ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ४०

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ४० ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः । देवता - इन्द्रः । छंद - गायत्री इन्द्र त्वा वृषभं वयं सुते सोमे हवामहे । स पाहि मध्वो अन्धसः ॥१॥ साधकों की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले है इन्द्रदेव ! अभिषुत सोम का पान करने के निमित्त हम आपका आवाहन करते हैं। आप अत्यन्त मधुर हविष्यान्न युक्त सोम का पान करें ॥१॥ इन्द्र क्रतुविदं सुतं सोमं हर्य पुरुष्टुत । पिबा वृषस्व तातृपिम् ॥२॥ है हरि संज्ञक अच्चों के स्वामी और बहुतों द्वारा प्रशंसित इन्द्रदेव ! आप अभीएवर्षक हैं। यह अभिषुत सोम आपको तृप्त करने के लिए इस यज्ञ में विधिवत् तैयार किया गया हैं। आप इसका पान करें ॥२॥ इन्द्र प्र णो धितावानं यज्ञं विश्वभिर्देवेभिः । तिर स्तवान विश्पते ॥३॥ हे स्तुत्य और प्रजापालक इन्द्रदेव ! आप सम्पूर्ण पूजनीय देवों के साथ हमारे इस हव्यादि द्रव्यों से पूर्ण यज्ञ को संवर्धित करें ॥३॥ इन्द्र सोमाः सुता इमे तव प्र यन्ति सत्पते । क्षयं चन्द्रास इन्दवः ॥४॥ हे सत्यव्रतियों के अधिपति इन्द्रदेव! ये दीप्तियुक्त, आह्लादक और अभियुत सोमरस आपके स्थान की ओर उन्मुख है (अर्थात् आपको समर्पित है), इसे ग्रहण करें ॥४॥ दधिष्वा जठरे सुतं सोममिन्द्र वरेण्यम् । तव द्युक्षास इन्दवः ॥५॥ है इन्द्रदेव ! यह अभिषुत सोम आपके द्वारा वरण करने योग्य है; क्योंकि यह दीप्तिमान् और आपके पास स्वर्ग में रहने योग्य है। आप इसे अपने उद्दर में धारण करें ॥५॥ गिर्वणः पाहि नः सुतं मधोर्धाराभिरज्यसे । इन्द्र त्वादातमिद्यशः ॥६॥ हैं स्तुत्य इन्द्रदेव ! हमारे द्वारा शोधित सोमरस का आप पान करें, क्योंकि इस आनन्ददायीं सोमरस की धाराओं में आप सिंचित होते हैं । है इन्द्रदेव ! आपकी कृपा से ही हमें यश मिलता है ॥६॥ अभि द्युम्नानि वनिन इन्द्रं सचन्ते अक्षिता । पीत्वी सोमस्य वावृधे ॥७॥ देवपूजक यजमान के द्वारा समर्पित दीप्तिमान् और अक्षय सोमादियुक्त हवियों इन्द्रदेव की ओर जाती हैं। इस सोम को पोकर इन्द्रदेव विकसित होते हैं॥७॥ अर्वावतो न आ गहि परावतश्च वृत्रहन् । इमा जुषस्व नो गिरः ॥८॥ हे वृत्रहन्ता इन्द्रदेव! आप समपस्थ स्थान से हमारे पास आयें। दूरस्थ स्थान से भी हमारे पास आयें। हमारे द्वारा समर्पित इन स्तुतियों को ग्रहण करें ॥८॥ यदन्तरा परावतमर्वावतं च हूयसे । इन्द्रेह तत आ गहि ॥९॥ हे इन्द्रदेव ! आप दूरस्थ देश से, समीपस्थ देश में तथा मध्य के प्रदेशों में बुलाये जाते हैं, उन स्थानों से आप में यज्ञ में आये ॥॥

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