ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १५८

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १५८ ऋषि - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - आश्विनौ । छंद - त्रिष्टुप, ६ अनुष्टुप वसू रुद्रा पुरुमन्तू वृधन्ता दशस्यतं नो वृषणावभिष्टौ । दस्रा ह यद्रेक्ण औचथ्यो वां प्र यत्सस्राथे अकवाभिरूती ॥१॥ हे सामर्थ्यवान्, शत्रुनाशक, सबके आश्रयरूप, दुष्टों के लिए रौद्ररूप, ज्ञानवान्, समृद्धिशाली अश्विनीकुमारो ! आप हमें अभीष्ट अनुदान प्रदान करें। उचथ्य के पुत्र दीर्घतमा के द्वारा धन सम्पदा प्राप्ति के लिए प्रार्थना किये जाने पर आप दोनों श्रेष्ठ संरक्षण सामथ्र्यों के साथ शीघ्रतापूर्वक पहुँचते हैं॥१॥ को वां दाशत्सुमतये चिदस्यै वसू यद्धेथे नमसा पदे गोः । जिगृतमस्मे रेवतीः पुरंधीः कामप्रेणेव मनसा चरन्ता ॥२॥ सबको आश्रय देने वाले हे अश्विनीकुमारो ! इस पृथ्वी पर जो भी आप की वन्दना करते हैं, आप दोनों उन्हें अनुदान प्रदान करते हैं । आपकी श्रेष्ठ बुद्धि की तुष्टि के लिए कौन क्या भेट दे सकता है ? हे सर्वत्र विचरणशील ! आप हमें धनों के साथ पोषक दुधारू गौएँ भी प्रदान करें ॥२॥ युक्तो ह यद्वां तौग्याय पेरुर्वि मध्ये अर्णसो धायि पज्रः । उप वामवः शरणं गमेयं शूरो नाज्म पतयद्भिरेवैः ॥३॥ हे अश्विनीकुमारो ! राजा तुम के पुत्र भुज्यु के संरक्षण के लिए आपने अपने गतिशील यान को सागर के बीच में ही अपनी सामर्थ्य से स्थिर किया। वीर पुरुष जैसे युद्ध में प्रविष्ट होते हैं, वैसे हीं संरक्षणपूर्ण आश्रय के लिए हम आप दोनों के पास पहुँचें ॥३॥ उपस्तुतिरौचथ्यमुरुष्येन्मा मामिमे पतत्रिणी वि दुग्धाम् । मा मामेधो दशतयश्चितो धाक्प्र यद्वां बद्धस्त्मनि खादति क्षाम् ॥४॥ उचथ्य के पुत्र दीर्घतमा कहते हैं कि हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों के निकट की गई प्रार्थना मेरी रक्षा करे। यह गतिशील दिन-रात्रि मुझे निचोड़ न लें । दशगुनी समिधाएँ डालकर प्रज्वलित की गई अग्नि मुझे भस्मीभूत न कर डाले। जिसने आपके इस श्रद्धालु उचध्य को बाँध दिया था, वही अब यहाँ धरती पर असहाय स्थिति में पड़ा है ॥४॥ न मा गरन्नद्यो मातृतमा दासा यदीं सुसमुब्धमवाधुः । शिरो यदस्य त्रैतनो वितक्षत्स्वयं दास उरो अंसावपि ग्ध ॥५॥ जब उचथ्य पुत्र दीर्घतमा को (मुझको) दस्युओं ने अच्छी प्रकार से जकड़कर और बाँधकर नदी में फेंक दिया (विसर्जित कर दिया), तब मातृरूपा उन नदियों ने संरक्षण प्रदान किया। जब मेरे सिर, छाती और कन्धे को काटने का प्रयत्न किया गया, तब आपकी कृपा एवं दिव्य संरक्षण से आपका सेवक (मैं) सुरक्षित रहा, दस्यु के ही अंग कट गये ॥५॥ दीर्घतमा मामतेयो जुजुर्वान्दशमे युगे । अपामर्थं यतीनां ब्रह्मा भवति सारथिः ॥६॥ ममता के पुत्र दीर्घतमा ऋषि दशमयुग अर्थात् एक सौ ग्यारहवें वर्ष में शारीरिक दृष्टि से वृद्धावस्था को प्राप्त हुए। उन्होंने संयमशील उत्तम कर्मों से धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरूपी पुरुषार्थ को प्राप्त किया। वे ब्रह्म ज्ञान सम्पन्न, सबके संचालन करने वाले सारथी के समान बने ॥६॥

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