ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १७९

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १७९ ऋषि - १-२ लोपामुद्रा, ३-४ अगस्त्यो मैत्रावारुणि ५-६ अगस्तशिष्यो ब्रह्मचारी देवता - इन्द्ररतिः । छंद - त्रिष्टुप, ५ बृहती पूर्वीरहं शरदः शश्रमाणा दोषा वस्तोरुषसो जरयन्तीः । मिनाति श्रियं जरिमा तनूनामप्यू नु पत्नीर्वृषणो जगम्युः ॥१॥ (देवी लोपामुद्रा कहती हैं)- हम विगत जीवन के अनेक वर्षों में उषा काल सहित दिन-रात श्रमनिष्ठ (तपरत) रहे हैं। वृद्धावस्था शरीरों की क्षमताओं को क्षीण कर देती है इसलिए श्रेष्ठ संतान की प्राप्ति की दृष्टि से) समर्थ पुरुष ही पत्नियों के समीप जायें। (यहाँ प्रकारांतर से व्यसन के रूप में पत्नियों के समीप जाने का निषेध है) ॥१॥ ये चिद्धि पूर्व ऋतसाप आसन्त्साकं देवेभिरवदन्नृतानि । ते चिदवासुर्नह्यन्तमापुः समू नु पत्नीर्वृषभिर्जगम्युः ॥२॥ पूर्वकाल में जो सत्य की साधना (करने-कराने) में प्रवृत्त ष स्तर के व्यक्ति हुए हैं, जो देवों के साथ (उनके समकक्षी सत्य बोलते थे। उन्होंने भी (उपयुक्त समय पर) संतानोत्पादन का कार्य किया, अन्त तक ब्रह्मचर्य आश्रम में ही नहीं रहे। (श्रेष्ठ संतान की प्राप्ति की दृष्टि से) उन श्रेष्-समर्थ पुरुषों को पत्नियाँ उपलब्ध करायी गयीं ॥२॥ न मृषा श्रान्तं यदवन्ति देवा विश्वा इत्स्पृधो अभ्यश्नवाव । जयावेदत्र शतनीथमाजिं यत्सम्यञ्चा मिथुनावभ्यजाव ॥३॥ (ऋषि अगस्त्य कहते हैं हमारा (अब तक का) तप बेकार नहीं गया है देवता श्रेष्ठ प्रवृत्तियों के कारण हमारी रक्षा करते हैं, (अतः हमने विश्व की (जीवन में आने वाली) सारी स्पर्धाएँ जीत ली हैं। हम दम्पती यदि अब उचित ढंग से संतान उत्पन्न करें, तो इस जीवन में सौ (वर्षों तक) संग्राम (जीवन की चुनौतियों) में विजयी होंगे ॥३॥ नदस्य मा रुधतः काम आगन्नित आजातो अमुतः कुतश्चित् । लोपामुद्रा वृषणं नी रिणाति धीरमधीरा धयति श्वसन्तम् ॥४॥ लोपामुद्रा नदी के प्रवाह को सब ओर से रोक लेने वाले संयम से उत्पन्न शक्ति को संतान प्राप्ति की कामना की ओर प्रेरित करती हैं । यह भाव इस (शारीरिक स्वभाव) अथवा उस (कर्तव्य बुद्धि) या किसी अन्य कारण से और अधिक बढ़ता है। श्वास का संयम रखने वाले समर्थ धीर पुरुष अधीरता को नियंत्रण में रखते हैं ॥४॥ इमं नु सोममन्तितो हृत्सु पीतमुप ब्रुवे । यत्सीमागश्चकृमा तत्सु मृळतु पुलुकामो हि मर्त्यः ॥५॥ (इस ज्ञान को प्राप्त करने के बाद शिष्य के भाव हैं - सोम (ओषधि रस विशेष) के निकट जाकर भावनापूर्वक उसका पान करते हुए वह प्रार्थना करता है "मनुष्य अनेक प्रकार की कामनाओं वाला है। उक्त संदर्भ में) यदि मेरे मन में कोई विकार आया हो, तो यह सोम अपने प्रभाव से उसे शुद्ध कर दे ॥५॥ अगस्त्यः खनमानः खनित्रैः प्रजामपत्यं बलमिच्छमानः । उभौ वर्णावृषिरुग्रः पुपोष सत्या देवेष्वाशिषो जगाम ॥६॥ उग्र तपस्वी अगस्त्य ने खनित्र (शोध क्षमता) से खनन (नये-नये शोध कार्य करते हुए, प्रजा (संतान) उत्पन्न करने वाले तथा (तप द्वारा) शक्ति अर्जित करनेवाले, दोनों वर्गों (प्रवृत्तियों) वाले मनुष्यों का पोषण किया (और इस प्रकार-) देवताओं के सच्चे आशीर्वाद को प्राप्त किया ॥६॥

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