ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त १९

ऋग्वेद - पंचम मंडल सूक्त १९ ऋषि-वव्रिरात्रेय देवता - अग्नि । छंद -गायत्री, ३-४ अनुष्टुप, ५ विराडू रूपा अभ्यवस्थाः प्र जायन्ते प्र वव्रेर्वव्रिश्चिकेत । उपस्थे मातुर्वि चष्टे ॥१॥ वे अग्निदेव माता रूप पृथ्वी की गोद में प्रकट होकर सबको देखते हैं। वे अग्निदेव वव्रि अषि की स्थिति के अनुरूप उनकी हवियाँ ग्रहण करें, अथवा शरीर धारियों के शरीर की स्थिति के अनुरूप उनका पोषण करें ॥१॥ जुहुरे वि चितयन्तोऽनिमिषं नृम्णं पान्ति । आ दृळ्हां पुरं विविशुः ॥२॥ हे अग्निदेब ! आपके प्रभाव को जानकर जो याज्ञिक सर्वदा आपका आवाहन करते हैं और हवि तथा स्तोत्रों द्वारा आपके बलों की रक्षा करते हैं, वे शत्रुओं के दुर्गम नगरों को तोड़कर उसमें प्रवेश कर जाते हैं ॥२॥ आ श्वेत्रेयस्य जन्तवो द्युमद्वर्धन्त कृष्टयः । निष्कग्रीवो बृहदुक्थ एना मध्वा न वाजयुः ॥३॥ महान् स्तोत्रों का उच्चारण करने वाले, अन्नों को चाहने वाले, कण्ठ में स्वर्ण-अलंकारों को धारण करने वाले और जन्म लेने वाले मनुष्य अति मधुर स्तोत्रों द्वारा अग्नि की दीप्तियों को प्रवृद्ध करते हैं ॥३॥ प्रियं दुग्धं न काम्यमजामि जाम्योः सचा । घर्मो न वाजजठरोऽदब्धः शश्वतो दभः ॥४॥ यज्ञ के समान हविष्यान्न को अपने जठर में रखने वाले, शत्रुओं द्वारा अहिंसित रहकर शत्रुओं के हिंसक वे अग्निदेव आकाश और पृथ्वी के सहायक रूप में हैं। वे अग्निदेव दूध के समान-कामनायोग्य और निर्दोष होकर हमारे प्रीतिकर स्तोत्रों का श्रवण करें ॥४॥ क्रीळन्नो रश्म आ भुवः सं भस्मना वायुना वेविदानः । ता अस्य सन्धृषजो न तिग्माः सुसंशिता वक्ष्यो वक्षणेस्थाः ॥५॥ हे प्रदीप्त अग्निदेव ! काष्ठों में क्रीड़ा करते हुए वायु द्वारा प्रेरित, भस्म द्वारा भासित होने वाले आप हमारी ओर उन्मुख हों। काष्ठों के वक्ष में स्थित आपकी ज्वालाएँ अत्यन्त तीक्ष्ण और शत्रुविनाशक हैं। वे ज्वालाएँ हमारे निमित्त तीक्ष्ण (कष्टदायक) न हों ॥५॥

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