Maitreya Upanishad First Chapter (मैत्रेय उपनिषद) प्रथम अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥अथ मैत्रेय्युपनिषत् ॥ ॥ हरिः ॐ ॥ श्रुत्याचार्योपदेशेन मुनयो यत्पदं ययुः । तत्स्वानुभूतिसंसिद्धं स्वमात्रं ब्रह्म भावये ॥ ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि । सर्वं ब्रह्मौपनिषदंमाऽहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु । तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु । मेरे सभी अंग पुष्ट हों तथा मेरे वाक्, प्राण, चक्षु, श्रोत, बल तथा सम्पूर्ण इन्द्रियां पुष्ट हों। यह सब उपनिशद्वेद्य ब्रह्म है। मैं ब्रह्म का निराकरण न करूँ तथा ब्रह्म मेरा निराकरण न करें अर्थात मैं ब्रह्म से विमुख न होऊं और ब्रह्म मेरा परित्याग न करें। इस प्रकार हमारा परस्पर अनिराकरण हो, अनिराकरण हो । उपनिषदों मे जो धर्म हैं वे आत्मज्ञान मे लगे हुए मुझ मे स्थापित हों। मुझ मे स्थापित हों। ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ भगवान् शांति स्वरुप हैं अतः वह मेरे अधिभौतिक, अधिदैविक और अध्यात्मिक तीनो प्रकार के विघ्नों को सर्वथा शान्त करें । ॥ हरिः ॐ ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥ मैत्रेय्युपनिषत् ॥ मैत्रेय उपनिषद प्रथमोऽध्यायः प्रथम अध्याय ॐ बृहद्रथो वै नाम राजा राज्ये ज्येष्ठं पुत्रं निधापयित्वेदमशाश्वतं मन्यमानः शरीरं वैराग्यमुपेतोऽरण्यं निर्जगाम । स तत्र परमं तप आस्थायादित्यमीक्षमाण ऊर्ध्वबाहुस्तिष्ठत्यन्ते सहस्रस्य मुनिरन्तिकमाजगामाग्नि रिवाधूमकस्तेजसा निर्दहन्निवात्मविद्भगवाञ्छाकायन्य उत्तिष्ठोत्तिष्ठ वरं वृणीश्वेति राजानमब्रवीत्स तस्मै नमस्कृत्योवाच भगवन्नाहमात्मवित्त्वं तत्त्वविच्छृणुमो वयं स त्वं नो ब्रूहीत्येतद्वृत्तं पुरस्तादशक्यं मा पृच्छ प्रश्नमैक्ष्वाकान्यान्कामान्वृणीश्वेति शाकायन्यस्य चरणावभिमृश्यमानो राजेमां गाथां जगाद ॥ १॥ बृहद्रथ नामक राजा को यह अनुभव हुआ कि यह शरीर नाशवान् है। ऐसी अनुभूति होने पर उन्हें वैराग्य हो गया। इस कारण वह अपने बड़े पुत्र को राज्य देकर तपस्या करने वन को चले गये। वहाँ उस राजा ने उग्र तपश्चर्या की। वह सूर्य के समक्ष अपनी दृष्टि स्थिर करके तथा हाथ ऊपर करके खड़े रहे। एक सहस्र वर्ष पर्यन्त तपस्या के फल स्वरूप एक बार निधूम अग्नि के सदृश तेजस्वी शाकायन्य नामक आत्मवेत्ता महामुनि उनके समीप आये। उन्होंने राजा बृहद्रथ से कहा- 'उठो-उठो ! वर माँगो।' तदनन्तर ऐसा सुनकर एवं देखकर राजा ने उन्हें नमन करते हुए कहा-हे भगवन्! मैं आत्मवेत्ता नहीं हैं। आप तत्त्वज्ञाता हैं, ऐसा हमने सुना है। अतः आप मुझे 'तत्त्व' को उपदेश करने की कृपा करें। इस पर महामुनि शाकायन्य ने इस विषय को अति कठिन बताकर अन्य कोई वर माँगने के लिए कहा। ऐसा सुनकर बृहद्रथ राजा ने शाकायन्य मुनि के चरणों को स्पर्श करते हुए कहा ॥१॥ अथ किमएतैर्मान्यनां शोषणं महार्णवानां शिखरिणां प्रपतनं ध्रुवस्य प्रचलनं स्थानं वा तरूणां निमज्जनं पृथिव्याः स्थानादपसरणं सुराणां सोऽहमित्येतद्विधेऽस्मिन्संसारे किं कामोपभोगैर्येरेवाश्रितस्यासकृदुपावर्तनं दृश्यत इत्युद्धर्तुमर्हसीत्यन्धोदपानस्थो भेक इवाहमस्मिन्संसारे भगवंस्त्वं नो गतिरिति ॥ २॥ मैत्रेय्युपनिषद् बड़े-बड़े समुद्र शुष्क पड़ जाते हैं, पर्वत शिखर टूट- फूट जाते हैं, ध्रुव भी अपने स्थान से चलायमान हो जाते हैं, वृक्ष गिर जाते हैं, पृथ्वी डूब जाती है, देव भी (सदैव स्वर्ग में) स्थित नहीं रह पाते, तो फिर ऐसे नाशवान् संसार के विषय-भोगों से क्या लाभ? विषयों में डूबे हुए प्राणियों को बार-बार जन्म-मरण के चक्र में भ्रमण करना पड़ता है। इसलिए हे मुनि प्रवर! अँधेरे कुएँ में मेंढक की भाँति पड़े हुए मेरा उद्धार करने में आप ही समर्थ हैं। हे भगवन् ! इस संसार में मुझे शरण प्रदान करने वाले आप ही हैं ॥२॥ भगवशरीरमिदं मैथुनादेवोद्भूतं संविदपेतं निरय एव मूत्रद्वारेण निष्क्रान्तमस्थिभिश्चितं मांसेनानुलिप्तं चर्मणावबद्धं विण्मूत्रवातपित्त- कफमज्जामेदोवसाभिरन्यैश्च मलैर्बहुभिः परिपूर्णमेतादृशे शरीरे वर्तमानस्य भगवंस्त्वं नो गतिरिति ॥ ३॥ हे भगवन् ! स्त्री-पुरुष जन्य यह शरीर यदि ज्ञान रहित हो, तो इसे नरक ही समझना चाहिए, क्योंकि यह मूत्र के द्वार से बाहर निःसृत हुआ है, अस्थियों के द्वारा निर्मित है, मांस द्वारा लेपन किया गया है, चमड़े के द्वारा मढ़ा गया है एवं विष्ठा, मूत्र, वात, पित, कफ, मज्जा, मेद (चर्बी) तथा अन्य कई तरह के मलों से भरा हुआ है। इस प्रकार के (बीभत्स) शरीर वाले मुझको शरण प्रदान करने में आप ही समर्थ हैं ॥३॥ अथ भगवाञ्छकायन्यः सुप्रीतोऽब्रवीद्राजानं महाराज बृहद्रथेक्ष्वाकुर्वंशध्वजशीर्षात्मज्ञः कृतकृत्यस्त्वं मरुन्नाम्नो विश्रुतोऽसीत्ययं खल्वात्मा ते कतमो भगवान्वर्ण्य इति तं होवाच ॥ ऐसा कहे जाने पर भगवान् शाकायन्य मुनि ने अति प्रसन्न होकर राजा से कहा-'हे महाराज बृहद्रथ! तुम इक्ष्वाकु वंशीय श्रेष्ठ पुरुष हो, आत्मज्ञ हो, कृतकृत्य हो, मरुत् नाम से प्रख्यात हो, यही तुम्हारी आत्मा है। तदनन्तर राजा बृहद्रथ ने कहा- 'हे भगवन् ! आत्मा (का स्वरूप) क्या है? इस आत्मतत्त्व का वर्णन करने। की कृपा करें ? यह सुनकर मुनि ने कहा- ॥४॥ शब्दस्पर्शमया येऽर्था अनर्था इव ते स्थिताः । येषां सक्तस्तु भूतात्मा न स्मरेच्च परं पदम् ॥ १॥ शब्द, स्पर्शादि विषय अनर्थ उत्पन्न करने वाले हैं तथा उसमें आसक्त हुए जीवात्मा को परम (श्रेष्ठ) पद को स्वरूप स्मृति में नहीं आता ॥५॥ तपसा प्राप्यते सत्त्वं सत्त्वात्सम्प्राप्यते मनः । मनसा प्राप्यते ह्यात्मा ह्यात्मापत्त्या निवर्तते ॥ २॥ तप के द्वारा ज्ञान की प्राप्ति होती है, ज्ञान के वश में होने से मन वशीभूत होता है, मन वश में होने से आत्मा की प्राप्ति होती है और आत्मा के प्राप्त हो जाने पर इस नश्वर संसार से मुक्ति मिल जाती है ॥६॥ यथा निरिन्धनो वह्निः स्वयोनावुपशाम्यति । तथा वृत्तिक्षयच्चित्तं स्वयोनावुपशाम्यति ॥ ३॥ जैसे ईंधन (लकड़ी) के समाप्त हो जाने पर अग्नि स्वयमेव बुझ जाती है, वैसे ही वृत्तियों के नष्ट होने पर चित्त अपने कारण रूप आत्मा में शान्त रूप हो जाता है ॥७॥ स्वयोनावुपशान्तस्य मनसः सत्यगामिनः । इन्द्रियार्थविमूढस्यानृताः कर्मवशानुगाः ॥ ४॥ अपने मूल कारण में शान्त एवं सत्य की ओर उन्मुख हुए मन को, इन्द्रियों के विषय-सम्बन्धी मूढ़ता (आसक्ति) के दूर होते ही, कर्मों के वशीभूत ये विषय झूठे (असत्य) मालूम होते हैं ॥८॥ चित्तमेव हि संसारस्तत्प्रयत्नेन शोधयेत् । यच्चित्तस्तन्मयो भवति गुह्यमेतत्सनातनम् ॥ ५॥ चित्त ही संसार है, अतः प्रयत्नपूर्वक उस (चित्त) का शोधन करना चाहिए। जिस प्रकार का जिसका चित्त होगा, उसकी उसी प्रकार की गति होती है, यह एक गूढ़ सनातन सिद्धान्त है ॥९॥ चित्तस्य हि प्रसादेन हन्ति कर्म शुभाशुभम् । प्रसन्नात्मात्मनि स्थित्वा सुखमक्षयमश्नुते ॥ ६॥ चित्त के शान्त होने पर शुभाशुभ कर्मों का शमन हो जाता है तथा शान्त बना मनुष्य, जब-जब आत्मा में लीन होता है, तब-तब उसे अक्षय एवं असीम आनन्द की प्राप्ति होती है ॥१०॥ समासक्तं यदा चित्तं जन्तोर्विषयगोचरम् । यद्येवं ब्रह्मणि स्यात्तत्को न मुच्येत बन्धनात् ॥ ७॥ मनुष्यों का चित्त जितना बाह्य विषय-भोगों में आसक्त रहता है, उतना यदि ब्रह्म में आसक्त हो जाए, तो फिर बन्धनों से कौन मुक्त न हो जाए? (अर्थात् सभी मुक्त हो जाएँ) ॥११॥ हृत्पुण्डरीकमध्ये तु भावयेत्परमेश्वरम् । साक्षिणं बुद्धिवृत्तस्य परमप्रेमगोचरम् ॥ ८॥ अगोचरं मनोवाचामवधूतादिसम्प्लवम् । सत्तामात्रप्रकाशैकप्रकाशं भावनातिगम् ॥ ९॥ अहेयमनुपादेयमसामान्यविशेषणम् । ध्रुवं स्तिमितगम्भीरं न तेजो न तमस्ततम् । निर्विकल्पं निराभासं निर्वाणमयसंविदम् ॥ १०॥ हृदय कमल के मध्य, बुद्धि के समस्त कर्मों के साक्षी रूप एवं परम- अनुपम प्रेम के विषयभूत परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए॥ यह अविनाशी परमात्मा मन एवं वाणी से नहीं जाना जा सकता। यह आदि तथा अन्त से रहित है। यह एक मात्र सत् रूपी प्रकाश से सतत प्रकाशित होता है और कल्पनातीत है॥ उस परमात्म तत्त्व को स्वीकार करने एवं छोड़ने के लिए सामान्य भाव की अथवा विशेष भाव की कल्पना भी नहीं की जा सकती। वह परमात्मा तो शान्त, स्थिर एवं गम्भीर है। वह प्रकाश युक्त भी नहीं है और अन्धकार रूप में फैला हुआ भी नहीं है, बल्कि संकल्परहित, आभासरहित एवं मुक्त-चैतन्य रूप है ॥१२-१४॥ नित्यः शुद्धो बुद्धमुक्तस्वभावः सत्यः सूक्ष्मः संविभुश्चाद्वितीयः । आनन्दाब्धिर्यः परः सोऽहमस्मि प्रत्यग्धातुर्नात्र संशीतिरस्ति ॥ ११॥ वह परमात्मा नित्य, शुद्ध, ज्ञान स्वरूप, मुक्त स्वभाव, सत्यरूप, सूक्ष्म, सर्वत्र व्यापक और अद्वितीय है। इस परमानन्द सागर एवं प्रत्येक स्वरूप को धारण करने वाला मैं ही हूँ, इसमें कोई संशय नहीं है ॥१५॥ आनन्दमन्तर्निजमाश्रयं तमाशापिशाचीमवमनयन्तम् । आलोकयन्तं जगदिन्द्रजालमापत्कथं मां प्रविशेदसङ्गम् ॥ १२॥ अन्तःकरण में प्राप्त होने वाले आनन्द के आश्रित रहने वाली आशारूपी पिशाचिनी को दूर धकेलने वाले, सम्पूर्ण जगत् को मदारी के खेल की भाँति देखने वाले एवं असंग (आसक्ति रहित) रहने वाले (ऐसे) मेरे अन्तःकरण में दुःखों का प्रवेश कहाँ से हो सकता है? ॥१६॥ वर्णाश्रमाचारयुता विमूढाः कर्मानुसारेण फलं लभन्ते । वर्णादिधर्मं हि परित्यजन्तः स्वानन्दतृप्ताः पुरुषा भवन्ति ॥ १३॥ वर्ण एवं आश्रम धर्म का पालन करने वाले अज्ञानी जन ही अपने कर्मों का फल भोगते हैं, लेकिन वर्ण आदि के धर्मों को त्यागकर आत्मा में ही स्थिर रहने वाले मनुष्य अन्तः के आनन्द से ही पूर्ण सन्तुष्ट रहते हैं ॥१७॥ वर्णाश्रमं सावयवं स्वरूप माद्यन्तयुक्तं ह्यतिकृच्छ्रमात्रम् । पुत्रादिदेहेष्वभिमानशून्यं भूत्वा वसेत्सौख्यतमे ह्यनन्त इति ॥ १४॥ ४॥ वर्ण एवं आश्रम के धर्म तथा वैसे ही अंग-अवयवों से युक्त यह शरीर-ये सभी आदि-अन्त वाले होने के कारण अत्यन्त कष्टप्रद ही हैं। अतः पुत्र आदि के शरीरों पर मोह न रखते हुए परमानन्द रूप अनन्त में प्रतिष्ठित रहना चाहिए ॥१८॥ ॥ इति प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥ ॥ प्रथम अध्याय समाप्त ॥

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