ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ६१

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ६१ ऋषि-नोधा गौतम देवता - अग्नि । छंद - त्रिष्टुप अस्मा इदु प्र तवसे तुराय प्रयो न हर्मि स्तोमं माहिनाय । ऋचीषमायाध्रिगव ओहमिन्द्राय ब्रह्माणि राततमा ॥१॥ शीघ्र कार्य करने वाले, मंत्रों द्वारा वर्णनीय, महान् कीर्ति वाले, अबाध गति वाले इन्द्रदेव के लिये हम प्रशंसात्मक मंत्रों का गान करते हुए हविष्यान्न अर्पित करते हैं॥१॥ अस्मा इदु प्रय इव प्र यंसि भराम्याङ्‌गुषं बाधे सुवृक्ति । इन्द्राय हृदा मनसा मनीषा प्रत्नाय पत्ये धियो मर्जयन्त ॥२॥ हम उन इन्द्रदेव के निमित्त हविष्य के समान स्तोत्र अर्पित करते हैं। शत्रुनाशक इन्द्रदेव के लिए हम उत्तम स्तुति गान करते हैं। ऋषिगण उन पुरातन इन्द्रदेव के लिए हृदय, मन और बुद्धि के द्वारा पवित्र स्तुति करते हैं॥२॥ अस्मा इदु त्यमुपमं स्वर्षां भराम्या‌ङ्गुषमास्येन । मंहिष्ठमच्छोक्तिभिर्मतीनां सुवृक्तिभिः सूरिं वावृधध्यै ॥३॥ हम महान् विद्वान् इन्द्रदेव को आकृष्ट करने वाली, उनकी महिमा के अनुरूप उत्तम स्तुतियों को निर्मल बुद्धि से नादपूर्वक उच्चारित करते हैं॥३॥ अस्मा इदु स्तोमं सं हिनोमि रथं न तष्टेव तत्सिनाय । गिरश्च गिर्वाहसे सुवृक्तीन्द्राय विश्वमिन्वं मेधिराय ॥४॥ जैसे त्वष्टादेव रथ का निर्माण करके इन्द्रदेव को प्रदान करते हैं, वैसे ही हम समस्त कामनाओं को सिद्ध करने वाले, स्तुत्य, मेधावी इन्द्रदेव के लिए अपनी वाणियों से सर्व प्रसिद्ध श्रेष्ठ स्तोत्रों का गान करते हैं ॥४॥ अस्मा इदु सप्तिमिव श्रवस्येन्द्रायार्क जुह्वा समज्जे । वीरं दानौकसं वन्दध्यै पुरां गूर्तश्रवसं दर्माणम् ॥५॥ अश्व को रथ से नियोजित करने के समान हम धन की कामना से इन्द्रदेव के निमित्त स्तोत्रों को वाणी से युक्त करते हैं। हम उन वीर, दानशील, विपुल यशस्वी, शत्रु के नगरों को ध्वस्त करने वाले इन्द्रदेव की वन्दना करते हैं॥५॥ अस्मा इदु त्वष्टा तक्षद्वत्रं स्वपस्तमं स्वर्यं रणाय । वृत्रस्य चिद्विदद्येन मर्म तुजन्नीशानस्तुजता कियेधाः ॥६॥ लक्ष्य को भली प्रकार बेधने वाले, शक्तिशाली वज्र को त्वष्टादेव ने युद्ध के निमित्त इन्द्रदेव के लिए तैयार किया। उसी वज्र से शत्रुनाशक, अतिबलवान् इन्द्रदेव ने वृत्र के मर्म स्थान पर प्रहार करके उसे मारा ॥६॥ अस्येदु मातुः सवनेषु सद्यो महः पितुं पपिवाञ्चार्वन्ना । मुषायद्विष्णुः पचतं सहीयान्विध्यद्वराहं तिरो अद्रिमस्ता ॥७॥ वृष्टि के द्वारा माता की भाँति जगत् का श्रेष्ठ निर्माण करने वाले, महान् इन्द्रदेव ने यज्ञों में हवि का सेवन किया और सोम का शीघ्र पान किया । उन सर्व व्यापक इन्द्रदेव ने शत्रुओं के धन को जीता और वज्र का प्रहार करके मेघों का भेदन किया ॥७॥ अस्मा इदु ग्नाश्चिद्देवपत्नीरिन्द्रायार्कमहिहत्य ऊवुः । परि द्यावापृथिवी जभ्र उर्वी नास्य ते महिमानं परि ष्टः ॥८॥ 'अहि' (गति हीनों) का हनन करने पर देव-पत्नियों ने इन्द्रदेव की स्तुति की । इन्द्रदेव ने फिर पृथ्वीलोक और द्युलोक को वश में किया। दोनों लोकों में उनकी सामर्थ्य के सामने कोई ठहर नहीं सकता ॥८॥ अस्येदेव प्र रिरिचे महित्वं दिवस्पृथिव्याः पर्यन्तरिक्षात् । स्वराळिन्द्रो दम आ विश्वगूर्तः स्वरिरमत्रो ववक्षे रणाय ॥९॥ इन्द्रदेव की महत्ता आकाश, पृथ्वी और अन्तरिक्ष से भी विस्तृत है । स्वयं प्रकाशित, सर्वप्रिय, उत्तम योद्धा, असीमित बल वाले इन्द्रदेव युद्ध के लिए अपने वीरों को प्रेरित करते हैं॥९॥ अस्येदेव शवसा शुषन्तं वि वृश्चद्वज्रेण वृत्रमिन्द्रः । गा न व्राणा अवनीरमुञ्चदभि श्रवो दावने सचेताः ॥१०॥ इन्द्रदेव ने अपने बल से शोषक वृत्र को वज्र से काट दिया और अपहत गायों के समान रोके हुए जलों को मुक्त किया। हविदाताओं को अन्नों से पूर्ण किया ॥१०॥ अस्येदु त्वेषसा रन्त सिन्धवः परि यद्वज्रेण सीमयच्छत् । ईशानकृद्दाशुषे दशस्यन्तुर्वीतये गाधं तुर्वणिः कः ॥११॥ इन्द्रदेव के बल से ही नदियाँ प्रवाहित हुईं; क्योंकि इन्होंने ही वज्र से (पर्वतों- भूखण्ड़ों को काटकर, प्रवाह-पथ बनाकर) इन्हें मर्यादित कर दिया है। शत्रुओं को मारकर सभी पर शासन करने वाले इन्द्रदेव हविदाता को धन देते हुए 'तुर्वणि' अर्थात् शत्रुओं से मोर्चा लेने वाले की सहायता करते हैं॥११॥ अस्मा इदु प्र भरा तूतुजानो वृत्राय वज्रमीशानः कियेधाः । गोर्न पर्व वि रदा तिरश्चेष्यन्नर्णांस्यपां चरध्यै ॥१२॥ हे इन्द्रदेव ! अति वेगवान्, सबके स्वामी, महाबली आप इस वृत्र पर वज्र का प्रहार करें और इसके जोड़ों को तिरछे (वज्र के) प्रहार से भूमि के समान (समतल) काट दें। इस प्रकार जलों को मुक्त करके प्रवाहित करें ॥१२॥ अस्येदु प्र ब्रूहि पूर्व्याणि तुरस्य कर्माणि नव्य उक्थैः । युधे यदिष्णान आयुधान्यृघायमाणो निरिणाति शत्रून् ॥१३॥ हे मनुष्य ! इन्द्रदेव के पुरातन कर्मों की आप प्रशंसा करें। युद्ध में वे शीघ्रता से शस्त्रों का प्रहार करके समाज को हानि पहुँचाने वाले शत्रुओं को विनष्ट करते हैं॥ १३॥ अस्येदु भिया गिरयश्च दृळ्हा द्यावा च भूमा जनुषस्तुजेते । उपो वेनस्य जोगुवान ओणिं सद्यो भुवद्वीर्याय नोधाः ॥१४॥ इन इन्द्रदेव के भय से दृढ़ पर्वत, आकाश, पृथ्वी और सभी प्राणी काँपते हैं। नोधा ऋषि इन्द्रदेव के श्रेष्ठ रक्षण सामथ्र्यों का वर्णन करते हुए उनके अनुग्रह से बलशाली हुए थे ॥१४॥ अस्मा इदु त्यदनु दाय्येषामेको यद्वव्ने भूरेरीशानः । प्रैतशं सूर्ये पस्पृधानं सौवश्व्ये सुष्विमावदिन्द्रः ॥१५॥ बहुत से धनों के एकमात्र स्वामी इन्द्रदेव जो इच्छा करते हैं, वही स्तोताओं के द्वारा अर्पित किया जाता है। इन्द्रदेव ने स्वश्व के पुत्र 'सूर्य' के साथ स्पर्धा करने वाले तथा सोमयाग करने वाले 'एतश' त्रग्रंप को सुरक्षा प्रदान की ॥१५॥ एवा ते हारियोजना सुवृक्तीन्द्र ब्रह्माणि गोतमासो अक्रन् । ऐषु विश्वपेशसं धियं धाः प्रातर्मधू धियावसुर्जगम्यात् ॥१६॥ हरे रंग के अश्वों से योजित रथ वाले हे इन्द्रदेव ! गौतम वंशजों ने आपके निमित्त आकर्षक मंत्रयुक्त स्तोत्र का गान किया है। इनका आप ध्यानपूर्वक श्रवण करें। विचारपूर्वक अपार धन वैभव प्रदान करने वाले इन्द्रदेव हमें प्रातः (यज्ञ में) शीघ्र प्राप्त हों ॥१६॥

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