ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १७६

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १७६ ऋषि - अगस्त्यो मैत्रावारुणिः देवता- इन्द्रःः। छंद -अनुष्टुप, ६ त्रिष्टुप मत्सि नो वस्यइष्टय इन्द्रमिन्दो वृषा विश । ऋघायमाण इन्वसि शत्रुमन्ति न विन्दसि ॥१॥ हे इन्द्रदेव ! एश्वर्य सम्पदा की प्राप्ति के लिये आप हमें आनन्दित करें । हे बलदायक सोम ! आप इन्द्रदेव के शरीर में प्रविष्ट हों । शत्रुओं का संहार करते हुए आप देवशक्तियों के अन्दर भी संव्याप्त हों तथा विकार रूपी शत्रुओं को समीप न आने दें ॥१॥ तस्मिन्ना वेशया गिरो य एकश्चर्षणीनाम् । अनु स्वधा यमुप्यते यवं न चकृषदृषा ॥२॥ जो इन्द्रदेव सम्पूर्ण प्रजाजनों के एकमात्र अधीश्वर हैं, जिन इन्द्रदेव के प्रति आप हविष्यान्न समर्पित करते हैं, जो शक्तिशाली इन्द्रदेव किसान द्वारा जो की फसल को काटने के समान ही शत्रुओं का संहार करते हैं। आप सभी उन्हीं इन्द्रदेव की स्तुतियों द्वारा अर्चना करें ॥२॥ यस्य विश्वानि हस्तयोः पञ्च क्षितीनां वसु । स्पाशयस्व यो अस्मधुग्दिव्येवाशनिर्जहि ॥३॥ हे इन्द्रदेव ! आपके हाथों में पाँचों प्रकार की प्रजाओं की वैभव सम्पदा है। ऐसे आप हमारे विद्रोहियों को परास्त करें और आकाश से गिरने वाली तड़ित विद्युत् के समान ही उनको विनष्ट करें ॥३॥ असुन्वन्तं समं जहि दूणाशं यो न ते मयः । अस्मभ्यमस्य वेदनं दद्धि सूरिश्चिदोहते ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! जो आपके लिए सोमाभिषवण नहीं करते, जो यज्ञकर्मों से विहीन दुष्कर्मी बड़ी कठिनाई से नियन्त्रण में आने वाले हैं, ऐसे दुष्टों का आप संहार करें। उनकी धनसम्पदा को हमें प्रदान करें ॥४॥ आवो यस्य द्विबर्हसोऽर्केषु सानुषगसत् । आजाविन्द्रस्येन्दो प्रावो वाजेषु वाजिनम् ॥५॥ स्तोत्रों के उच्चारण के समय सदैव उपस्थित रहकर आपने जिन दो प्रकार के (स्तोत्र-ज्ञानयज्ञ, आहुतिपरक हविर्यज्ञ) यज्ञों को सम्पन्न कराने वाले यजमानों की रक्षा की हैं। हे सोम! उसी प्रकार आप युद्ध के समय इन्द्रदेव की तथा ऐश्वर्यप्राप्ति के समय यजमानों की रक्षा करें ॥५॥ यथा पूर्वेभ्यो जरितृभ्य इन्द्र मय इवापो न तृष्यते बभूथ । तामनु त्वा निविदं जोहवीमि विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥६॥ हे इन्द्रदेव ! आप प्राचीन स्तोताओं के लिए प्यासे को जल और दुःख पीड़ितों के सुख प्राप्ति की भाँति ही आनन्ददायक और प्रीतियुक्त हुए। आपकी उन्हीं प्राचीन स्तुतियों द्वारा हम आपको आमन्त्रित करते हैं। आप वी कृपा से हम अन्न, बल और दीर्घजीवन प्राप्त करें ॥६॥

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