ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ३

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ३ ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः । देवता - वैश्वानरोऽग्निः । छंद - जगती वैश्वानराय पृथुपाजसे विपो रत्ना विधन्त धरुणेषु गातवे । अग्निर्हि देवाँ अमृतो दुवस्यत्यथा धर्माणि सनता न दूदुषत् ॥१॥ ज्ञानी स्तोतागण सन्मार्ग पर अनुगमन के लिए यज्ञों में व्यापक बल संयुक्त वैश्वानर अग्निदेव की सेवा करते हैं। अमर अग्निदेव हव्यादि पहुँचाकर देवों की सेवा करते हैं। अतएव यह सनातन (यज्ञीय) धर्म कभी प्रदूषण पैदा नहीं करता ॥१॥ अन्तर्दूतो रोदसी दस्म ईयते होता निषत्तो मनुषः पुरोहितः । क्षयं बृहन्तं परि भूषति युभिर्देवेभिरग्निरिषितो धियावसुः ॥२॥ सुन्दर अग्निदेव, होता तथा दूत के रूप में द्युलोक एवं पृथ्वी लोक में संचरित होते हैं। देवों द्वारा प्रेरित ज्ञान-सम्पन्न ये अग्निदेव मनुष्यों के बीच पुरोहित रूप में अधिष्ठित होकर अपने तेजों से महान् यज्ञ गृह को सुशोभित करते हैं॥२॥ केतुं यज्ञानां विदथस्य साधनं विप्रासो अग्निं महयन्त चित्तिभिः । अपांसि यस्मिन्नधि संदधुर्गिरस्तस्मिन्त्सुम्नानि यजमान आ चके ॥३॥ मेधावीजन यज्ञों के केतु (विज्ञापक) और साधन रूपी अग्नि का पूजन अपने ज्ञान एवं कर्म आदि से करते। हैं। जिस अग्नि में स्तोताजन अपने कर्मों को अर्पित करते हैं, उसी अग्नि से यजमान सुखादि की कामना करता है॥३॥ पिता यज्ञानामसुरो विपश्चितां विमानमग्निर्वयुनं च वाघताम् । आ विवेश रोदसी भूरिवर्पसा पुरुप्रियो भन्दते धामभिः कविः ॥४॥ वे अग्निदेव यज्ञों के पोषणकर्ता पिता रूप हैं। वे स्तोताओं के प्राण- दाता और विजों के हव्यादि वाहक हैं। वे अग्निदेव विविध रूपों में द्यावा-पृथिवीं में प्रविष्ट होते हैं। बहुतों के प्रिय और मेधावी वे अग्निदेव अपने तेज़ से प्रदीप्त होते हैं ॥४॥ चन्द्रमग्निं चन्द्ररथं हरिव्रतं वैश्वानरमप्सुषदं स्वर्विदम् । विगाहं तूर्णि तविषीभिरावृतं भूर्णि देवास इह सुश्रियं दधुः ॥५॥ चन्द्र की तरह (आनंदित करने वाले) अग्निदेव, तेजस्वी रथ वाले, शीघ्र कर्म करने वाले, जलों में निवास करने वाले और सर्वज्ञाता हैं। उन सर्वत्र व्याप्त होने वाले, शीघ्र गमनकारी, अनेक बलों से युक्त, भरण- पोषण कर्ता और उत्तम सुषमा युक्त वैश्वानर अग्निदेव को देवों ने इस लोक में स्थापित किया ॥५॥ अग्निर्देवेभिर्मनुषश्च जन्तुभिस्तन्वानो यज्ञं पुरुपेशसं धिया । रथीरन्तरीयते साधदिष्टिभिर्जीरो दमूना अभिशस्तिचातनः ॥६॥ यज्ञ के साधन रूप अग्निदेव कर्म कुशल ऋत्विजों द्वारा संचालित यजमानों के यज्ञ को सम्पादित करते हैं। सर्वत्र गतिमान्, शीघ्रगामी, दानशील, शत्रुनाशक अग्निदे द्यावा-पृथिवी के मध्य गमन करते हैं॥६॥ अग्ने जरस्व स्वपत्य आयुन्यूर्जा पिन्वस्व समिषो दिदीहि नः । वयांसि जिन्व बृहतश्च जागृव उशिग्देवानामसि सुक्रतुर्विपाम् ॥७॥ हम दीर्घ आयु और उत्तम पुत्रादि की प्राप्ति के लिए अग्निदेव की स्तुति करते हैं। हे अग्निदेव ! आप हमें बल से पूर्ण करें। हमें अन्न आदि प्रदान करें । हे चैतन्य अग्निदेव ! आप महान् यजमान को पूर्णायु से युक्त करें, क्योंकि आप उत्तम कर्म करने वाले तथा सत्पुरुषों एवं देवों के प्रिय हैं॥७॥ विश्पतिं यह्नमतिथिं नरः सदा यन्तारं धीनामुशिजं च वाघताम् । अध्वराणां चेतनं जातवेदसं प्र शंसन्ति नमसा जूतिभिर्वृधे ॥८॥ मनुष्य अपनी समृद्धि के लिए पालक रूप, महान्, अतिथि के सदृश पूजनीय, बुद्धि के प्रेरक, ऋत्विजों के प्रिय, यज्ञों के प्राण-स्वरूप, जातवेदा अग्निदेव को नमनपूर्वक पूजन करते हैं ॥८॥ विभावा देवः सुरणः परि क्षितीरग्निर्बभूव शवसा सुमद्रथः । तस्य व्रतानि भूरिपोषिणो वयमुप भूषेम दम आ सुवृक्तिभिः ॥९॥ स्तुत्य, उत्तम रथी, दीप्तिमान्, दिव्यगुण सम्पन्न अग्निदेव अपने बल से सम्पूर्ण प्रजाओं को व्याप्त करते हैं। हम घरों में स्थित होकर अनेकों के पोषक अग्निदेव के सम्पूर्ण कर्मों को अपने उत्तम स्तोत्रों से विभूषित करते हैं। ॥९॥ वैश्वानर तव धामान्या चके येभिः स्वर्विदभवो विचक्षण । जात आपृणो भुवनानि रोदसी अग्ने ता विश्वा परिभूरसि त्मना ॥१०॥ हे दूरदर्शी वैश्वानर अग्निदेव ! आप जिन तेजों के द्वारा सर्वज्ञाता हुए, उनकी हम स्तुति करते हैं। हे अग्निदेव ! आपने उत्पन्न होकर ही द्यावा-पृथिवीं और सम्पूर्ण लोकों को प्रकाश से पूर्ण किया है। आप अपनी शक्ति से सम्पूर्ण जनों को घेर लेने में समर्थ हैं॥१०॥ वैश्वानरस्य दंसनाभ्यो बृहदरिणादेकः स्वपस्यया कविः । उभा पितरा महयन्नजायताग्निर्धावापृथिवी भूरिरेतसा ॥११॥ वैश्वानर अग्निदेव के उत्तम कर्म से यजमानों को महान् ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। उत्तम यज्ञादि कर्म की इच्छा से वे एकमात्र मेधावी अग्निदेव यजमानों को धनादि दान कर देते हैं। वे अग्निदेव अपने प्रचुर बल से दोनों माता-पिता रूप द्यावा-पृथिवी को प्रतिष्ठा प्रदान करते हुए उत्पन्न हुए ॥११॥

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