ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त ५१

ऋग्वेद-चतुर्थ मंडल सूक्त ५१ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - उषा । छंद - त्रिष्टुप इदमु त्यत्पुरुतमं पुरस्ताज्ज्योतिस्तमसो वयुनावदस्थात् । नूनं दिवो दुहितरो विभातीर्गातुं कृणवन्नुषसो जनाय ॥१॥ वह अत्यधिक विशाल तथा कर्मों में मनुष्यों को संलग्न करने वाला कांतिमान् तेज, पूर्व दिशा में तमिस्रा के बीच से ऊपर निकल रहा है। निश्चित रूप से सूर्य की पुत्री तथा दीप्तिमती उषाएँ याजकों के जाने के लिए मार्ग बता रही हैं ॥१॥ अस्थुरु चित्रा उषसः पुरस्तान्मिता इव स्वरवोऽध्वरेषु । व्यू व्रजस्य तमसो द्वारोच्छन्तीरव्रञ्छुचयः पावकाः ॥२॥ जिस प्रकार यज्ञ मण्डप में यूप खड़े रहते हैं, उसी प्रकार मनोहारिणी उषाएँ पूर्व दिशा में संव्याप्त हो रही हैं। वे उषाएँ गौओं के गोष्ठों के तमिस्रामय द्वारों को उद्घाटित करती हैं और अपने शुद्ध-विमल प्रकाश से संसार को व्यापती हैं ॥२॥ उच्छन्तीरद्य चितयन्त भोजात्राधोदेयायोषसो मघोनीः । अचित्रे अन्तः पणयः ससन्त्वबुध्यमानास्तमसो विमध्ये ॥३॥ आज अंधकार का निवारण करने वाली तथा ऐश्वर्य वाली उषाएँ भोजनदाता को ऐश्वर्य प्रदान करने के लिए जाग्रत् करती हैं। न जाग्रत होने वाले जो कंजूस वणिक हैं, वे अत्यधिक अंधकार में सोते रहें ॥३॥ कुवित्स देवीः सनयो नवो वा यामो बभूयादुषसो वो अद्य । येना नवग्वे अङ्गिरे दशग्वे सप्तास्ये रेवती रेवदूष ॥४॥ हे देवी उषाओ ! आप लोगों का वह पुरातन अथवा नवीन रथ आज इस यज्ञ में अनेकों बार गमन करता रहे। उस रथ के द्वारा नवग्व, दशग्व तथा सप्त मुख वाले अंगिरागणों (सात छन्द युक्त मुख वाले) के निमित्त आप ऐश्वर्य-सम्पन्न होकर प्रकाशित होती रहें ॥४॥ यूयं हि देवीऋतयुग्भिरश्वैः परिप्रयाथ भुवनानि सद्यः । प्रबोधयन्तीरुषसः ससन्तं द्विपाच्चतुष्पाच्चरथाय जीवम् ॥५॥ है देवी उषाओ ! आप यज्ञ में गमन करने वाले घोड़ों के द्वारा समस्त लोकों में चारों तरफ विचरण करती रहें तथा निद्राग्रस्त दो पैर वाले (मनुष्यों) और चार पैर वाले (पशुओं) जीवों को परिभ्रमण करने के लिए जाग्रत् करती रहें ॥५॥ क्व स्विदासां कतमा पुराणी यया विधाना विदधुर्ऋभूणाम् । शुभं यच्छुभ्रा उषसश्चरन्ति न वि ज्ञायन्ते सदृशीरजुर्याः ॥६॥ जिन उषाओं के निमित्त त्रभुओं ने चमस आदि विनिर्मित किया था, वे पुरानी उषाएँ कौन सी और कहाँ हैं? जब प्रदीप्त उषाएँ सौन्दर्य को प्रदर्शित करती हैं, तब नित्य नूतन होने पर एक रूप होकर रहती हैं। इसमें से कौन नयी और कौन पुरानी हैं, यह पता नहीं लगता ॥६॥ ता घा ता भद्रा उषसः पुरासुरभिष्टि‌द्युम्ना ऋतजातसत्याः । यास्वीजानः शशमान उक्थैः स्तुवञ्छंसन्द्रविणं सद्य आप ॥७॥ याज्ञिकगण जिन उषाओं का उक्थों स्तोत्रों द्वारा स्तवन करके तत्काल ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं, वे ही हित करने वाली उषाएँ प्राचीन काल से ही, पहुँचते ही ऐश्वर्य प्रदान करने वाली हैं। वे यज्ञ के निमित्त प्रकट हुई हैं तथा सत्य परिणाम प्रदान करती हैं ॥७॥ ता आ चरन्ति समना पुरस्तात्समानतः समना पप्रथानाः । ऋतस्य देवीः सदसो बुधाना गवां न सर्गा उषसो जरन्ते ॥८॥ वे उषाएँ समान रूप से पूर्व दिशा में चारों ओर विस्तृत हो रही हैं। वे एक जैसी उषाएँ समान आकाश के स्थान से फैलती हैं और यज्ञ स्थान को ज्ञापित करती हैं। वे देवी उषाएँ गौओं के झुण्ड के सदृश प्रशंसित होती हैं ॥८॥ ता इन्वेव समना समानीरमीतवर्णा उषसश्चरन्ति । गूहन्तीरभ्वमसितं रुशद्भिः शुक्रास्तनूभिः शुचयो रुचानाः ॥९॥ वे उषाएँ एक जैसी रंग-रूप वाली तथा अपरिमित रंगों से सम्पन्न होकर संचरित होती हैं। वे विस्तृत तमिस्रा को आच्छादित निरस्त कर देती हैं तथा अपने कान्तिपूर्ण शरीरों के द्वारा पवित्र प्रकाश को और भी देदीप्यमान कर देती हैं ॥९॥ रयिं दिवो दुहितरो विभातीः प्रजावन्तं यच्छतास्मासु देवीः । स्योनादा वः प्रतिबुध्यमानाः सुवीर्यस्य पतयः स्याम ॥१०॥ हे द्युलोक की दुहिता उषाओ! आप द्योतमान् देवियाँ हैं। आप हम लोगों को सन्तानों से युक्त ऐश्वर्य प्रदान करें। हे देवियो ! हम मनुष्य हर्ष प्राप्ति के लिए आपसे निवेदन करते हैं, जिससे हम लोग श्रेष्ठ सन्तानों से युक्त ऐश्वर्य के स्वामी हो सकें ॥१०॥ तद्वो दिवो दुहितरो विभातीरुप ब्रुव उषसो यज्ञकेतुः । वयं स्याम यशसो जनेषु तद्द्‌यौश्च धत्तां पृथिवी च देवी ॥११॥ हे प्रकाशमान सूर्य-पुत्री उषाओ ! हम याजक यज्ञ के निदेशक हैं। आपके समीप हम लोग स्तुति करते हैं, जिससे मनुष्यों के बीच में हम लोग यश तथा अन्न के अधिपति हो सकें। हमारी उस कामना को द्यावा-पृथिवी सफल करें ॥११॥

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