ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १५५

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १५५ ऋषि - दीर्घतमा औचथ्यः देवता- विष्णु । छंद - जगती प्र वः पान्तमन्धसो धियायते महे शूराय विष्णवे चार्चत । या सानुनि पर्वतानामदाभ्या महस्तस्थतुरर्वतेव साधुना ॥१॥ अपराजेय तथा महिमायुक्त जो इन्द्र और विष्णुदेव श्रेष्ठ अश्वों के समान पर्वतों के शिखरों पर रहते हैं; सद्बुद्धि की ओर प्रेरित करने वाले उन महान् इन्द्र और विष्णुदेव के लिए सोम रस रूपी श्रेष्ठ हविष्यान्न समर्पित करें ॥१॥ त्वेषमित्था समरणं शिमीवतोरिन्द्राविष्णू सुतपा वामुरुष्यति । या मर्त्याय प्रतिधीयमानमित्कृशानोरस्तुरसनामुरुष्यथः ॥२॥ हे इन्द्र और विष्णुदेव ! आप दोनों रिपुओं का सर्वनाश करने वाले अग्नि की प्रखर - तेजस्वी ज्वालाओं का अधिकाधिक विस्तार करते हैं। आप दोनों की सभी ओर विस्तृत सामर्थ्यवान् तेजस्विता को, सोमयाग करने वाले मनुष्य और अधिक विस्तृत करते हैं॥२॥ ता ईं वर्धन्ति मह्यस्य पौंस्यं नि मातरा नयति रेतसे भुजे । दधाति पुत्रोऽवरं परं पितुर्नाम तृतीयमधि रोचने दिवः ॥३॥ वे प्रार्थनाएँ सूर्यरूप विष्णुदेव की महिमायुक्त सामर्थ्य को विशेष रूप से बढ़ाती हैं । विष्णुदेव अपनी उस क्षमता को उत्पादकता एवं उपयोग के लिए, द्यावा और पृथ्वीरूपी दो माताओं के बीच प्रतिष्ठित करते हैं। जिस प्रकार एक पुत्र अपने पिता के तीनों प्रकार के गुणों को धारण करता है, उसी प्रकार विष्णुदेव अपने सभी प्रकार के गुणों को द्युलोक में स्थापित करते हैं॥३॥ तत्तदिदस्य पौंस्यं गृणीमसीनस्य त्रातुरवृकस्य मीळ्हुषः । यः पार्थिवानि त्रिभिरिद्विगामभिरुरु क्रमिष्टोरुगायाय जीवसे ॥४॥ जिन सूर्यरूप विष्णुदेव ने अपने मार्ग का विस्तार करने तथा जीवनीशक्ति (प्राण-ऊर्जा) संचरित करने के लिए सभी विस्तृत लोकों को मात्र तीन पगों से नाप लिया; ऐसे संरक्षक, शत्रुरहित (अजातशत्र), सुखकारक तथा सभी पदार्थों के स्वामी विष्णुदेव के उन सभी पराक्रम-पूर्ण कार्यों की सभी प्रशंसा करते हैं ॥४॥ द्वे इदस्य क्रमणे स्वर्दृशोऽभिख्याय मर्यो भुरण्यति । तृतीयमस्य नकिरा दधर्षति वयश्चन पतयन्तः पतत्रिणः ॥५॥ मनुष्य के लिए तेजस्वितायुक्त, विष्णुदेव के (पृथ्वीं और अन्तरिक्ष रूपी) दो पगों का परिचय पाना सम्भव हैं, लेकिन (द्युलोक रूपी) तीसरे पग को किसी के भी द्वारा जानना असम्भव हैं। सुदृढ़ पंखों से युक्त पक्षी भी उसे नहीं जान सकते ॥५॥ चतुर्भिः साकं नवतिं च नामभिश्चक्रं न वृत्तं व्यतीँरवीविपत् । बृहच्छरीरो विमिमान ऋक्वभिर्युवाकुमारः प्रत्येत्याहवम् ॥६॥ सूर्य रूप विष्णु देव चार सहित नब्बे अर्थात् चौरानवे काल गणना के अवयवों को अपनी प्रेरणा शक्ति से चक्राकार (गोल चक्र के समान) रूप में घुमाते हैं। विशाल स्वरूप धारी, सदा युवा रूप, कभी क्षीण न होने वाले, सूर्यरूप विष्णुदेव काल की गति को प्रेरित करते हुए ऋचाओं द्वारा आवाहन किये जाने पर यज्ञ की ओर आ रहे है (अर्थात् सृष्टि क्रम के विराट यज्ञ को सम्पन्न कर रहे हैं) ॥६॥

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