन्तरात्मा में प्रतिष्ठित होकर इस संसार में जीवन्मुक्त की तरह से भ्रमण करो। सभी प्रकार की आशाओं को हृदय से निकाल कर, वीतराग तथा वासना-रहित होकर बाह्य-मन से सभी सांसारिक रीतिरिवाजों का सम्यक् रूप से पालन करते हुए जगत् में तापविहीन होकर निरन्तर प्रवहमान रहो॥ ६६-६७॥ बहिःकृत्रिमसंरंभो हृदि संरम्भवर्जितः । कर्ता बहिरकर्तान्तर्लोक विहर शुद्धधीः ॥ ६८ ॥ त्यक्ताहंकृतिराश्वस्तमतिराकाशशोभनः । अगृहीतकलङ्काङ्को लोके विहर शुद्धधीः ॥ ६९॥ बाह्य वृत्ति से बनावटी क्रोध का अभिनय करते हुए एवं हृदय से क्रोधरहित, बाहर से कर्ता एवं अन्दर से अकर्ता बने रहकर शुद्धभाव से जगत् में सर्वत्र रमण करो। अहं को त्यागकर शान्त चित्त हो, कलङ्क रूपी कालिमा से सदैव के लिए मुक्त हो जाओ। आकाश के सदृश शुद्ध-परिष्कृत जीवन प्राप्त करके पवित्र सद्बुद्धि को धारण करके लोक में विचरण करो ॥ ६८-६९॥ उदारः पेशलाचारः सर्वाचारानुवृत्तिमान् । अन्तःसङ्गपरित्यागी बहिःसंभारवानिव । अन्तर्वैराग्यमादाय बहिराशोन्मुखेहितः ॥ ७० ॥ अयं बन्धुरयं नेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥ ७१॥ भावाभावविनिर्मुक्तं जरामरणवर्जितम् । प्रशान्तकलनारभ्यं नीरागं पदमाश्रय ॥ ७२॥ एषा ब्राह्मी स्थितिः स्वच्छा निष्कामा विगतामया । आदाय विहरन्नेवं संकटेषु न मुह्यति ॥ ७३॥ उदार एवं उत्तम आचरण से सम्पन्न, सभी श्रेष्ठ आचार-विचारों का अनुगमन करते हुए अन्दर से आसक्ति-रहित होते हुए भी बाहर से सतत प्रयत्न करता रहे। अन्तःकरण में पूरी तरह से वैराग्य को धारण करते हुए बाहर से आशावादी बनकर श्रेष्ठ व्यवहार करे। यह मेरा अपना (मित्र) है और वह नहीं है, ऐसे निकृष्ट विचार क्षुद्र मनुष्यों के होते हैं। उदार चरित वालों के लिए तो समस्त वसुधा ही अपना परिवार है। जो व्यक्ति भाव-अभाव से मुक्ति प्राप्त कर सका है, जन्म-मृत्यु से परे है, जहाँ पर सभी संकल्प सम्यक् रूप से शान्ति को प्राप्त हो जाते हैं, ऐसे रागविहीन तथा रमणीक पद का अवलम्बन ग्रहण करो। यह पवित्र, निष्काम, दोषरहित ब्राह्मी स्थिति है ॥७०- ७३॥ वैराग्येणाथ शास्त्रेण महत्त्वादिगुणैरपि । यत्संकल्पहरार्थं तत्स्वयमेवोन्नयेन्मनः ॥ ७४॥ वैराग्यात्पूर्णतामेति मनो नाशवशानुगम् । आशया रक्ततामेति शरदीव सरोऽमलम् ॥ ७५॥ तमेव भुक्तिविरसं व्यापारौघं पुनः पुनः । दिवसेदिवसे कुर्वन्प्राज्ञ कस्मान्न लज्जते ॥ ७६॥ चिच्चैत्यकलितो बन्धस्तन्मुक्तौ मुक्तिरुच्यते । चिदचैत्या किलात्मेति सर्वसिद्धान्तसंग्रहः ॥ ७७॥ इसको स्वीकार करके विहार करता हुआ मनुष्य विपत्तिकाल में भी मोहग्रस्त नहीं होता। शास्त्रों के ज्ञान से या फिर वैराग्य से और महान् सद्गुणों के द्वारा जिस संकल्प को विनष्ट किया जाता है, उससे मन स्वतः ही उन्नतावस्था को प्राप्त होने लगता है। निराशा के वश में हुआ जो मन वैराग्य के द्वारा पूर्णता को प्राप्त कर लेता है, वही आशान्वित होने पर शरत्कालीन ऋतु में स्वच्छ सरोवर की भाँति रोग युक्त हो जाता है; किन्तु भोगों से विरक्त हुए मन को बार-बार प्रत्येक दिन रागादि व्यापारों में डालते हुए ज्ञानी पुरुष लज्जित क्यों नहीं होते ? चित् एवं विषय का योग ही बन्धन कहलाता है। उस योग से छुटकारा प्राप्त करना ही मोक्ष कहलाता है॥७४-७७ ॥ एतन्निश्चयमादाय विलोकय धियेद्धया । स्वयमेवात्मनात्मानमानन्दं पदमाप्स्यसि ॥ ७८ ॥ चिदहं चिदिमे लोकाश्चिदाशाश्चिदिमाः प्रजाः । दृश्यदर्शननिर्मुक्तः केवलामलरूपवान् ॥ ७९॥ नित्योदितो निराभासो द्रष्टा साक्षी चिदात्मकः ॥ ८०॥ निश्चय पूर्वक विषयरहित चित् को ही आत्मा कहा गया है, यही समस्त वेदान्त-सिद्धान्त का सार है। इस विचार को सत्य मानकर प्रदीप्त अन्तःकरण के द्वारा स्वयमेव अपने आप को देखो। इसमें असीम आनन्द पद की प्राप्ति होगी। मैं चित् स्वरूप हूँ। ये समस्त लोक चित् हैं, दिशाएँ एवं ये सभी प्राणि-समुदाय भी चित् स्वरूप हैं। दृश्य एवं दर्शन से छुटकारा प्राप्त करके, मात्र परिष्कृत स्वरूप वाला साक्ष्यरूप चिदात्मा आभासरहित एवं नित्य प्रादुर्भूत होकर द्रष्टा बन रहा है॥७८-८०॥ चैत्यनिर्मुक्तचिद्रूपं पूर्णज्योतिः स्वरूपकम् । संशान्तसर्वसंवेद्यं संविन्मात्रमहं महत् ॥ ८१॥ संशान्तसर्वसंकल्पः प्रशान्तसकलेषणः । निर्विकल्पपदं गत्वा स्वस्थो भव मुनीश्वर ॥ ८२॥ मैं विषय वासनाओं से मुक्त होकर पूर्णरूपेण ज्योतिरूप होकर समस्त संवेदना से पूरी तरह से मुक्त होकर चित्स्वरूप और महान् संवित् (ज्ञानमय) हूँ। हे मुने! सभी संकल्पों को पूर्णरूपेण शान्त करके, सभी कामनाओं को त्यागकर निर्विकल्प पद में प्रविष्ट होकर आत्मा में प्रतिष्ठित हो जाओ ॥ ८१-८२॥ इति । य इमां महोपनिषदं ब्राह्मणो नित्यमधीते । अश्रोत्रियः श्रोत्रियो भवति । अनुपनीत उपनीतो भवति । सोऽग्निपूतो भवति । स वायुपूतो भवति । स सोमपूतो भवति । स सत्यपूतो भवति । स सर्वपूतो भवति । स सर्वर्देवैर्शातो भवति । स सर्वेषु तीर्थेषु स्नातो भवति । स सर्वैर्देवैरनुध्यातो भवति । स सर्वक्रतुभिरिष्टवान्भवति । गायत्र्याः षष्टिसहस्राणि जप्तानि फलानि भवन्ति । इतिहासपुराणानां शतसहस्राणि जप्तानि फलानि भवन्ति । प्रणवानामयुतं जप्तं भवति । आचक्षुषः पङ्क्तिं पुनाति । आसप्तमान्पुरुषयुगान्पुनाति । इत्याह भगवान् हिरण्यगर्भः । जप्येनामृतत्त्वं च गच्छतीत्युपनिषत् । जो श्रेष्ठ ब्राह्मण इस महोपनिषद् का प्रतिदिन पाठ करता है, वह यदि अश्रोत्रिय होता है, तो श्रोत्रिय हो जाता है। यदि वह उपनीत नहीं है, तो उपनीत (सदृश) हो जाता है। वह अग्नि के समान पवित्र होता है, वायु की भाँति परिष्कृत तथा वह सोमपूत और सत्यपूत हो जाता है। वह सर्वथा पूर्णशुद्ध हो जाता है। वह समस्त देवों में सुपरिचित हो जाता है। उसे सभी तीर्थ स्थलों के स्नान का फल प्राप्त हो जाता है। वह सभी यज्ञों का अनुष्ठान संकल्प कर लेने में समर्थ हो जाता है। सहस्रों गायत्री महामन्त्र के जप का फल उसे इस उपनिषद् के अध्ययन. से मिल जाता है। सहस्रों इतिहास-पुराण एवं रुद्र पाठ का फल उसे प्राप्त हो जाता है। दस सहस्त्र प्रणव (ओंकार) के जप का फल उसे प्राप्त हो जाता है। जहाँ तक उसकी दृष्टि जाती है, वहाँ तक उस पंक्ति को वह पवित्र कर देता है। भगवान् हिरण्यगर्भ ब्रह्माजी ने कहा है कि इस (उपनिषद्) का जप करने मात्र से अमृतत्व की प्राप्ति हो जाती है। यही इस उपनिषद् का रहस्य है॥८३॥ ॥ इति षष्ठोऽध्यायः ॥ ६॥ ॥ छठा अध्याय समाप्त ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥ शान्तिपाठ ॥ हरिः ॐ ॥ ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः ्थ श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि । सर्वं ब्रह्मौपनिषदंमाऽहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु । तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु । मेरे सभी अंग पुष्ट हों तथा मेरे वाक्, प्राण, चक्षु, श्रोत, बल तथा सम्पूर्ण इन्द्रियां पुष्ट हों। यह सब उपनिशद्वेद्य ब्रह्म है। मैं ब्रह्म का निराकरण न करूँ तथा ब्रह्म मेरा निराकरण न करें अर्थात मैं ब्रह्म से विमुख न होऊं और ब्रह्म मेरा परित्याग न करें। इस प्रकार हमारा परस्पर अनिराकरण हो, अनिराकरण हो । उपनिषदों मे जो धर्म हैं वे आत्मज्ञान मे लगे हुए मुझ मे स्थापित हों। मुझ मे स्थापित हों। ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ भगवान् शांति स्वरुप हैं अतः वह मेरे अधिभौतिक, अधिदैविक और अध्यात्मिक तीनो प्रकार के विघ्नों को सर्वथा शान्त करें । ॥ इति महोपनिषत्समाप्ता ॥ ॥ महा उपनिषद समात ॥

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