ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १७३

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १७३ ऋषि - अगस्त्यो मैत्रावारुणिः देवता- इन्द्रःः। छंद - त्रिष्टुप; ४ विराटस्थाना गायत्साम नभन्यं यथा वेरर्चाम तद्वावृधानं स्वर्वत् । गावो धेनवो बर्हिष्यदब्धा आ यत्सद्मानं दिव्यं विवासान् ॥१॥ कामनाओं की पूर्ति करनेवाली गौएँ (वाणी) यज्ञ में विराजमान् इन्द्रदेव की सेवा करती हैं। आप अपने ज्ञान के अनुसार शत्रु-हिंसक साम का गायन करें। हम भी इसी प्रकार इन्द्रदेव के लिए सुखदायी तथा उन्नतिकारी साम का गान करते हैं ॥१॥ अर्चवृषा वृषभिः स्वेदुहव्यैर्मृगो नाश्नो अति यज्जुगुर्यात् । प्र मन्दयुर्मनां गूर्त होता भरते मर्यो मिथुना यजत्रः ॥२॥ जिस समय हवि सेवन के इच्छुक इन्द्रदेव, सिंह के समान, अपने भक्ष्य (आहुतियों) की कामना करते हैं, उसी समय तेजस्वी अंत्वन् सामर्थ्यवर्धक अपना हविष्यान्न इन्द्रदेव को समर्पित करते हैं। है पुरुषार्थी इन्द्रदेव ! हविदाता, यज्ञकर्ता तथा होता, स्तोताओं के साथ मिलकर मन्त्रोच्चारपूर्वक आपके निमित्त हव्य प्रदान करते हैं॥२॥ नक्षद्धोता परि सद्म मिता यन्भरगर्भमा शरदः पृथिव्याः । क्रन्ददश्वो नयमानो रुवद्गौरन्तर्दूतो न रोदसी चरद्वाक् ॥३॥ होता इन्द्रदेव गतिशील होकर सर्वत्र संव्याप्त होते हैं और शरद तु से पूर्व (वर्षा ऋतु में) पृथ्वी के भीतरी भाग को जल से भर देते हैं । इन्द्रदेव को आते देखकर अश्व शब्द करते हैं, गौएँ भी रँभाती हैं। द्युलोक तथा भूलोक के बीच इन्द्रदेव दूत के समान घूमते हैं॥३॥ ता कर्माषतरास्मै प्र च्यौत्नानि देवयन्तो भरन्ते । ्र जुजोषदिन्द्रो दस्मवर्चा नासत्येव सुग्म्यो रथेष्ठाः ॥४॥ देवों के उपासक ऋत्विजों द्वारा जो शत्रु-संहारक हवि इन्द्रदेव के लिए अर्पित की जाती है, वहीं भली प्रकार से तैयार की गई हवि हम आपके निमित्त अर्पित करते हैं। दर्शनीय तेजस्विता युक्त और श्रेष्ठ गतिशील, रथ पर आरूढ़ वे इन्द्रदेव अश्विनीकुमारों के समान हमारे द्वारा प्रदत्त आहुतियों को स्वीकार करें ॥४॥ तमु ष्टुहीन्द्रं यो ह सत्वा यः शूरो मघवा यो रथेष्ठाः । प्रतीचश्चिद्योधीयान्वृषण्वान्ववब्रुषश्चित्तमसो विहन्ता ॥५॥ हे मनुष्यो ! जो इन्द्रदेव शत्रुसंहारक, शूरवीर, ऐश्वर्य सम्पन्न, उत्तम सारथि, असंख्य विरोधियों से निर्भीकता पूर्वक युद्ध करने वाले, प्रचुर सामर्थ्य युक्त और छाये हुए अज्ञान रूपी अन्धकार के नाशक हैं, ऐसे गुणों से सम्पन्न इन्द्रदेव की ही आप अर्चना करें ॥५॥ प्र यदित्था महिना नृभ्यो अस्त्यरं रोदसी कक्ष्ये नास्मै । सं विव्य इन्द्रो वृजनं न भूमा भर्ति स्वधावाँ ओपशमिव द्याम् ॥६॥ इन्द्रदेव अपनी महिमा से मनुष्यों के प्रभु हैं, उनके लिये कक्ष के ही समान आकाश और पृथ्वी, दोनों लोक पर्याप्त नहीं वे इन्द्रदेव बालों के समान पृथ्वी को तथा बैल के सींग के समान द्युलोक को धारण किये हुए हैं॥६॥ समत्सु त्वा शूर सतामुराणं प्रपथिन्तमं परितंसयध्यै । सजोषस इन्द्रं मदे क्षोणीः सूरिं चिद्ये अनुमदन्ति वाजैः ॥७॥ जो उत्साही वीरगण आनन्दित स्थिति में अत्रों के द्वारा ज्ञान सम्पन्न इन्द्रदेव को मरुतों के साथ प्रसन्न करते हैं, हे वीर इन्द्रदेव! वे सर्वोत्तम, श्रेष्ठ, मार्गदर्शक मानकर आपको ही युद्ध भूमि में भी अग्रणी स्थान प्रदान करते हैं॥७॥ एवा हि ते शं सवना समुद्र आपो यत्त आसु मदन्ति देवीः । विश्वा ते अनु जोष्या भूद्गौः सूरींश्चिद्यदि धिषा वेषि जनान् ॥८॥ जब जलों को समुद्र तथा समस्त भूक्षेत्रों में बरसाने के लिए इन्द्रदेव की स्तुति की जाती है, तब जल वृष्टि की कामना से किये जा रहे यज्ञ आनन्दप्रद होते हैं। जब ज्ञानी मनुष्य भावनापूर्वक इन्द्रदेव की प्रार्थना करते हैं, तब हर्षित इन्द्रदेव उन्हें अभीष्ट फल प्रदान करते हैं॥८ ॥ असाम यथा सुषखाय एन स्वभिष्टयो नरां न शंसैः । असद्यथा न इन्द्रो वन्दनेष्ठास्तुरो न कर्म नयमान उक्था ॥९॥ हे स्वामी इन्द्रदेव ! आप हमारे साथ वहीं व्यवहार करें, जिससे हमारी मित्रता आपके साथ रहे और हमारी स्तोत्र वाणिय आप से अभीष्ट साधनों की पूर्ति भी करा सकें। आप हमारी प्रार्थनाओं को सुनकर शीघ्र ही हमें कर्तव्यों का निर्वाह करने की शक्ति प्रदान करें ॥९॥ विष्पर्धसो नरां न शंसैरस्माकासदिन्द्रो वज्रहस्तः । मित्रायुवो न पूर्पतिं सुशिष्टौ मध्यायुव उप शिक्षन्ति यज्ञैः ॥१०॥ याज्ञिकों के समान ही स्तोता लोग भी प्रशंसक वाणियों के द्वारा प्रतिस्पर्धा भावना से इन्द्रदेव की स्तुति करते हैं, ताकि वज्रधारी इन्द्रदेव की मित्रता हमें प्राप्त हो। जैसे मध्यस्थ लोग शिष्टाचारवश मित्रता की कामना से कुछ (उपहार) देते हैं, वैसे ही राष्ट्र रक्षक इन्द्रदेव को यज्ञों के द्वारा दान स्वरूप हविष्यान्न समर्पित करते हैं॥१०॥ यज्ञो हि ष्मेन्द्रं कश्चिदृन्धञ्जुहुराणश्चिन्मनसा परियन् । तीर्थे नाच्छा तातृषाणमोको दीर्घो न सिध्रमा कृणोत्यध्वा ॥११॥ प्रत्येक यज्ञीय कर्म इन्द्रदेव को संवर्धित करते हैं, दुर्भावजन्य कुटिलता से किये गये यज्ञ से इन्द्रदेव प्रसन्न नहीं होते हैं। जिस प्रकार तीर्थ यात्रा में प्यासे को समीप का जल ही तुष्टि देता है, (दूर दिखने वाला जल तृप्त नहीं करता) उसी प्रकार श्रेष्ठ यज्ञ ही इन्द्रदेव को प्रसन्नता प्रदान करता है। जैसे लम्बा पथ पीड़ा पहुँचाता है, वैसे ही कुटिलतापूर्ण यज्ञ कुटिल फल प्रदान करता है॥११॥ मो षूण इन्द्रात्र पृत्सु देवैरस्ति हि ष्मा ते शुष्मिन्नवयाः । महश्चिद्यस्य मीळ्ळ्हुषो यव्या हविष्मतो मरुतो वन्दते गीः ॥१२॥ हे इन्द्रदेव ! आप (मरुतों के साथ युद्ध में) हमारा भी साथ मत छोड़ना । हे बलशाली ! आपके लिए यज्ञ भाग प्रस्तुत है। हमारी सुख देने वाली, फलित होनेवाली स्तुतियाँ अन्न और जल देने वाले मरुतों की भी वन्दना करती हैं॥१२॥ एष स्तोम इन्द्र तुभ्यमस्मे एतेन गातुं हरिवो विदो नः । आ नो ववृत्याः सुविताय देव विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥१३॥ हे अश्वों से सम्पन्न देवस्वरूप इन्द्रदेव ! हमारी ये स्तुतियाँ आपके निमित्त हैं, इनसे हमारे यज्ञ के उद्देश्य को समझें । हमें कल्याणकारी धन सम्पदा प्रदान करें; जिससे हम अन्न, बल तथा विजयश्री प्रदान करने वाले सैनिकों को प्राप्त करें ॥१३॥

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