ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त ७

ऋग्वेद–चतुर्थ मंडल सूक्त ७ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - अग्नि । छंद - त्रिष्टुप, १ जगती, २-६ अनुष्टुप, अयमिह प्रथमो धायि धातृभिर्होता यजिष्ठो अध्वरेष्वीड्यः । यमप्नवानो भृगवो विरुरुचुर्वनेषु चित्रं विभ्वं विशेविशे ॥१॥ देवों के आवाक, यज्ञीय कर्मों के निर्वाहक अग्निदेव यज्ञों में ऋत्विजों के द्वारा प्रशंसनीय स्तुतियों को प्राप्त करने वाले हैं। यज्ञीय कार्य हेतु इस यज्ञवेदी में इन्हें स्थापित किया गया है। यजमानों के उत्कर्ष हेतु भृगुवंशी ऋषियों ने इन विलक्षण एवं विस्तृत कर्मों के सम्पादक अग्निदेव को वनों में प्रज्वलित किया ॥१॥ अग्ने कदा त आनुषग्भुवद्देवस्य चेतनम् । अधा हि त्वा जगृभ्रिरे मर्तासो विक्ष्वीड्यम् ॥२॥ हे अग्निदेव ! आप मनुष्यों द्वारा प्रार्थनीय तथा आलोक सम्पन्न हैं। सभी लोग आपको जीवन दाता के रूप में ग्रहण करते हैं। आपका आलोक हर तरफ कब विस्तृत होगा? ॥२॥ ऋतावानं विचेतसं पश्यन्तो द्यामिव स्तृभिः । विश्वेषामध्वराणां हस्कर्तारं दमेदमे ॥३॥ वे अग्निदेव ज्ञान से युक्त, माया से रहित तथा समस्त यज्ञों को आलोकित करने वाले हैं। जैसे नक्षत्रों के द्वारा द्युलोक सुशोभित होता है, उसी प्रकार आप मनुष्यों के यज्ञगृह को सुशोभित करते हैं ॥३॥ आशुं दूतं विवस्वतो विश्वा यश्चर्षणीरभि । आ जभ्रुः केतुमायवो भृगवाणं विशेविशे ॥४॥ जो अग्निदेव द्रुतगामी, याजकों के संदेशवाहक, केतुस्वरूप, तेजोमय तथा अपनी विशेषताओं से समस्त मनुष्यों का उपकार करने वाले हैं; उनको सभी मनुष्य अपने गृहों में प्रतिष्ठित करते हैं ॥४॥ तमीं होतारमानुषक्चिकित्वांसं नि षेदिरे । रण्वं पावकशोचिषं यजिष्ठं सप्त धामभिः ॥५॥ यज्ञ सम्पादक, ज्ञानवान्, मनोहर, पवित्र दीप्ति वाले, होताओं में सर्वश्रेष्ठ तथा सात रंग वाली प्रकाश किरणों से सम्पन्न अग्निदेव को यज्ञमानों ने उपयुक्त स्थान पर स्थापित किया हैं ॥५॥ तं शश्वतीषु मातृषु वन आ वीतमश्रितम् । चित्रं सन्तं गुहा हितं सुवेदं कूचिदर्थिनम् ॥६॥ अद्भुत ज्ञान वाले उन अग्निदेव को याजकों ने प्रतिष्ठित किया है, जो जल तथा वृक्षों के समूह में विद्यमान रहने वाले, गुफा में रहने वाले, आहुति ग्रहण करने वाले तथा कमनीय होकर भी पास में न रखने लायक हैं ॥६॥ ससस्य यद्वियुता सस्मिन्नूधन्नृतस्य धामत्रणयन्त देवाः । महाँ अग्निर्नमसा रातहव्यो वैरध्वराय सदमिदृतावा ॥७॥ वे अग्निदेव साधकों द्वारा नित्य नमनपूर्वक सम्पन्न किये जाने वाले यज्ञों को जानते हैं। वे श्रेष्ठ सत्यवान् तथा आहुतियों को ग्रहण करने वाले हैं। याजकगण प्रातः काल निद्रा को त्यागकर यज्ञादि श्रेष्ठ कर्म करते हुए उन अग्निदेव को हर्षित करते हैं ॥७॥ वेरध्वरस्य दूत्यानि विद्वानुभे अन्ता रोदसी संचिकित्वान् । दूत ईयसे प्रदिव उराणो विदुष्टरो दिव आरोधनानि ॥८॥ हे विद्वान् अग्निदेव ! आप यज्ञदूत के (अपने) कार्य के ज्ञाता हैं तथा द्यावा-पृथिवीं के बीच में विद्यमान आकाश को जानने वाले हैं। आप अत्यन्त प्राचीन, सबको समृद्ध करने वाले, रिपुओं से पराजित न होने वाले तथा देवताओं के संदेशवाहक हैं। आप दिव्य लोक से भी ऊँचे स्थान में गमन करते हैं ॥८॥ कृष्णं त एम रुशतः पुरो भाश्चरिष्ण्वर्चिर्वपुषामिदेकम् । यदप्रवीता दधते ह गर्भ सद्यश्चिज्जातो भवसीदु दूतः ॥९॥ हे तेजसम्पन्न अग्निदेव ! आपका पथ काले रंग का है तथा आपकी प्रभा श्रेष्ठ है। आपका गमनशील तेज तेजस्वी पदार्थों में सर्वश्रेष्ठ है। जब अरणियों के बीच में आप पैदा होते हैं, तब पैदा होकर आप यजमानों के संदेशवाहक हो जाते हैं ॥९॥ सद्यो जातस्य ददृशानमोजो यदस्य वातो अनुवाति शोचिः । वृणक्ति तिग्मामतसेषु जिह्वां स्थिरा चिदन्ना दयते वि जम्भैः ॥१०॥ अरणिमन्थन के पश्चात् पैदा हुए अग्निदेव का ओज़ दिखायी देने लगता है। जब अग्नि की लपटों को लक्ष्य बनाकर हवा चलती है, तब वे काष्ठ के ढेर में अपनी तीक्ष्ण लपटों को संयुक्त कर देते हैं और कठोर-से कठोर अन्नरूप काष्ठों को अपने तीक्ष्ण दाँतों (लपटों) से भक्षण कर जाते हैं ॥१०॥ तृषु यदन्ना तृषुणा ववक्ष तृषं दूतं कृणुते यह्नो अग्निः । वातस्य मेळिं सचते निजूर्वन्नाशुं न वाजयते हिन्वे अर्वा ॥११॥ वे अग्निदेव अपनी द्रुतगामी किरणों द्वारा अन्नरूप काष्ठों को शीघ्र ही भग्मीभूत कर देते हैं। उसके बाद वे अपने आप को संदेशवाहक बना लेते हैं। वे समिधाओं को जलाकर वायु५पाहों से युक्त हो जाते हैं। जिस प्रकार घुड़सवार घोड़े को परिपुष्ट करता है, उसी प्रकार अग्निदेव अपनी लपटों को तेजस्वी बनाते हुए सबको प्रेरणा देते हैं ॥११॥

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